मधु जी की विलक्षण प्रतिभा

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)
मृणाल गोरे (24 जून 1928 – 17 जुलाई 2012)

— मृणाल गोरे —

धु जी (मधु लिमये) से हमारा परिचय तब का है, जब वह 1942 में जेल से छूट कर आए थे, मेरे पति बंडू (स्व.केशव गोरे) ने उन्हें हमारे घर यह कहते हुए आमंत्रित किया था कि आप तो साहसी हो। मेरी उनसे मुलाकात तभी से हुई। आरंभ में वे मुझे मितभाषी और अंतर्मुखी स्वभाव के, लेकिन चीजों को बड़ी गंभीरता से पढ़ने वाले लगे। मुझे याद है, हमारे बांद्रा के एक मित्र बालकृष्ण वैद्य ने भी यहाँ से सौ किलोमीटर की दूरी पर अमरगांव में (जो अब गुजरात में है) एक शिविर आयोजित किया था, जिसमें दादा नाईक, नारायण खेमानी, प्रवीण मशरूवाला, माधव आंबे, जगदीश सीतलवाड़, श्रीमती अनीस राव आदि थे। इस शिविर में स्वतंत्रता का इतिहास विषय को मधु लिमये और समाजवाद का इतिहास विषय को केशव गोरे ने लिया। ये दो ही लोग शिविर चला रहे थे, जिसमें गहन विचार-विमर्श होता था।

उसी दौरान हम लोग समुद्र के किनारे काफी खेलते-कूदते भी थे। लेकिन जब पढ़ाई का समय आता तो उतने ही गंभीर हो जाते थे। स्वतंत्रता का इतिहास और समाजवाद को जानना हर कार्यकर्ता की बुनियादी शर्त होती थी। इसके माध्यम से कार्यकर्ताओं को पूरी तरह से यह शिक्षा दी जाती थी कि अपने समाज और देश के प्रति क्या जिम्मेदारियाँ हैं और उन्हें कैसे निभाना है। इन मूल तथ्यों की गहराई तक जाकर मधु लिमये और केशव गोरे ने हमें शिक्षा दी।

इस शिविर के दौरान ही मधु की विद्वत्ता ने मुझको और बंडू को काफी प्रभावित किया। हम दोनों तभी से मधु जी के प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के कायल हो गए। शिविर के दौरान अण्णा ए, विनायक कुलकर्णी और सदानंद बागाइतकर भी आते रहे। तदुपरांत केशव गोरे से मेरा विवाह हो गया। और हम बंबई के पश्चिमी उपनगर गोरेगांव में आकर रहने लगे। कुछ माह बाद अंतरराष्ट्रीय सोशलिस्ट सम्मेलन में भाग लेने मधु यूरोप गए। शायद उसी वर्ष इसी सम्मेलन में केशव जी बर्मा गए थे। यूरोप जाने के कारण मधु हमारे विवाह में शामिल नहीं हो सके। इसका उन्हें बड़ा दुख था। वह जानते थे कि मुझे चाय बहुत पसंद है, इस बात को ध्यान में रखकर उन्होंने यूरोप से हमारे लिए टी-सेट लाकर भेंट किया। उस समय हम जैसे साधारण कार्यकर्ता के लिए टी-सेट बहुत बड़ी बात हुआ करती थी। उसे मैंने आज तक बहुत सँभालकर रखा हुआ है।

मधु में वैचारिक लड़ाकू तेवर शुरू से ही थे। वे निडर थे। बहुत साफ बोलते थे। तीखी टिप्पणी करते थे, क्योंकि वे धरती से जुड़ी समस्याओं और आम आदमी की पीड़ा की कराह से इस हद तक परिचित थे कि कौन-कौन सी नीति बने या कौन से कदम उठाने से उसके परिणाम आज से पाँच-छह बरस के बाद क्या होंगे, उसे वे भाँप लिया करते थे। उनकी इस गहन दृष्टि को मैंने महसूस किया। साधारण से साधारण लोगों से मिलना, उनकी बात को बहुत ध्यान से सुनना, उसका विश्लेषण करना, और फिर हल खोजना उनकी कार्यशैली थी, जो दूरगामी तो थी ही, समस्या को मूल से काटनेवाली भी थी।

मुझे याद है, हमने गोवा सत्याग्रह में जाने का निर्णय लिया, तो मधु ने अपने गोवा के सामाजिक, आर्थिक और ऐतिहासिक बातें बताईं। वे मानते थे कि आइडियोलॉजी का स्थानांतरण आइडियोल़ॉजी से ही होना चाहिए। लिहाजा हर कार्यकर्ता को यह जानकारियाँ होना जरूरी है। यदि कोई आंदोलन कर रहा है या उसमें भाग ले रहा है, तो उसकी पृष्ठभूमि में कौन-कौन सी बातें हैं। यह एक ऐसी कार्यशैली है जिसमें कार्यकर्ता भटकता नहीं बल्कि अपने लक्ष्य को पाने के लिए समर्पित हो जाता है। इसलिए वह कार्यकर्ता को वैचारिक रूप से इस कदर पुख्ता कर दिया करते थे कि वह विचारों का प्रेमी बन जाया करता था। यह बात आज भी आपको उस पीढ़ी के समाजवादियों मे देखने को मिलेगी।

उस दौरान गोवा में जैसा हिंसक माहौल था, उसमें कोई भी आदमी सत्याग्रह या आंदोलन की बात करता, तो घबरा जाता क्योंकि जो दमनकारी नीति और हिंसक प्रवृत्ति वहाँ के तत्कालीन शासकों ने अपना रखी थी। उन सब बातों को दृष्टिगत रखते हुए हमने मधु जी से पूछा कि क्या ऐसी स्थितियों में वहाँ जाना उचित होगा। तब उन्होंने पूरे विश्वास से कहा, मैंने वहाँ जाने का फैसला कर लिया है।हममें से कुछ लोग चिंतित थे, तो उन्होंने कहा, भय दमन को बढ़ाता है। यह सत्याग्रह वहाँ के हुक्मरानों को न केवल खुला संदेश देगा बल्कि उनकी हर दमनकारी नीति का विरोध भी करेगा। मधु के ये वाक्य हमारा साहस और शक्ति बढ़ाने में काफी लाभदायी रहे।

मधु जी गोवा गए। वहाँ से खबर आयी कि उन्हें वहाँ बहुत मारा-पीटा गया। यहाँ तक कि एक दैनिक लोकमान्य  ने अपने प्रथम पृष्ठ पर यह खबर छाप दी कि मारपीट से मधु जी का देहावसान हो गया। हम लोग यह खबर पढ़कर काफी परेशान हो गए। मैं यहीं थी। उस समय मोरारजी देसाई महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे और किसी समारोह में भाग लेने फिल्मिस्तान स्टूडियो, गोरेगांव आए हुए थे। मैं दौड़ी-दौड़ी उनके पास गयी और बताया कि यह खबर आयी है, तो उन्होंने चुटकी ली,सत्याग्रह करने गए थे ना, फिर चिंता की क्या बात है। मैं और घबरायी तो उन्होंने कहा, खबर गलत है, मैंने सब मालूमात कर ली है। मारपीट से बहुत चोट लगी है और अस्पताल में भर्ती हैं। यह सुनकर मुझे कुछ राहत मिली।

जब सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई तब मधु गोवा आंदोलन में हीरो के रूप में लोकप्रिय हो चुके। वे वहीं जेल में थे। बंडू उन्हें नियमित रूप से पत्र लिखकर नए दल की रूपरेखा और कार्यक्रम से परिचित करवाते थे। चंपा भी उनसे मिलने गोवा आया-जाया करती थीं। मधु के इस साहसिक कार्य से हम कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊँचा हुआ। यह उनका ऐसा शानदार काम था जिसकी जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है।

इसके बाद बिहार में मुंगेर से चुनाव लड़ते समय मैंने उनके साहस का एक और रूप देखा। यह घटना 1964 की है, जब उन्होंने पहली बार मुंगेर से चुनाव लड़ा। हम लोग उनके चुनाव प्रचार के लिए बंबई से गए थे, तब चुनावों में न इतना खर्च होता था, न ही इतना दिखावा। हम लोग एक धर्मशाला में ठहरे थे और वहीं मारवाड़ी धर्मशाला में खाना खा लिया करते थे। बिहार के नेता कपिलदेव सिंह चुनाव प्रचार के लिए हम सभी का दिशा निर्देशन किया करते थे। मधु जी की बिहार में पहले से ही लोकप्रियता थी, लेकिन जब चुनाव में सप्ताह भर रह गए, तो कार्यकर्ताओं की कमी महसूस हुई। मैंने तभी हमारे गोरेगांव स्थित अपने कार्यकर्ताओं को तार भेजा। हमारे पास कार्यकर्ताओं की अच्छी टीम थी। वे लोग चंदा इकट्ठा करके जैसे-तैसे बिहार पहुँचे। उनके आने से हमारे प्रचार अभियान में और जान आ गयी। यह चुनाव मधु जी ने भारी मतों से जीता।

संसद में पहुँचने के बाद मधु जी ने बिहार और उसकी गरीबी से संबंधित प्रश्न लोकसभा में उठाये। वह सारे देश में चर्चा का विषय बन गए। उस समय टी.वी. तो नहीं था, लेकिन लोग रोज रेडियो पर सुनने के लिए उत्सुक रहते थे कि मधु ने लोकसभा में आज क्या कहा और कैसी चर्चा हुई। संसद में सवाल उठाने की और उस पर शासकों की बोलती बंद करने की मधु की तेजस्वी शैली ने जल्द ही पूरे राजनीतिक क्षेत्र में अपना दबदबा कायम कर लिया। बहुत जल्द ही उनकी छवि एक प्रखर पार्लियामेंटेरियन की बन गयी। देश में लोग उन्हें जानने-सुनने के लिए उत्सुक रहते थे।

हमारी शादी के तुरंत बाद केशव जी ने एक पुस्तक लिखी थी जिसका नाम अंतरराष्ट्रीय समाजवाद था। इस पुस्तक को पुरस्कार भी मिला था। महाराष्ट्र के चार-पाँच कार्यकर्ताओं ने लगातार लेखन और पठन का कार्य किया। वे लोग यह महसूस करते थे कि राजनीति में विचारों की निष्ठा नहीं रही, तो फिर कार्यकर्ता दिग्भ्रमित हो सकता था। आज की पतित राजनीति में मैं इस बात को शिद्दत से महसूस कर रही हूँ। नेता और कार्यकर्ता की विचारशून्यता ने राजनीति को पथभ्रष्ट कर दिया है।

केशव गोरे के आकस्मिक निधन के बाद मधु और उनके चार-पाँच विचारवंत लोगों की जो टीम थी, उसे काफी धक्का लगा। उस समय एक द्वैमासिक पत्रिका निकलती थी। उसका नाम था रचना, जो जागरूक विचारों से ओत-प्रोत लोकप्रिय पत्रिका थी। हम सभी साथी इस पत्रिका को बड़े चाव से पढ़ते थे। इस पत्रिका को महाराष्ट्र के बुद्धिजीवियों तक पहुँचाने का कार्य केशव गोरे, मधु लिमये, अण्णा साने, विनायक कुलकर्णी और सदानंद बागाइतकर जैसे लोगों ने किया। इस पत्रिका को पढ़ने के बाद महाराष्ट्र के कई लोग समाजवादी आंदोलन की ओर आकर्षित हुए। उन्हीं दिनों मधु जी यूरोप गए, तब वहाँ की सरकार द्वारा किए जा रहे अच्छे कार्यों की सूचियां लेकर आए, उसी के आधार पर कार्यकार्ताओं के लिए हैल्थकैंप शिविर आदि भारी संख्या में चलाये जाने लगे।

मधु जी ने विधायकों और सांसदों को यह सिखलाया था कि यदि वे संख्या में कम हों तो संसद के नियमों को जानते हुए किस तरह अधिक से अधिक सवाल लोकसभा या विधानसभा में पूछ सकते हैं। वे कहते थे कि हम लोग गरीब जनता के प्रतिनिधि हैं, तो हमारी जिम्मेदारी है कि उनके अधिक से अधिक प्रश्नों को उठाया जाए। उनकी आवाज को बुलंद किया जाए। उनके शोषण को खत्म किया जाए। मधु ने ही सांसदों को सभा में बोलने की पूरी तैयारी करवाई।

मधु जी जब संसद में बोलने के लिए खड़े होते, तो पूरी संसद में सुई गिरने तक की आवाज नहीं होती थी। वे तथ्यों-आँकड़ों से अपने विषय को इस तरह से पेश करते कि सरकार निरुत्तर हो जाती। संसदीय नियमों के वे अच्छे ज्ञाता थे। संसद में उन्होंने सदा ही काशंस कीपर की भूमिका निभायी।

आज मैं यह महसूस करती हूँ कि 1982 के बाद मधु जी का राजनीति में सक्रिय न रहना राजनीति के लिए नुकसानदेह रहा। क्योंकि मधु जी में संगठन और नेतृत्व के सारे गुण विद्यमान थे। ऐसा प्रतिभाशाली व्यक्तित्व विरले ही मिलता है। उनसे हमारा बिछुड़ना किसी अमूल्य निधि से बिछुड़ने से कम नहीं है।

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