मधु लिमये का कोई सानी नहीं

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

— रामस्वरूप मंत्री —

भारतीय लोकतंत्र का जिस्म तो बुलंद है, पर इसकी रूह रुग्ण हो चली है। ऐसे में जोड़, जुगत, जुगाड़ या तिकड़म से सियासत को साधने वाले दौर में मधु लिमये की बरबस याद आती है, जिनका जन्मशती वर्ष 1मई 2022 से शुरू हो रहा है।

लिमये के व्यक्तित्व की विशेषता उनका शत-प्रतिशत सिद्धान्तिक पक्ष था जिससे उन्होंने कभी भी किसी भी लाभ के लिए समझौता नहीं किया। वे सादगी से रहनेवाले नेता थे। आज के नौजवानों के लिए यह विस्मयकारी होगा कि अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के एक नेता व चार बार के लोकसभा सदस्य का जीवन खांटी समाजवादी व सुख-साधन से विहीन था। राजनीति के चरमोत्कर्ष पर हमें सन्नाटे में से ध्वनि, शोर में से संगीत और अंधकार में से प्रकाश किरण ढूँढ़ लेने की प्रवीणता हासिल करने का कौशल मधु लिमये में दिखता है।

मधु लिमये सचमुच विचारवेत्ता भी थे, और वार को आमने-सामने झेलनेवाले योद्धा भी। मुट्ठी भर योद्धाओं में दुबले-पतले लेकिन तेजस्वी मधु लिमए अगली पंक्ति के चिंतक व योद्धा थे। कभी भी न थकनेवाले, कोई भी समझौता न करनेवाले, बड़े से बड़े झूठ के खिलाफ तनकर सच बोलने की अदम्य निष्ठा वाले, संकटों के भंवरजाल में बेहद बेचैन लेकिन अंदर कहीं बेहद धीर-गंभीर मधु लिमये का भारतीय राजनीति मैं कोई सानी नहीं ।

स्वाधीनता संग्राम में तकरीबन 4 साल (40-45 के बीच), गोवा मुक्ति संग्राम में पुर्तगालियों के अधीन 19 महीने (1955 में 12 साल की सजा सुना दी गई), और आपातकाल के दौरान 19 महीने मीसा के तहत (जुलाई 75 – फरवरी 77) वे मध्यप्रदेश की कई जेलों में रहे। लिमये तीसरी, चौथी, पाँचवीं व छठी लोकसभा के सदस्य रहे, पर इंदिरा जी ने जब पाँचवीं लोकसभा का कार्यकाल एक साल बढ़ा दिया था, तो उसे अनैतिक मानते हुए मधु जी ने लोकसभा की अपनी सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था।

खबरपालिका की मानिंद आज विधायिका भी सूचना तथा मनोरंजन का साधन मात्र हो गयी है। व्यक्ति, समाज तथा अन्य संस्थाओं के बीच बढ़ती संवादहीनता की खाई को पाटने में यह कोई भूमिका निभाने की बजाय गैरजिम्मेदार लोगों के झुंड से घिरी हुई है। लिमये की कुशाग्र बहस को याद करते हुए संसद से यह सहज अपेक्षा बंधने लगती है कि यह सामूहिक संवाद के स्तर को ऊँचा करे, राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया को तेज करे, यथास्थिति को तोड़े, मजबूत लोगों का बयान होने की बजाय बेजुबानों की जुबान बनी रहे और लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करे।

संसदीय प्रणाली के नियमों के तहत जन आकांक्षाओं के अनुरूप मुद्दों को इतने सशक्त रूप से रखा या उठाया जा सकता है, वास्तव में देश को इसका भान मधु जी के संसद के कार्यों के द्वारा ही हो सका था। उन्होंने विशेषाधिकार नियमों का उपयोग कर देश को चमत्कृत किया था।

सोशलिस्ट पार्टी के उस समय संसद में बहुत कम सदस्य थे, इसके बावजूद उस दौरान मधु जी ने तत्कालीन सरकार को अनेक बार कठघरे में खड़ा किया और निरुत्तर किया। लोहिया जी के निधन के बाद मधु जी प्रथम पंक्ति के समाजवादी नेताओं में अग्रणी थे। कहना चाहिए कि समाजवादी सिद्धांतों और कार्यक्रमों के वो ही मुख्य व्याख्याता थे। सिद्धांत, नीति, कार्यक्रम, रणनीति आदि के विषय में मधु जी का भाषण स्पष्ट और सटीक होता था। 1977 में गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति के अंतर्गत केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार बनवाने की मुहिम में मधु जी की भूमिका अग्रणी रही थी, किंतु 1977 में बनी गैरकांग्रेसी सरकार में उन्होंने मंत्रिपरिषद में शामिल होना स्वीकार नहीं किया। सत्ता से अलग रहकर संगठन में अधिक महत्त्वपूर्ण और ज्यादा लोकोपयोगी कार्य करना उनको अधिक श्रेयस्कर लगता था। साथ ही यह उनकी पदों से दूर रहने और सादगीपसंद स्वभाव का घोतक भी था।

लिमये सोशलिस्ट पार्टी के संयुक्त सचिव (1949-52), प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के संयुक्त सचिव (1953 के इलाहाबाद सम्मेलन में निर्वाचित), सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष (58-59), संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष (67-68), चौथी लोकसभा में सोशलिस्ट ग्रुप के नेता (67), जनता पार्टी के महासचिव (1 मई 77-79), जनता पार्टी (एस) एवं लोकदल के महासचिव (79- 82) रहे। लोकदल (के) के गठन के बाद सक्रिय राजनीति को अलविदा कहा।

दो बार बंबई से चुनाव हारने के बाद लोगों के आग्रह पर वे 1964 के उपचुनाव में मुंगेर से लड़े और मजदूर नेता की अपनी छवि के बल पर जीते। 1967 के आम चुनाव में प्रचार के दौरान उनपर जानलेवा हमला हुआ, पर वो किसी तरह बच गए। वो सदर अस्पताल में भर्ती हुए जहां भेंट करनेवालों का तांता लगा हुआ था। सहानुभूति की लहर व अपने व्यक्तित्व के बूते वे फिर जीते। पर तीसरी दफे वे कॉलेज में डिमोंस्ट्रेटर रहे कांग्रेस प्रत्याशी डीपी यादव से त्रिकोणीय मुकाबले में हार गये।

यह भी चकित करनेवाली बात है कि तमाम प्रमुख नाम मोरारजी की कैबिनेट में थे, पर मधु लिमये का नाम नदारद था। मोरारजी चाहते थे कि आला दर्जे के तीनों बहसबाज जार्ज, मधु व राजनारायण कैबिनेट में शामिल हों। वो अपने वित्तमंत्री के कार्यकाल में लिमये के सवालों से छलनी होने का दर्द भोग चुके थे, पर लिमये ने रायपुर से सांसद और मध्य प्रदेश के वरिष्ठ समाजवादी नेता पुरुषोत्तम कौशिक को मंत्री बनवाया।

1967 में राममनोहर लोहिया की मृत्यु के बाद मधु लिमये संसोपा सं सदीय दल के नेता चुने गए। लेकिन तब तक संसोपा पर पिछड़ावाद हावी हो चुका था। पार्टी के कई लोगों को मलाल था कि जो पार्टी ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’ का नारा देती है, उस पार्टी और उसके वर्चस्व वाली सरकारों में महत्त्वपूर्ण पदों पर अगड़े वर्ग के लोग क्यों काबिज हैं। इसी विवाद में 1968 में बिहार की महामाया प्रसाद सिन्हा सरकार चली गयी थी। 1969 में यही सवाल संसोपा संसदीय दल की बैठक में भी उठा कि पिछड़ों की पार्टी के संसदीय दल के नेता पद पर ब्राह्मण समुदाय के मधु लिमये क्यों काबिज हैं? लेकिन सवाल उठने के बाद मधु लिमये ने एक मिनट की भी देर नहीं लगाई। अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद पार्टी के कई नेताओं ने उनको मनाने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं माने। आखिरकार उनकी जगह उत्तर प्रदेश के सोशलिस्ट नेता और बाराबंकी के सांसद रामसेवक यादव को संसोपा संसदीय दल का नेता चुना गया।

उनके बारे में एक तथ्य और बताते चलें कि 1990 में मंडल कमीशन का बवाल खड़ा होने के बाद जब सुप्रीम कोर्ट में इस विवाद पर इंदिरा साहनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस की सुनवाई शुरू हुई, तब क्रीमी लेयर का मामला लेकर मधु लिमये भी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए थे और खुद इस केस में एक पार्टी बन गए। सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले में उनके इस तर्क को माना कि पिछड़े वर्ग में क्रीमी लेयर यानी संपन्न तबकों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए।

आज उसी मर्यादा, सलीके व सदाशयी लोकव्यवहार का संसदीय राजनीति में सर्वथा अभाव दिखता है। हम अगर विचार विनिमय, बहस व विमर्श की स्वस्थ परंपरा को फिर से जिंदा कर पाए, तो जम्हूरियत की नासाज रूह की थोड़ी तीमारदारी हो जाएगी और यही होगी मधु जी के प्रति सच्ची भावांजलि।

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