ओवल आफिस के साम्राज्यवादी मंच पर गरमागरमी

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arun kumar tripathi

— अरुण कुमार त्रिपाठी —

साम्राज्यवाद का आने वाला स्वरूप कैसा होगा इसका एक छोटा सा ट्रेलर दुनिया ने शुक्रवार को उस समय देखा जब युक्रेन के राष्ट्रपति ब्लादिमीर जेलेंस्की अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से रूस से चल रहे युद्ध को समाप्त करने के लिए शांति वार्ता करने गए थे। उस वार्ता में अमेरिका के उप राष्ट्रपति जेडी वैन्स भी मौजूद थे। युद्ध समाप्त करने वाली शांतिवार्ता की वह पहल टूट गई जिसकी पहले बहुत अधिक उम्मीद थी। उम्मीद इतनी थी कि ओवल आफिस के कर्मचारियों ने वार्ता की सफलता का उत्सव मनाने के लिए भव्य लंच का इंतजाम भी कर रखा था। लेकिन वार्ता इतनी बुरी तरह से टूटी कि दोनों राष्ट्रपति और उनके साथ के अधिकारी मंडल लंच किए बिना ही बाहर चले गए। लंच समेट लिया गया और पूरी दुनिया ने लाइव टेलीविजन पर जो दृश्य देखा वह एक किस्म का भयोत्पादक था। इस पर टिप्पणी करते हुए रूस ने कहा कि ट्रंप मे जेलेंस्की को पीट क्यों नहीं दिया।

यह दृश्य सिर्फ इतना ही नहीं था कि युक्रेन को रूस की ओर से खड़े होकर अमेरिका धमका रहा था। बल्कि वह युरोप के साथ साथ पूरी दुनिया को धमका रहा था। ट्रंप और जेलेंस्की के बीच गरमागरमी के जो दृश्य पूरी दुनिया में प्रसारित हुए उसने यही संदेश दिया कि अमेरिका एक साम्राज्यवादी इरादे के साथ आगे बढ़ने वाला है और उसमें दूसरे देशों को युद्ध में झोंकने और फिर उनके संसाधनों पर कब्जा करने की रणनीति शामिल है। जब कोई देश युद्ध में उतरेगा और अमेरिका जैसा हथियार पैदा करने वाला संसाधन संपन्न देश उसकी मदद करेगा तो वह बाद में उसके देश के संसाधनों पर कब्जा कर लेगा। ध्यान रहे कि कब्जा करने की यह रणनीति कभी विकास के बहाने होती है तो कभी युध्द के बहाने होती है। यह व्यापार के बहाने भी हो सकती है। यह साम्राज्यवाद का नया अवतार है जिसकी राजधानी द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद युरोप से खिसककर अमेरिका जा चुकी है। ध्यान रहे साम्राज्यवाद का महज वैश्विक स्वरूप ही नहीं होता उसका आंतरिक स्वरूप भी होता है।

हर देश में किसी न किसी राजनेता के भीतर ट्रंप की आत्मा निवास करती है और वह चाहता है कि उससे असहमत होकर कोई दल या राजनेता देश के भीतर भी शासन न करे। अगर अंतरराष्ट्रीय साम्राज्यवाद का केंद्र किसी महाद्वीप और किसी दूर देश में होता है तो आंतरिक साम्राज्यवाद का केंद्र किसी देश की राजधानी उसके किसी राजनीतिक दल या पूंजीपतियों और राजनेताओं के किसी समूह में होता है। साम्राज्यवाद नस्ल, जाति और धर्म केंद्रित भी हो सकता है और किसी दूसरे धर्म, नस्ल या जाति को दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर रखता है।

लेकिन ट्रंप ने जेलेंस्की के बहाने युरोप की जो धमकी दी ही उसे युरोप की नियति के रूप में देखा जा रहा है। युरोप के नेताओं ने उसे समझते हुए तुरंत जेलेंस्की का समर्थन किया। प्रत्यक्ष समर्थन करने वाले देशों में फ्रांस, जर्मनी, पोलैंड, स्पेन, डेनमार्क, नीदरलैंड, पुर्तगाल, चेक रिपब्लिक, नार्वे, फिन लैंड, क्रोएशिया, इस्तोनिया, लातीविया, स्लोवेनिया, बेल्जियम, लिथुआनिया, लक्जमबर्ग, आय़रलैंड, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड वगैरह। जबकि ग्रेट ब्रिटेन ने अमेरिका से लौटे जेलेंस्की का स्वागत करके बता दिया कि वह चाहता है कि पहले युक्रेन की सुरक्षा की गारंटी दी जाए तब किसी प्रकार का शांति समझौता किया जाए। ब्रिटेन के लोग इतने नाराज हैं कि वे ट्रंप की उस आगामी यात्रा की विरोध कर रहे हैं जिसके लिए प्रधानमंत्री किएर स्टार्मर उन्हें निमंत्रण दे आए हैं। उनकी उसी यात्रा के दौरान जब ट्रंप ने स्टार्मर से कहा कि तुम्हारी पत्नी बहुत सुंदर हैं तो ब्रिटिश मीडिया ने प्रोटोकाल का हवाल देकर विरोध किया। इस पर ट्रंप ने उन्हें धमका दिया।

दरअसल अमेरिका के अधिकारियों की मानें तो ट्रंप और जेलेंस्की दोनों को उम्मीद थी की युद्ध समाप्ति का समझौता हो जाएगा। दोनों ओर से खूब तैयारी भी थी। बताते हैं कि बात इस शर्त पर अड़ी कि पहले जेलेंस्की अपने देश के खनिजों के दो तिहाई हिस्से के अमेरिकी दोहन का समझौता करें। जबकि जेलेंस्की का कहना था कि पहले हमारे देश की सुरक्षा की गारंटी दी जाए। वार्ता को बिगाड़ने में अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वैन्स की भी बड़ी भूमिका बताई जाती है। क्योंकि उन्होंने जेलेंस्की को डांटते हुए कहा कि आप के देश में अमेरिका के प्रति कृतज्ञता की भावना नहीं है। जबकि हमने इतनी मदद की है। वे दो हफ्ते पहले म्युनिख में जेलेंस्की के साथ हुई बैठक से चिढ़े थे। यह बातें आग में घी की तरह काम करने वाली थीं और इसे लेकर ट्रंप काफी भड़क गए और जेलेंस्की को डांटने लगे।

लेकिन देखना यह है कि उस घटना के विरुद्ध युरोप के नेताओं के बाद अखबारों ने प्रतिक्रिया कैसी दी। ज्यादातर अखबारों ने लिखा कि यह दुनिया को डराने वाला दृश्य था। कुछ अखबारों ने लिखा कि यह अमेरिका के राजनयिक इतिहास का सबसे खराब प्रदर्शन था। ट्रंप जेलेंस्की से कह रहे थे कि वे तीसरे विश्व युद्ध से जुआ खेल रहे हैं। इसके अलावा वैन्स ने उन पर तानाशाह होने का आरोप लगाया क्योंकि उन्होंने अपने देश में चुनाव नहीं करवाए।

इन सभी राजनयिक आतिशबाजी के बीच यह सवाल उठता है कि क्या ट्रंप या अमेरिका इसी तरह की धमकी रूस के राष्ट्रपति पुतिन को भी दे सकता है जो कि वास्तव में आक्रांता है। क्योंकि 2022 से युक्रेन पर युद्ध रूस ने थोपा है और युक्रेन की धरती पर कब्जा करने और उसके बेगुनाह नागरिकों की हत्या करने का अपराध उसने किया है। युक्रेन तो महज अपने देश की रक्षा करने की लड़ाई लड़ रहा है। इस लड़ाई में उसे युरोप के देशों ने जो मदद दी है उसे दान के रूप में दी है। ऐसा फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रां का दावा है। जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति का कहना है कि उनके देश ने कर्ज के रूप में ऐसा किया है। सवाल यह भी उठता है कि क्या अमेरिका इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतनयाहू को भी इसी तरह की धमकी देगा जो कि फिलस्तीन के बेगुनाहों को आतंकी बताकर मार रहा है? क्या अमेरिका चीन के राष्ट्रपति को भी ऐसी धमकी दे सकता है जो कि दुनिया में नए किस्म की विस्तारवादी नीति चला रहा है?

फिलहाल तो ऐसा नहीं लगता लेकिन भविष्य में क्या हो कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन एक बात जरूर है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद जिस तरह की दुनिया बननी शुरू हुई थी अब वह विचार और संरचना टूट रही है। स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व के विचार घायल हो रहे हैं। घायल हो रहे हैं स्वराज, संप्रभुता, आत्मनिर्णय, राष्ट्रों की बराबरी और समता और लोकतंत्र के विचार। मानवाधिकारों की धारणा हवा हवाई हो रही है। ऐसी शांतिप्रिय और आर्थिक स्थिरता वाली दुनिया नहीं बन पा रही है जिसमें सबकी जरूरत के लिए बहुत कुछ हो। वास्तव में दुनिया कुछ देशों और कुछ नस्लों की लालच के लिए बन रही है। एक ऐसी दुनिया बन रही है जहां एक ओर धार्मिक कट्टरता और सांप्रदायिकता नए रूप में सिर उठा रही है और दूसरी ओर एक ऐसी दुनिया बन रही है जहां पूंजीवादी लालच के साथ फासीवादियों के नवसाम्राज्यवादी इरादे अपनी मजबूत जमीन तैयार कर रहे हैं। महात्मा गांधी ने एक जगह कहा था कि उनके सामने असली समस्या मानव स्वभाव के बर्बरीकरण की है। यह बर्बरीकरण अमेरिका से लेकर अरब और भारत तक हर जगह दिख सकता है।

मानव समुदाय ने कभी धर्मों के माध्यम से तो कभी राजनीतिक विचारों और आंदोलनों के माध्यम से सत्य, अहिंसा और विश्व बंधुत्व का विचार व्यक्त किया तो कभी वैश्विक एकता और विश्व नागरिकता और विश्व सरकार का विचार प्रस्तुत किया। एक अमेरिकी विचारक लियोपोल्ड कोहर ने तो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूरी दुनिया में घूम घूम कर इस विचार का प्रचार किया कि बड़े देश नहीं होने चाहिए(ब्रेकिंग डाउन आफ नेशन्स) बल्कि उन्हें छोटे छोटे हिस्सों में बांट देना चाहिए। जबकि ग्लेन जी पेज ने ‘नानकिलिंग पॉलिटिकल साइंस’ जैसी पुस्तक लिखकर यह कहना चाहा कि राजनीति शास्त्र में हत्या और हिंसा से भिन्न अहिंसा के विचारों को प्रमुखता से पढ़ाया जाना चाहिए। हमारे समय के एक महत्त्वपूर्ण विचारक नंदकिशोर आचार्य ने ‘अहिंसक अर्थशास्त्र’ जैसी किताब लिखकर कहा है कि दुनिया में शांति स्थापना के लिए एक अहिंसक अर्थव्यवस्था भी बहुत जरूरी है। विनोबा भावे का जय जगत का विचार भी इसी दिशा में प्रस्तुत विचार है। पिछले साल गुजरने वाले नार्वे के शांति विचारक योहान गाल्तुंग ने आजीवन शांति के विचार पर ही काम किया और सौ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित कीं। आज जरूरत उन विचारों को राजनीति में उतारने की है।

निश्चित तौर पर आज युरोप के साथ जो कुछ हो रहा है वह उस चक्र का घूमना है जो कभी युरोप के ग्रेट ब्रिटेन, पुर्तगाल, स्पेन, फ्रांस, नीदरलैंड और अन्य ने बाकी दुनिया के साथ किया था। लेकिन अब उनके साथ वैसा न हो इसके लिए आवश्यक है कि वे एशिया और अफ्रीका से मिलकर एक ऐसी दुनिया का सृजन करें जो साम्राज्यवादी न हो और अहिंसक हो। जहां सबका सम्मान हो, सबकी सुरक्षा हो और न तो किसी का जीवन असुरक्षित रहे और न ही किसी का अपमान हो।

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