क्या धार्मिक शिक्षा हमारी शिक्षा-संस्थाओं द्वारा दी जानी चाहिए?

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आचार्य नरेंद्रदेव (31अक्टूबर 1889 – 19 फरवरी 1956)

— आचार्य नरेन्द्रदेव —

पुरानी दुनिया में धार्मिक शिक्षा बच्चों की शिक्षा का एक अविच्छिन्न अंग मानी जाती थी। देवमंदिर या गिरजाघर समाज के जीवन का केन्द्र हुआ करता था और जिस धर्म के माननेवाले जो लोग होते उसी धर्म के द्वारा उनके मन, बुद्धि और हृदयों का नियमन होता था। सत्तत्व का स्वरूप तथा पदार्थों के मूल्यों का मान इत्यादि सभी बातें धार्मिक विश्वास से ही निर्धारित होती थीं। पारलौकिक जीवन की आशा और मोक्ष पाने का आश्वासन होने से मनुष्य ऐहिक जीवन का भार प्रसन्न और धीर होकर वहन करते थे। पर धीरे-धीरे विज्ञान ने आकर यह सारा ढंग बदल डाला और धर्म के स्थान में बुद्धि का युग प्रवर्तित हुआ। विज्ञान और उसकी कार्यप्रणाली के प्रगमन के साथ मनुष्य का ऐहिक जीवन सुखी और समृद्ध बना सकने की एक विशेष आशा संचारित हुई। यही कारण है कि विज्ञान और प्रगति एक चीज समझे जाने लगे। विज्ञान के भरोसे स्वर्ग तक को दखल कर लेने की बात लोग सोचने लगे। इससे एक नया आश्वासन मिला, एक नया विश्वास जाग उठा। फलतः धीरे-धीरे धार्मिक विश्वास क्षीण होने लगे और मठ-मंदिरों या गिरजाघरों का पहले का सा प्रभाव मनुष्यों के हृदयों पर नहीं रह गया।

विज्ञान के प्रभाव के अतिरिक्त और भी कई महत्त्वपूर्ण बातें ऐसी जुट गयीं जिनसे ऐसी स्थिति बन गयी। नये सामाजिक-वाद निकल पड़े और नये आर्थिक और राजनीतिक सिद्धांतों ने मनुष्यों के मनों को अपने वश में कर लिया। साधारण मनुष्य ने अपनी दीर्घकालीन निद्रा और उदासीनता त्याग दी और नया जीवन पाकर वह सर्वत्र चलने-फिरने लगा। धीरे-धीरे कर्मक्षेत्र के केन्द्र पर उसने अपना प्रभाव डाला। इन सबसे एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गयी जिसमें उसकी कोई उपेक्षा नहीं कर सकता था। वह अब पारलौकिक जीवन की अपेक्षा इसी अपने ऐहिक जीवन की बात अधिक सोचने लगा। स्वाभिमान और मानव-गौरव की एक नवीन बुद्धि उसमें जागी और वह अपने अंदर एक ऐसी शक्ति अनुभव करने लगा जिससे इस दुनिया में वह अपना जीवन अधिक सुखी बना सकता है।

पर अनुभव से उसने यह सीखा कि धार्मिक संस्थाएँ शोषितों और दलितों का पक्ष करने के बजाय यथावत् स्थिति का ही समर्थन किया करती हैं और जनता की आर्थिक तथा सामाजिक दुःस्थिति के आमूल परिवर्तन का सदा विरोध ही करती हैं। उसने यह भी देखा है कि धर्माचार्यों के पीठ सरकार के महज पुछल्ले बन गये हैं और राष्ट्रों के पारस्परिक युद्धों में ये अपनी-अपनी सरकार का ही पक्ष लेकर अपने अनुयायियों को दूसरे राष्ट्रवालों की हत्या करने का उपदेश किया करते हैं। इसके अतिरिक्त, लिखे-पढ़े लोग भी धार्मिक अनुष्ठान और पूजा-पाठ आदि धर्म के बाह्य अंगों को अनावश्यक समझने लग गये। ये लोग अज्ञेयवादी बने और इलहाम अथवा ईसा की ऐतिहासिकता जैसे प्रश्नों की चर्चा भी श्रद्धा विरहित तर्क की कसौटी पर करने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता था। ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में धार्मिक विश्वासों का नष्ट होना ही अनिवार्य था। जिस किसी भी देश में पाश्चात्य संस्कृति और विचार पद्धति घुसी, वहाँ एक नया संशयवाद उठ खड़ा हुआ और पुराने विश्वास उखड़ने लगे।

हिन्दुस्तान में जब ब्रिटिशों का राज्य हुआ तब यहाँ सार्वजनिक शिक्षा की एक ऐसी पद्धति चलायी गयी जिससे धार्मिक शिक्षा पहले-पहल अलग कर दी गयी। शिक्षा अंग्रेजी की दी जाय या प्राचीन संस्कृति की, इसके वाद-विवाद में अंग्रेजों की जीत हुई और ईस्ट इण्डिया कंपनी ने अंग्रेजी शिक्षा और पाश्चात्य विज्ञान से हिन्दुस्तान के लोगों को लाभान्वित करने का संकल्प किया। सार्वजनिक शिक्षालयों में धार्मिक शिक्षा देने की कोई व्यवस्था नहीं की जा सकती थी, क्योंकि विभिन्न धर्मसंप्रदायों के लड़के इन विद्यालयों में पढ़ने आते थे। अतः इन दुस्तर कठिनाइयों के कारण विदेशी सरकार ने सार्वजनिक विद्यालयों में केवल धर्म-निरपेक्ष शिक्षा की ही व्यवस्था की।

इस नीति के कारण मुसलमान समाज बहुत काल तक इस नवीन शिक्षा-पद्धति से कोई लाभ नहीं उठा सका, कारण वह अपने धार्मिक विश्वासों और सिद्धांतों का विशेष कायल था और इस सिद्धांत को माननेवाला था कि धार्मिक शिक्षा, शिक्षा का अविच्छिन्न अंग है। नवीन शिक्षा ने पूर्वी और पश्चिमी संस्कृतियों के बीच संघर्ष उत्पन्न कर दिया और इसके फलस्वरूप नये सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक आंदोलन चल पड़े। हिन्दुस्तान की बुद्धि बहुत अस्थिर हो गयी और हमारे सामाजिक तथा धार्मिक विश्वासों का नया मूल्यांकन होने लगा। पुरातन धार्मिक पद्धतियों पर से शिक्षित लोगों का विश्वास उठ चला और पश्चिम के नये राजनीतिक और सामाजिक तत्त्वज्ञान हमारे आदर और मान के पात्र हुए।

मुसलिम समाज ने धीरे-धीरे अपने आपको इस नवीन शिक्षा-पद्धति के अनुकूल बहुत कुछ बना लिया, पर वह बार-बार सरकार से यह आग्रह करता रहा कि मुसलिम विद्यार्थियों के लिए धार्मिक शिक्षा का कुछ प्रबन्ध अवश्य होना चाहिए। सरकार ने इस हद तक यह बात मान ली कि उसने ऐसे सांप्रदायिक विद्यालय पृथक् रूप से स्थापित करने को प्रोत्साहन देना स्वीकार किया जहाँ धार्मिक शिक्षा दी जा सके। पर सार्वजनिक विद्यालयों का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप ज्यों का त्यों बना रहा। लोकमत के आदरार्थ थोड़ी रियायत अवश्य ही की गयी और अब जो नियम प्रचलित है वह यह है कि सरकारी स्कूलों और कालेजों में धर्मनिरपेक्ष शिक्षा के बँधे हुए समय को छोड़कर अन्य समय में निम्नलिखित शर्तों पर धार्मिक शिक्षा दी जा सकती है –

1– स्कूल या कालेज का कोई अध्यापक धार्मिक शिक्षा का काम नहीं कर सकता, पर धार्मिक शिक्षक जो कोई होगा, संस्था के मुख्य चालक के अधीन रहेगा।

2– जिस संप्रदाय की बात हो उसी संप्रदाय को इसकी समुचित व्यवस्था करनी होगी और इस शिक्षा के लिए होनेवाला खर्च चलाना होगा।

3– अपने बच्चों को धार्मिक शिक्षा दिलाना या न दिलाना बच्चों के माता-पिता की मर्जी पर होगा।

सहायता प्राप्त शिक्षा-संस्थाएँ चाहें तो अपने यहाँ इस शर्त पर धार्मिक शिक्षा दे सकती हैं कि विवेक-बुद्धि के सर्वमान्य अधिकारों का आदर बना रहे।

स्कूलों में धार्मिक शिक्षा के प्रश्न पर समय-समय पर सरकार द्वारा नियुक्त कमेटियों ने बार-बार विचार किया है, पर इस विषय में कोई साग्रह और सार्वधिक माँग नहीं दीख पड़ती।

1938 में युक्त प्रदेश की सरकार ने प्रारम्भिक और उच्च शिक्षा के पुनःसंघटन का विचार करने के लिए जो कमेटी नियुक्त की थी उसने इस प्रश्न का विचार किया था। उसकी मुख्यतः यही राय रही कि इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। पर मतैक्य के लिए उसने इसका निर्णय सरकार पर छोड़ दिया, क्योंकि राज्य की नीति के साथ यह प्रश्न संबद्ध है।

जब से राष्ट्रीय सरकार स्थापित हुई है तब से इस प्रश्न का फिर से विचार होने लगा है और मौलाना अब्दुल कलाम आजाद जैसे महान व्यक्ति जो न केवल हमारे शिक्षा-मंत्री हैं प्रत्युत उदार भाव और प्रगतिशील विचार के पूर्ण और गतिमान् विद्वान हैं उनका भी समर्थन हाल में ही इसे प्राप्त हुआ है।

नये जमाने की बुराइयों को दूर करने के लिए आमतौर पर धार्मिक शिक्षा का ही उपाय बतलाया जाता है। पाश्चात्य देशो में लोगों का विश्वास विज्ञान पर से और इसलिए इस उन्नति पर से भी उठ चला है, क्योंकि विज्ञान का दुरुपयोग हो रहा है और कुपथ में उसकी प्रवृत्ति है। उन देशों में आजकल धर्म और गुप्त विद्या की ओर लोगों की रुचि फिर से हो रही है। लोग कोई ऐसी चीज चाहते हैं जिसपर वे अपना विश्वास टिका सकें, पर पुराने धर्म-संप्रदायों से उन्हें संतोष नहीं होता। वे कोई नया धर्म, नया इलहाम ढूँढ़ रहे हैं, पर यह धर्म या इलहाम उन्हें मिले, इससे पहले वे निराशावादी तत्त्वज्ञानों से घिर रहे हैं। कुछ जीवन की कठिन वस्तुस्थितियों से भागकर गुप्त विद्या और पुराने धार्मिक विश्वासों का आश्रय ढूंढ़ते हैं, कुछ जीवन को दुःखमय देख निराश होकर बैठ जाते हैं। किसी में वह जीवन-विश्वास नहीं रह गया जिसकी जीवन के लिए सबसे अधिक आवश्यकता है। मनुष्य केवल तर्क से नहीं जी सकता; उसे धारण करने और प्रेरणा पाने के लिए विश्वास की आवश्यकता होती है। पर यह विश्वास धर्म-निरपेक्ष होना चाहिए और उससे भविष्य के लिए आध्यात्मिक आश्वासन मिलना चाहिए।

परन्तु हमारे देश की हालत अभी इस दर्जे तक नहीं पहुँची है। हम अभी-अभी स्वाधीन हुए हैं और अभी हमने अपनी यात्रा का आरंभ किया है। हमें कई नवीन प्रश्न हल करने हैं और निर्माण का काम हमारे सामने है। हमें स्वाधीनता और प्रगति पर विश्वास है। निराशा या संशय से हम ग्रस्त नहीं हैं। पर एक भिन्न प्रकार के सांस्कृतिक संकट ने हमें घेरा है। हमारी समाज-नीति के पुराने रोग पहले से बहुत ही अधिक उग्र रूप में उभड़ पड़े हैं और हमें नष्ट किया चाहते हैं। ये रोग हैं दलवाद, जातिवाद, संप्रदायवाद और प्रांतवाद। गैरसरकारी सेनाओं को गैरकानूनी करार देने और संप्रदाय मूलक राजनीतिक संघटनों पर रोक लगाने मात्र से यह बुराई समूल नष्ट होनेवाली नहीं है।

बीमारी अस्थि-मज्जा के अंदर घुसी बैठी है। हमें अपने बच्चों को नवीन शिक्षा देनी होगी और समस्त जनता का मन ही बदलना होगा। तभी कोई महान कार्य बन सकता है। अपने नवयुवकों को हमें ऐसा बनाना होगा कि धार्मिक द्वेष और शत्रुता का संप्रदाय उनपर अपना कोई असर न डाल सके। उन्हें लोकतंत्र और अखण्ड मानवता के आदर्शों की दीक्षा देनी होगी, तभी हम सांप्रदायिक सामंजस्य और सद्भाव चिरन्तन आधार पर स्थापित कर सकेंगे।

सांप्रदायिक मेल उत्पन्न करने की सदिच्छा से ही कदाचित् स्कूलों के पाठ्यक्रम में धार्मिक शिक्षा के समावेश की बात कही जाती है। पर लोग क्षमा करें, मुझे यह कहना ही पड़ता है कि यह दवा बीमारी से भी अधिक घातक साबित होगी।

धार्मिक शिक्षा के समर्थन में यह कहा जा सकता है कि सभी धर्म मूलतः एक हैं और सही दृष्टि से देखा जाय तो ऐसा धर्म एकत्व साधन की ही एक शक्ति है। मैं मानता हूँ कि कुछ सर्व व्यापक तत्त्व ऐसे हैं जो सब धर्मों में समान हैं। पर ऐसे भी कुछ तत्त्व हैं जो एक-एक संप्रदाय के अपने-अपने विशेष हैं। जनता जिस धर्म को समझती और पालन करती है वह तो विशिष्ट विधियुक्त कर्म और पूजा-पाठ ही है और ये सब संप्रदायों के अलग-अलग हैं। सीधी और सच्ची बात यही है कि धर्म समाज की एक घातक शक्ति है।

राष्ट्रीय सरकार का काम यह है कि वह इन विभिन्नताओं को पीछे कर दे और सबके लिए समान चीजों को आगे करे जो सबको मिलाती और विभिन्न प्रकार के लोगों को एकत्व में बाँधती हैं। स्कूलों के पाठ्यक्रम में धार्मिक शिक्षा का समावेश करने से ये सांप्रदायिक भेद विशेष रूप से उन बच्चों के सामने आएंगे जिन्हें इन भेदों का अभी कोई ज्ञान नहीं है।

यह कहा जा सकता है कि धार्मिक शिक्षा का एक स्वास्थ्यकर प्रभाव होता है और धर्माध्यापक यदि योग्य हुए तो धार्मिक शिक्षा का कोई वैसा अनर्थकारी परिणाम नहीं हो सकता। पर यह कहते हुए लोग इस बात को भूल जाते हैं कि ऐसे धर्माध्यापक जो धर्म के बाह्यांग की अपेक्षा मूल तत्त्व के अधिक विश्वासी हैं, बहुत ही कम हैं। कुछ लोगों का यह बौद्धिक विश्वास हो सकता है कि सब धर्म मूलतः एक हैं, पर इनके हृदयों में भी अपने ही वैयक्तिक धर्म की श्रेष्ठता का विश्वास जमा हुआ होता है।

आज के शिक्षित लोग तो, धर्म शब्द के वास्तविक अर्थ में, धार्मिक रह ही नहीं गये हैं, यद्यपि अपने राजनीतिक स्वार्थों के साधन में इन धार्मिक विश्वासों और भावों से काम लेते उन्हें कोई संकोच नहीं होता।

फिर यह बात भी हमें ध्यान में रखनी चाहिए कि कोई बच्चा धर्म और चरित्र की बातें मौखिक शिक्षा से नहीं सीखा करता। उसके चारों ओर जो परिस्थिति होती है उसी से उसको प्रेरणा मिलती है। दर्जे में बैठकर जो मौखिक शिक्षा वह कान से सुनता है उससे उसका चरित्र उतना प्रभावित नहीं होता, बल्कि उसके अध्यापकों, माता-पिता और पड़ोसियों के चरित्र उसपर अपना पूरा प्रभाव डालते हैं। अतः, उदाहरणार्थ, यदि हम अपने बच्चों को सेवा-भाव सिखाना चाहें तो सेवा-भाव के गुणों की प्रशंसा करने से बच्चों के वैसे भाव नहीं बनेंगे, बल्कि उन्हें सेवा करने के अवसर देने से दूसरों की सेवा करने में जो सुख और आनंद है वह उन्हें प्राप्त होगा।

सांप्रदायिकता को दूर करने का एकमात्र उपाय सबका जीवन ध्येय एक-सा बनाना और सबके लिए सहयोग युक्त प्रयास के अवसर निर्माण करना है। पथ-भ्रष्ट युवक को उसकी भूल दिखाने और रास्ते पर ले आने का तरीका यही है कि कर्ममय जीवन की उसकी सहज इच्छा को नष्ट न करें और राष्ट्र के हितार्थ और शिष्टता के साथ अपने जीवन-निर्वाहार्थ उसे कोई  उपयोगी कार्य सौंपे। हिन्दुस्तान का इतिहास एक नवीन कार्य को लेकर पुनः लिखना होगा और हमारी समान सांस्कृतिक परंपरा एक-एक बच्चे तक पहुँचानी होगी। सामाजिक लोकतंत्र हमें वह विश्वास प्रदान करता है जिससे हम जी सकते हैं और इस विश्वास के बल पर मानव अखण्डता साध सकते हैं और अंत में उन कृत्रिम दीवारों को ढाह सकते हैं जो हमलोगों को एक दूसरे से अलग करने के लिए धर्म और जात-पांत ने खड़ी की हैं। हमें अपनी समान राष्ट्रीयता को सिद्ध करने के लिए किसी इलहाम से कोई सांत्वना पाने की आवश्यकता नहीं है।

इलहामों के दिन लद गये। उनकी परख हो चुकी, वे खरे नहीं उतरे। हमारा यह नवीन युग हमसे वह नया कार्य कराना चाहता है जो वर्तमान धर्म-संप्रदायों के द्वारा पूरा नहीं हो सकता। किसी समन्वय युक्त धर्म से भी काम नहीं चलेगा चाहे वह कितना ही प्रबुद्ध और वैज्ञानिक क्यों न हो। धर्म और विज्ञान का कोई युक्तिसंगत मेल बैठाना भी संभव नहीं प्रतीत होता।

लोकतंत्र और मानव तथा सामाजिक मान से मूलांकन, इन दो बातों पर विश्वास ही हमारे लिए बस है। यदि यह विश्वास है तो विज्ञान के बल से हम मानव अस्तित्व के उद्देश्यों को सिद्ध कर सकते हैं।

शिक्षा देनेवाले का यह काम है कि शिक्षा पद्धति में नया सुधार करे और पाठ्यक्रम के अतिरिक्त ऐसे काम निकाले जिससे बच्चे को स्कूल के अंदर की परिस्थिति से ही उन सामाजिक आदर्शों और चारित्रिक दृष्टांतों की शिक्षा मिले जो राष्ट्र को उत्तम बनाने में साधक होते हैं। हमारी शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे विचारों और भावों की एकता परिपुष्ट हो ताकि मन बुद्धि और हृदय की एकता साधित हो सके।

धार्मिक शिक्षा से लोग और भी अधिक हठधर्मी और सांप्रदायिक बनेंगे, वह उदार और व्यापक दृष्टि उनकी न होगी जो राष्ट्रीय एकता के लिए इतनी आवश्यक है।

सांप्रदायिकता से हमारे राष्ट्र को जो खतरा है उसे जो लोग समझते और उसकी तीव्र वेदना अनुभव करते हैं उन्हें चाहिए कि वे एकत्र होकर इस दैत्य से जूझने के साधन और उपाय करें। दूरदर्शी और विश्वासी नेता ही इस सांस्कृतिक संकट से तारने में हमारी मदद कर सकेंगे।

(लखनऊ रेडियो से 1 मार्च 1948 को दिया हुआ भाषण)

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