4 मई। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) ने अप्रैल के दूसरे सप्ताह में रोजगार से संबंधित एक रिपोर्ट जारी की है, जिसके मुताबिक देश की श्रम भागीदारी दर (एलपीआर) जो फरवरी 2022 में 39.9 फीसदी थी, वह मार्च 2022 में गिरकर 39.5 फीसदी पर आ गयी है।
यह दर कोरोना की दूसरी लहर यानी जून 2021 की दर से भी कम है, जो उस समय 39.6 फीसदी थी। सीएमआईई के मुताबिक, बीते मार्च में देश के श्रम-बल में 38 लाख लोगों की कमी हो गयी, जो जुलाई 2021 के बाद से इसका सबसे निचला स्तर है।
39.5 फीसदी एलपीआर का मतलब यह है, कि काम कर सकने वाले लोगों में से साठ फीसदी से ज्यादा लोग नौकरी की तलाश ही नहीं कर रहे हैं। किसी देश की श्रम भागीदारी दर, उस देश की काम कर सकने वाली ऐसी आबादी की गिनती होती है, जो या तो कहीं नौकरी कर रही होती है या फिर सक्रियता से नौकरी की तलाश कर रही होती है।
मार्च 2022 में एलपीआर के इतना नीचे जाने की क्या वजह है, क्योंकि इस महीने न तो कोविड-19 की लहर थी या फिर उसकी वजह से लोगों के आने-जाने पर लागू की गयी पाबंदियाँ।
अर्थशास्त्रियों के एक वर्ग का दावा है, कि लाखों की तादाद में, खासकर महिलाएँ नौकरी से बाहर हो रही हैं। वे निराश और परेशान हैं क्योंकि उन्हें नयी नौकरी नहीं मिल रही है।
स्वतंत्र आर्थिक डेटा एजेंसी सीएमआईई के विश्लेषण के मुताबिक, “इस बार जो बात सामने आयी वह यह है कि मार्च 2022 की तिमाही की एक बड़ी अवधि के दौरान श्रम-बल और उसके दोनों घटक सिकुड़ गए। यह तीन साल में यानी जून 2018 की तिमाही के बाद पहली बार है, जब हमने श्रम-बल में इतनी गिरावट देखी है।”
कम एलपीआर कुछ समय के लिए बेरोजगारी दर के कम होने का भ्रम भी पैदा कर सकती है, जैसा कि इसने मार्च 2022 में किया था। तब बेरोजगारी दर 7.6 फीसदी दर्ज की गयी थी जबकि फरवरी 2022 में यह 8.1 फीसदी थी।
एक ऐसे देश के लिए जो अपनी बड़ी आबादी का इस्तेमाल कर आगे बढ़ना चाहता हो, उसके लिए काम की तलाश न करनेवालों की संख्या का बढ़ना, सबसे बड़ा आर्थिक संकट हो सकता है। हालांकि इस ओर अभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा। 26 अप्रैल को श्रम और रोजगार मंत्रालय ने एक बयान जरूर दिया, जिसके मुताबिक, एलपीआर के घटने और काम कर सकने वाली आधी आबादी के नौकरी पाने की उम्मीद छोड़ देने वाली रिपोर्ट ‘ तथ्यात्मक रूप से सही नहीं’ है।
मंत्रालय ने बताया, देश में रोजगार और बेरोजगारी के प्रमाणिक आँकड़ों का स्रोत सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वायन मंत्रालय है, जो आवधिक श्रम-बल सर्वेक्षण यानी पीएलएफएस के जरिए आँकड़े जारी करता है, जिसके मुताबिक 2017-18 में देश की एलपीआर 49.8 फीसदी थी जो 2019-20 में बढ़कर 53.5 फीसदी हो गयी थी।
हालांकि ये आँकड़े जुलाई 2019 से जून 2020 के बीच हुए सर्वेक्षण के बाद जारी किए गए थे और इनमें महामारी के बाद बढ़ी बेरोजगारी दर को शामिल नहीं किया गया है। सीएमआईई के प्रबंध निदेशक महेश व्यास ने ‘डाउन टु अर्थ’ से कहा, “सरकार लंबे समय से इस बात को नकार रही है कि देश में रोजगार की समस्या बड़ी हो चुकी है। हमारे आँकड़ों के हिसाब से 2017 से 2022 के बीच कुल श्रम सहभागी दर यानी एलपीआर, 46 फीसदी से गिरकर 40 फीसदी पर पहुँच गयी है।”
इंस्टीटयूट ऑफ इकोनामिक ग्रोथ में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अरूप मित्रा का मानना है, कि एलपीआर का इस तरह घटना ऐसे लोगों की बढ़ी संख्या को दर्शाता है जो नौकरी तलाशने से निराश हो चुके हैं। वह बताते हैं, “जब लोगों को उनकी मर्जी के मुताबिक नौकरी नहीं मिलती या वे समझते हैं कि जॉब-मार्केट इतना खराब है कि इसमें नौकरी करने से बेहतर संघर्ष करना है तो वे नौकरी तलाशना बंद कर देते हैं। ऐसा वे इसलिए करते हैं क्योंकि लोग नौकरी ढूंढ़ते हुए थक जाते हैं। यह धीरे-धीरे उनके मनोविज्ञान पर भी असर डालता है।”
इनमें से कुछ लोग अपना जीवन चलाने के लिए आजीविका के दूसरे रास्ते तलाशते हैं, लेकिन इसमें समय लगता है। वह कहते हैं, “इसलिए ऐसे समय में जब आप अपने सर्वेक्षण में उनकी राय लेते हैं तो वे यही कहते हैं कि वे नौकरी इसलिए नहीं कर रहे क्योंकि बाजार में नौकरी है ही नहीं। भारत की बड़ी आबादी युवाओं की है, जिसके बारे में उम्मीद की जाती है कि अगर उन्हें नौकरी मिलेगी, तो इससे देश तरक्की करेगा।
व्यास कहते हैं, कि इस युवा श्रम-बल को अच्छी नौकरी मिलनी चाहिए थी। तब वे न केवल खुद के धन और देश की संपत्ति में वृद्धि करते, बल्कि वे बचत भी करते और उन बचतों से विकास को भी बढ़ावा मिलता। उनके मुताबिक, “हर दिन नए युवा श्रम-बल में शामिल हो रहे हैं लेकिन देश उन्हें रोजगार दे पाने में सक्षम नहीं हो पाया है।” व्यास कहते हैं, “आप एक सीमा तक नौकरी पाने की कोशिश करते हैं और उसके बाद उसे तलाशना छोड़ देते हैं। उदाहरण के लिए अगर मुंबई का एक ग्रेजुएट युवा एक नौकरी पाने की कोशिश करता है लेकिन काफी तलाश के बावजूद उसे नौकरी नहीं मिलती तो वह क्या करेगा। वह एक रियल एस्टेट दलाल बन जाएगा, जिसमें कुछ लगना नहीं है। उसके बाद वह प्रॉपर्टी के लेनदेन में अपने लिए कुछ हिस्सा पैदा करने में लग जाएगा।”
अर्थशास्त्रियों और श्रम विशेषज्ञों का मानना है, कि रोजगार की संभावना से निराश हो चुकी आबादी का बड़ा हिस्सा कुछ हद तक शिक्षित है। सीएमआईई के सर्वेक्षण में शामिल आबादी में 15 से 64 आयु-वर्ग की है। इसमें शिक्षा पूरी करने वालों की तादाद बढ़ रही है और ये 15 से 29 आयु वर्ग में जुड़ रहे हैं। इनमें ज्यादा संख्या उनकी है जिन्हें नौकरी नहीं मिल रही। हर साल लगभग पचास लाख नए युवा नौकरी की तलाश में जुटते हैं। जाने-माने अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा के मुताबिक, “ये वे युवा होते हैं, जो हर साल नौकरी तलाशते हैं और जब उन्हें काम नहीं मिलता है तो वे जॉब-मार्केट से बाहर हो जाते हैं। यह सामाजकि ताने-बाने पर भी असर डालता है।”
देश की महिला श्रम शक्ति में लगातार गिरावट आयी है, जो एलपीआर के कम होने के प्रमुख कारणों में से एक है। सीएमआईई के आँकड़ों के मुताबिक, 2016-17 में 15 फीसदी की तुलना में 2021-22 में महिला एलपीआर सिर्फ 9.2 फीसदी थी।
व्यास इसे देश के लिए काफी दुखद मानते हैं। उन्होंने कहा, “इसकी मुख्य वजह यह है, कि महिलाओं के लिए काम करने के मौके कम हैं और उस पर भी महिलाओं को काम करने की जगह पर पुरुषों की तुलना में भेदभाव का सामना करना पड़ता है।” महिलाओं के लिए सुरक्षा, काम की जगह का उनके रहने की जगह से बहुत दूर होना, आने-जाने के साधनों की दिक्कत, पुरुषों के मुकाबले ज्यादा भेदभाव आदि ऐसे कारण हैं, जो पहले से खराब जॉब-मार्केट में महिलाओं की जगह और कम कर रहे हैं।
व्यास कहते हैं, “फ्री में राशन देने जैसी सरकार की कल्याणकारी योजनाएँ केवल यह सुनिश्चित करती हैं, कि कहीं कोई विस्फोट न हो, कोई बड़ा शोर-शराबा न हो। लोगों को थोड़ा राशन देने से उनके गुस्से के ज्वालामुखी को फटने से रोका जा सकता है। वह कहते हैं, कि एलपीआर के कम होने की प्रवृत्ति महामारी से पहले भी थी, लेकिन महामारी के संकट ने तो हालात को बद से बदतर बना दिया है।
(Down to earth से साभार)