1. कोरोना और दिहाड़ी मजदूर
यह उमड़ते हुए जनसैलाब जो आप देख रहे हैं
यह किसी मेले की तस्वीर नहीं है
या किसी नेता-अभिनेता का रैला भी नहीं है
यह तस्वीर है
साहित्य में वर्णित उन भारत भाग्यविधाताओं की
जो दिल्ली, मुम्बई, बेंगलुरु, चंडीगढ़
गुड़गांव, नोएडा, गाजियाबाद जैसे
स्मार्ट महानगरों के निर्माता हैं।
तस्वीर में छोटे-छोटे बच्चे जो दिख रहे हैं
और उनके माथों पर भारी-भारी मोटरियॉं
वे उनके दुखों और संतापों की मोटरियॉं हैं
वही मोटरियॉं लेकर वे
अपने तथाकथित वतन से परदेस को आए थे
और फिर वही लेकर
परदेस से अपने वतन को लौट रहे हैं।
हजारों किलोमीटर की वतन वापसी के लिए
उनके पास न कोई हाथी है, न कोई घोड़ा है
वहॉं पैदल ही जाना है।
रास्ते में उन्हें सॉंप डॅंसेगा या बिच्छू
घड़ियाल जकड़ेगा या मगरमच्छ
पैरों में छाले पड़ेंगे या फफोले
सूरज की आग जलाएगी या बारिश के ओले
इसकी चिंता करके भी वे क्या कर सकते हैं।
परदेस में उनके हाथों को जब कोई काम ही नहीं रहा
घरों से उनको बेघर ही कर दिया गया
राशन की दुकानें जब खाक ही हो गयीं
तब वे करें तो क्या करें
जाएं तो कहॉं जाएं।
वे उसी वतन को लौट रहे हैं
जिनको मुक्ति की अभिलाषा में छोड़ना
उन्हें कतई अनैतिक-अनुचित नहीं लगा था
यह जानते हुए भी
फिर वहीं लौट रहे हैं
कि वह उनके लिए किसी नरक के द्वार से कम नहीं है
उन्हें पता है कि
जिनसे मुक्ति के लिए उन्होंने गॉंवों को छोड़ा था
वे उनसे इस बार कहीं ज्यादा कीमत वसूलेंगे
उन्हें उनकी मजूरी के लिए
दो सेर नहीं एक सेर अनाज देंगे
उनके जिगर के टुकड़ों को
बाल और बॅंधुआ मजदूर बनाएंगे
उनकी बेटियों-पत्नियों को दिनदहाड़े नोचेंगे-खसोटेंगे
शिकायत करने पर
डांर में रस्सा लगाकर
ट्रकों में बॉंधकर गॉंवों में घसीटेंगे
सर उठाने पर सर कलम कर देंगे
ऑंखें दिखाने पर ऑंखें फोड़ देंगे
नलों से पानी पीने पर गोली मार देंगे
गले में घड़ा और कमर में झाडू फिर से बॅंधवाएंगे
जो कमोबेश अभी भी गॉंवों में लोगों को भुगतना पड़ता है।
भारतीय संविधान ने उनमें आजादी के जो पंख लगाए थे
वे फिर से कतरे जाएंगे
मनुष्य की गरिमा की अकड़ ढीली की जाएगी।
वे जाएं तो जाएं कहां
करें तो करें क्या।
अंधकार युग में उन्हें ही क्यों ढकेला जा रहा है?
और तो सवैतनिक अवकाश पर हैं
अपने-अपने घरों में सुरक्षित हैं
और वे सड़कों पर दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं!
पीछे कुऑं था तो आगे खाई है
उनके जीवन की यही कहानी है।
कोरोना महामारी होगी
लेकिन उनके लिए तो यह दोहरी-तिहरी महामारी है!
सारी सभ्यताएं नदियों और नगरों की सभ्यताएं हैं
पहली बार कोई नागर सभ्यता
उनके लिए अभिशाप बनायी गयी है।
वे जाएं तो जाएं कहॉं
वे करें तो करें क्या।
2. कबीर और कोरोना
यदि वह ईश्वर है
भगवान है
तब फिर किसी मंदिर की मूर्तियों में ही कैसे कैद है?
यदि वह अल्लाह है
खुदा है, रहमान है
तब फिर किसी मस्जिद में ही क्यों खुदाया है?
यदि वह गॉड है
तब फिर कोई गिरजाघर ही उसका क्यों घर है?
वह क्या है, नहीं है
इस आपद् घड़ी में हमें बता दिया है
कि जिसने इस पूरे ब्रह्मांड को रचा है
वह मूर्तियों में कैसे समा सकता है?
वह मस्जिद की दीवारों में क्योंकर खुदाएगा?
वह गिरजाघरों में क्यों दुबक जाएगा?
इस महामारी में
जब उसके अनुयायी भी
अपने-अपने घरों में नजरबंद हो चुके हैं
वह अपने निवासस्थानों को छोड़कर क्यों भाग जाएगा?
जिसकी खोज
हजारों-लाखों साल से जारी है
वह किसी मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर में
कैसे मिल जाएगा?
जिसका कोई रूप नहीं है
कोई आकार नहीं है
वह कैसे बार-बार
किसी रूप में अवतार लेगा?
जो दसों दिशाओं में है
आठों पहर में है
जो नृत्य करते पत्तों में है
पछाड़ खाती समुद्र की लहरों में है
जो संगीत में है
जो दीदारगंज की यक्षिणी में है
जो पहाड़ों पर है
मैदानों में है
जो झूमती हवाओं में है
सूरज की सुनहरी धूप में है
जो खिलते फूलों में है
पत्रहीन नग्न गाछों में है
जो बिरहमन में है
जो दलित में है
जो शेख में है
जो पसमांदा में है
जो पंजाब में है
जो ओड़िशा के कालाहांडी में है
जो काकेशियन में है
जो अफ्रीकन में है
जो साइबेरिया के बर्खोयानस्क में है
जो अमेरिका की डेथ वैली में है
जो बच्चों के ऑंसुओं में है
जो उनकी मुस्कानों में है
जो मुझमें है
जो तुझमें है
वह कहॉं नहीं है!
जो निर्गुण है
उसे किसी खास गुण में
किसी खास स्थान पर
कैसे बॉंध पाओगे?
यह बात
कबीर बाबा ने
कितना पहले समझा दी थी!
3. कोरोना काल में भी परचम बन रहीं जातियॉं
सन ऑफ चमार
सन ऑफ दुसाध
सन ऑफ खटिक
सन ऑफ भंगी
सन ऑफ डोम
सन ऑफ हलखोर
सन ऑफ रजक
सन ऑफ पासी
सन ऑफ मुसहर
……………….
सन ऑफ मल्लाह
सन ऑफ कुम्हार
सन ऑफ कहार
सन ऑफ हज्जाम
सन ऑफ धानुक
सन ऑफ लुहार
सन ऑफ बिंद
सन ऑफ नोनिया
सन ऑफ बढ़ई
सन ऑफ तांती
सन ऑफ रौनियार
सन ऑफ केवट
……………………..
सन ऑफ मुंडा
सन ऑफ किस्कू
सन ऑफ सोरेन
सन ऑफ भूरिया
सन ऑफ गोंड
सन ऑफ अलवा
सन ऑफ सोनवणे
सन ऑफ नेताम
सन ऑफ खाखा
………………………
इक्कीसवीं सदी की
शायद यही सबसे बड़ी गर्वोक्तियॉं हैं
सबसे बड़ी उदघोषणाएं
सबसे बड़ी हुंकार
सबसे बड़ी ललकार।
सबसे बड़ी जागरूकता।
जमाना कितना बदल रहा है
कल तक जो जातियॉं मुॅंह छिपाए फिरती थीं
आज वही परचम बन लहरा रही हैं।
4. प्रेम
पहला भाजपाई है
तो दूसरा कांग्रेसी
तीसरा समाजवादी है
तो चौथा मार्क्सवादी
पॉंचवॉं सपाई है
तो छठा लोजपाई
सातवॉं तेदेपाई है
तो आठवॉं शिवसेनाई
पहला प्रचारक है
तो दूसरा विचारक
तीसरा राजनेता है
तो चौथा अभिनेता
पॉंचवॉं समाजशास्त्री है
तो छठा अर्थशास्त्री
सातवॉं कविगुरु है
तो आठवॉं लवगुरु
एक राजस्थान का रहनेवाला है
तो दूसरा पंजाब का
तीसरा कर्नाटक का रहनेवाला है
तो चौथा बंगाल का
पॉंचवॉं यूपी का रहनेवाला है
तो छठा बिहार का
सातवॉं दक्षिण का रहनेवाला है
तो आठवॉं मध्य का
पहला सॉंवला है
तो दूसरा भूरा
तीसरा तांबई है
तो चौथा लाल
पॉंचवॉं कत्थई है
तो छठा गेहुंअन
सातवॉं नीला है
तो आठवॉं पीला
फिर भी इनमें कितना प्रेम है
इस प्रेम का कारण
कहीं इनकी जाति का मेल तो नहीं है?
भारत का कैसा यह खेल है!
5. लोकतंत्र
लंबी लाइन लगी हुई थी
और हमलोग उस लाइन में खड़े थे
अपनी-अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे
अपने-अपने अधिकारों को पाने के लिए।
पुलिस भी मुस्तैद थी
कि लाइन कोई तोड़ नहीं पाए
कि लाइन में कोई घुसपैठ नहीं कर पाए
कि लाइन के समानांतर कोई और लाइन लग नहीं पाए।
लेकिन जैसाकि अक्सर होता है
कि पुलिस की मुस्तैदी के बावजूद
कुछ मुस्टंडे लाइन को तोड़ देते हैं
लाइन में घुसपैठ कर जाते हैं
या लाइन में आगे खड़े हो जाते हैं
और अपनी बारी का अंतहीन इंतजार किए बगैर
लाइन में खड़े लोगों के
अधिकारों का अतिक्रमण करते हुए
अपने जायज-नाजायज अधिकारों को
सबसे पहले हड़प जाते हैं
और पुलिस झूठ-मूठ के एकाध डंडे बरसा देती है
और पुलिस की मुस्टंडों से मिलीभगत होती है
वैसा ही नजारा
उस दिन भी प्रकट हो गया।
मुस्टंडे आते
और लाइन में खड़े लोगों को धकियाते हुए
अपने अधिकारों को
गैर-कानूनी तरीके से सबसे पहले हड़प जाते
और लाइन में खड़े हमलोग बेवकूफ बने रह जाते।
यह सिलसिला तब तक चलता रहा
जब तक कि लाइन में खड़े हम असंख्य लोगों ने
उन कुछेक मुस्टंडों पर
हल्ला बोलना नहीं शुरू कर दिया
और लाइन से बाहर उनको नहीं खदेड़ दिया।
चुप्पी तोड़ने का नाम है लोकतंत्र
हल्ला बोलने का नाम है लोकतंत्र
और मन से भय को दूर करने का नाम है लोकतंत्र।