(यह लेख अगस्त 1977 में लिखा गया है। इसमें कई जगहों पर विभिन्न चीजों की कीमतों और सरकार या सत्तारूढ़ दल आदि का जो उल्लेख है वह तब का है। इसे वैसा का वैसा रहने दिया गया है। इस लेख में महँगाई के बुनियादी कारणों को चिह्नित किया गया है, और इस मायने में यह आज भी उतना ही मौजूँ है। आज जब महँगाई एक बहुत बड़ा मसला बन गयी है, किशन जी के इस लेख का पुनर्प्रकाशन जरूरी जान पड़ता है।)
(दूसरी किस्त)
— किशन पटनायक —
लागत का दाम से सीधा संबंध है। किसी चीज को बनाने के लिए जितना खर्च लगता है उसी को लागत कहते हैं। बनाने में जितना खर्च लगेगा उसमें मुनाफा जोड़कर कीमत तय होगी। लेकिन कीमत लागत से कितनी ज्यादा होनी चाहिए।
लोहिया ने कहा था कि जरूरी चीजों का दाम लागत का डेढ़ा होना चाहिए यानी अगर एक गज मोटा कपड़ा बनाने में एक रुपए की लागत आती है तो उसकी कीमत होनी चाहिए डेढ़ रुपए। इसी में कारखाने के मालिक और व्यापारी का मुनाफा आ जाना चाहिए। जो चीजें रोजमर्रा की जरूरी चीजें नहीं हैं उन पर टैक्स दुगुना या तिगुना भी हो सकता है। लेकिन अभी तो लूट है। हाजमे के लिए एक गोली होती है– यूनिजाइन। एक गोली बनाने पर एक पैसा या दो पैसा लगता होगा लेकिन उसको खरीदने जाइए तो बीस पैसा देना पड़ता है। एक विटामिन की गोली का नाम है– बिकोसूल। इसकी कीमत है पचपन पैसे– इसको बनाने में शायद पाँच पैसे से ज्यादा नहीं लगता। कुछ दवाओं की कीमत में विदेशी कंपनियाँ एक सौ से लेकर तीन हजार गुना मुनाफा रखती हैं।
सरकार को चाहिए दवा के कारखानों से खुफिया ढंग से पता लगाए कि सचमुच इन दवाओं को बनाने में कितना खर्च होता है। पता लगाकर इसकी जानकारी दे। विज्ञापन छपवाए कि अमुक दवा बनाने में एक पैसा लगता है और उसको एक रुपए में बेचा जाता है। इससे लोगों में इतना ज्यादा गुस्सा पैदा होगा कि जनता के आंदोलन से दवाओं का दाम घटने लगेगा। दवा, कपड़े, दंतमंजन, टाटा का साबुन, बाटा के जूते इन सब के पीछे भयंकर लूट मची है। लागत के बारे में दो तरह की तिकड़म चलती है– एक तो यह कि लागत से चार गुनी, दस गुनी, हजार गुनी ज्यादा तक कीमत रखी जाती है।
दूसरी, यह कि लागत का हिसाब बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है। कंपनी के बड़े अफसरों और मैनेजरों की मोटी तनखाहें व भत्ते तो जुड़ते ही हैं। अफसर लोग जो देश-विदेशों की हवाई यात्रा करते हैं, टेलीफोन पर एक शहर से दूसरे शहर में अपनी बीबी-बच्चों से बात करते हैं, दोस्तों को शराब पिलाते हैं- यह सब खर्च भी लागत में जोड़ दिया जाता है।
अगर खेती की पैदावार के दामों में भी ऐसा हिसाब हो तो एक किलो गेहूँ का दाम पाँच रुपए से कम नहीं होगा। देहाती लोग हमेशा अपनी उपज सस्ते में बेचते हैं और शहर की चीजों को महँगा खरीदते हैं और नुकसान में रहते हैं। खेती और करखनिया माल की कीमतों में संतुलन लाने के लिए यह जरूरी है कि शहरी चीजों की लागत को घटाया जाए।
अतएव लागत के बारे में तीन नियम बनने चाहिए – (1) लागत और कीमत का फर्क ज्यादा न हो। (2) फिजूल खर्च और अत्यधिक मुनाफा घटाया जाए। (3) जब तक सरकार यह नहीं कर पाती तब तक वह एक-एक चीज की लागत के बारे में जानकारी दे ताकि उसके बारे गुस्सा पैदा हो और खरीदार लोग आंदोलन करें।
कुछ चीजें मुफ्त हों
खाने-पहनने की चीजों का उत्पादन निर्यात के लिए नहीं होना चाहिए। कुछ चीजों को विलास या आराम का सामान कहा जाता है। कुछ चीजों को आवश्यक वस्तुएँ कहा जाता है। इसी प्रकार कुछ चीजों पर यह मुहर लग जानी चाहिए कि वे हर आदमी के लिए हैं। ऐसी चीजें मुफ्त दी जाएँ या इतनी सस्ती हों कि गरीब से गरीब आदमी भी उन्हें खरीद सके। ऐसी चीजों का निर्यात नहीं हो, उन पर टैक्स न लगे बल्कि उनका दाम घटाने के लिए अनुदान दिया जाए। यह कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि इनका बहुत बड़ी मात्रा में उत्पादन किया जाए। हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका में कुछ चावल मुफ्त दिया जाता है।
मुफ्तखोरी कोई अच्छी चीज नहीं। बेकारी भत्ता भी नहीं। अगर लोग असहाय और बेरोजगार हों तो सरकार का फर्ज होता है कि उनको सहायता दे। लेकिन कोई सरकार अगर लाखों-करोड़ों लोगों को मुफ्त अनाज और कपड़ा दे और उनसे बदले में काम न ले सके तो वह नालायक और निकम्मी सरकार होगी। उसे मुफ्त अनाज के बदले में लोगों को उत्पादन के काम में लगाना चाहिए। अनाज के साथ कपड़ा और बच्चों के लिए दूध और अंडा भी उसे देना चाहिए।
काम के लिए भोजन
महँगाई को रोकने का एक तरीका यह भी है कि चावल, चीनी और कपड़े का निर्यात बंद हो। ये सारी आबादी में बाँटे जाएँ। इस पद्धति को लागू करने के लिए सारी योजना को बदलना पड़ेगा। योजना के पैसे का बहुत बड़ा हिस्सा गाँव और गरीब मोहल्लों के विकास में लगाना होगा। सिंचाई, पीने का पानी, साक्षरता, सड़क, परती जमीन का विकास और छोटे-छोटे उद्योग ये सारे काम योजना में होंगे। काम के लिए पैसा कम दिया जाएगा पर उसके बदले चावल, कपड़ा, दूध, अंडा मिलेगा।
कुछ लोग ‘फूड फॉर वर्क’– काम के लिए भोजन की बात करते हैं। ऐसे करते हैं जैसे गरीबों को राहत देना उनका उद्देश्य हो। राहत का काम अनुत्पादक होता है। जिस मुल्क में गरीबों की संख्या करोड़ों में हो, वहाँ उनके मुँह में रोटी का एक टुकड़ा फेंकने के लिए नहीं, उनके करोड़ों हाथों से देश को सुंदर और समृद्ध बनाने के लिए रोजगार देना होगा। जनकल्याण और देश-निर्माण दोनों काम एकसाथ करने से मुद्रास्फीति रुकेगी। मुद्रास्फीति का मतलब है कि बाजार में चीजें उतनी ही हैं और रुपया ज्यादा आ गया है। इसके फलस्वरूप रुपयों की कीमत घट जाती है, महँगाई का एक बड़ा कारण यही होता है।
मुद्रास्फीति और बोनस
कभी-कभी मुद्रास्फीति के नाम से मजदूरों को बोनस व भत्ता न देने की बात सरकार कहती है। वेतन, भत्ता और बोनस बढ़ जाता है तो उससे बाजार में ज्यादा रुपया आ जाता है। इससे चीजों के दाम बढ़ जाते है। इंदिरा गांधी की सरकार ने एमरजेंसी में बोनस को पूरा खतम किया और भत्ते पर भी रोक लगा दी। जनता पार्टी की सरकार दुविधा में झूल रही थी। बोनस और भत्ते पर से रोक हट जाएगी तो बाजार में ज्यादा पैसा आ जाएगा और दाम पहले से भी ज्यादा बढ़ने लगेंगे। मजदूर बोनस और भत्ते की माँग छोड़ नहीं सकता क्योंकि उसे महँगाई खाए जाती है। जनता पार्टी की सरकार को आखिरकार बोनस देना ही पड़ा।
आमदनी और खर्च
जो इलाज है, वह बुनियादी है। बाजार में कुल मिलाकर जो रुपया आता है, उसमें मजदूरों का वेतन, भत्ता और बोनस रहता है, बड़े-बड़े अफसरों का वेतन, भत्ता और घूसखोरी से मिला पैसा रहता है, उद्योगपति और व्यापारी व काला धन और मुनाफा रहता है। ये सब मिलकर बाजार की चीजें खरीदना चाहते हैं। जब मुनाफा, घूस, काला धन और बड़े-बड़े अफसरों व मंत्रियों का फिजूल खर्च बाजार में आ जाता है तो बेचनेवाले दाम बढ़ा देते हैं। मजदूर और कर्मचारी ज्यादा पैसा माँगने लगते हैं। मजदूर और कर्मचारी को ज्यादा पैसा देने पर बाजार में और ज्यादा पैसा आ जाता है। और यह चक्र चलता रहता है। कोई उपाय न देखकर तानाशाही द्वारा मजदूरों का आंदोलन बंद करने की बात सरकार सोचती है। इंदिरा गांधी ने ऐसा किया था लेकिन बड़े लोगों की फिजूलखर्ची पर रोक नहीं लगाई, इसलिए घटने के बजाए एमरजेंसी में भी दाम बढ़ने लगे थे।
अगर सरकार अफसरों का भत्ता घटा दे, फिजूल खर्च रोक दे, काला धन पैदा न होने दे, घूसखोरी मिटा दे तो बाजार में पैसा अपने आप कम हो जाएगा। जिससे दाम घटने लगेगा। फिर शायद हमारा मजदूर भाई भी भत्ता बढ़ाने के लिए नहीं अड़ेगा। अड़ना भी नहीं चाहिए। वेतन, भत्ता बढ़ाने की माँग करना तो केवल उन लोगों के लिए वाजिब है जिनको निम्नतम मजूरी नहीं मिलती, जैसे खेत मजदूर या पत्थर तोड़नेवाली मजदूरनी। बड़े कारखानों के मजदूरों, बैंकों आदि के कर्मचारियों और सरकारी कर्मचारियों को तो जयप्रकाश नारायण भी ‘छोटा बुरजुवा’ कहते थे। इनके वेतन बढ़ने से समाज बदलता नहीं। जो सबसे नीचे हैं, अंतिम सीढ़ी पर उदास और हताश बैठा है, उसको कुछ मिलता है तो समाज बदलता है।
जिनको पहले से ही निम्नतम से ज्यादा वेतन मिल रहा हो उनकी और बढ़ाने की माँग को रोकने का एकमात्र तरीका है- बड़ी-बड़ी तनखाहों और भत्तों में कटौती करो। इससे समाज के अलग-अलग तबकों की आमदनी में संतुलन आएगा। राष्ट्रीय आमदनी नीति बननी चाहिए। विभिन्न तत्त्वों के बीच आमदनी और खर्च की गैरबराबरी खतम होनी चाहिए। दाम बाँधने का सबसे बड़ा आधार यही होगा। जनता पार्टी के चुनाव घोषणा-पत्र में यह बात थी, हम नयी बात नहीं कर रहे हैं।
बजट और दाम
सरकार खुद टैक्स लगाकर बहुत सारे दाम बढ़ाती है और इसके लिए वाहियात तर्क देती है। बीड़ी और देशी शराब पर टैक्स लगाकर कहती है कि ये खराब चीजें हैं, इन्हें लोग पीना छोड़ें। सिगरेट और विलायती शराब पर टैक्स बढ़ाकर कहती है कि ये पैसेवालों की चीज है इसलिए इनका दाम बढ़ना चाहिए। ऐसा तर्क देनेवाला बहुत मूर्ख होता है या फिर बदमाश होता है। अगर टैक्स बढ़ने पर लोग बीड़ी या देशी शराब पीना छोड़ देंगे तो टैक्स लगाने का सारा आर्थिक कारण ही खत्म हो जाएगा। बजट में तो यह हिसाब दिखाया जाता है कि अमुक टैक्स बढ़ाने पर इतना अधिक पैसा सरकारी खजाने में आएगा और वह फलाँ-फलाँ मदों पर खर्च होगा।
सिगरेट, विलायती शराब और मोटरकार– क्या हमारी राष्ट्रीय नीति यह है कि समाज के बड़े लोग इन पर ज्यादा खर्च करें। अगर उनसे ज्यादा खर्च करवाना है तो उनको ज्यादा वेतन और भत्ता देना पड़ेगा या फिर घूसखोरी और मुनाफे की छूट देनी होगी। टैक्स के अलावा सरकार सीधे तरीके से अपनी कुछ चीजों का दाम बढ़ा देती है जैसे रेल का किराया या पोस्टकार्ड का दाम। बाजार पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है। जब सरकार अपनी चीजों का दाम बढ़ा देती है या टैक्स द्वारा कुछ चीजों के दाम बढ़ने देती है तो दाम बढ़ने की लहर पैदा हो जाती है। बाकी चीजों के दाम भी उसी अनुपात में बढ़ने लगते हैं। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह खुद दाम न बढ़ाए।