स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : 14वीं किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

भारतीय राष्ट्र, भारतीय राष्ट्रवाद

अंग्रेजों की यह धारणा बन गयी थी कि 1857 के विद्रोह के पीछे मुख्यतः मुसलमान थे, जबकि वस्तुतः ऐसी बात नहीं थी। इस विद्रोह में हिंदू और मुसलमान दोनों की बराबर और महत्त्वपूर्ण हिस्सेदारी थी। लेकिन क्योंकि दिल्ली में बहादुरशाह जफर को (उनकी इच्छा के विपरीत) विद्रोही सैनिकों ने जबरदस्ती बादशाह घोषित कर दिया था इसलिए अंग्रेजों ने मुसलमानों को ज्यादा दोषी ठहराया।

एक मायने में अवध का इलाका विद्रोह का केंद्र था। इस विद्रोह से कुछ वर्ष पहले अंग्रेजों ने अवध के नवाब को बर्खास्त कर अवध को अपने कब्जे में ले लिया था। इससे नवाब की फौज के सिपाही बेकार हो गए थे। अंग्रेजों की बंगाल सेना, जिसमें अवध और बिहार के सिपाही ज्यादा थे, में ही असंतोष जगने लगा था। अवध की बेगम साहिबा की इस विद्रोह में शिरकत थी। इसके अलावा कुछ धार्मिक कारण भी थे। सिपाही सोचने लगे थे कि अंग्रेज हिंदू और इस्लाम धर्म समाप्त कर उन्हें ईसाई बनाना चाहते हैं। लेकिन इसके बावजूद अंग्रेजों ने यह नतीजा निकाला कि अपनी खोयी हुई अधिसत्ता को दुबारा हासिल करने के लिए विद्रोह का नेतृत्व मुस्लिम लोग कर रहे हैं।

पाश्चात्य शिक्षा को बंगाल, बम्बई, मद्रास आदि प्रदेशों में सर्वप्रथम हिंदुओं ने ही तेजी से ग्रहण किया था। विद्रोह के कुछ साल बाद तक अंग्रेजी शासकों की यह नीति रही कि हिंदुओं को नजदीक लाया जाए, खास करके उन हिंदुओं को जो शिक्षित तथा मध्यम वर्गीय थे, और उनको निम्न श्रेणी की सरकारी नौकरियाँ देकर उन्हें अंग्रेजी प्रशासन के साथ जोड़ दिया जाए। बंगाल में जिन्हें भद्रलोग कहते हैं, या उत्तर भारत में जिनको वरिष्ठ जातियाँ कहा जाता है, उनको इन सेवाओं में उसके बाद निम्न पद मिलेंगे। भद्रलोगशब्द-प्रयोग से अन्य जातियों के बारे में तिरस्कार और हीनता की भावना अभिव्यक्त होती है। भद्रलोगों में बाह्मण, कायस्थ और वैश्यों का शुमार होता था। बंगाल में अंग्रेजों की यह नीति रही कि भद्रलोगों को अपनाओ और मुसलमानों को दबाओ। इसलिए विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने हर तरह से मुसलमानों को कुचल देने का प्रयास किया।

मुगल प्रशासन में और तत्पश्चात् भी वर्षों तक, जब तक कि कानून और विधि में अंग्रेजों ने बुनियादी परिवर्तन नहीं कर दिए थे, सरकारी ओहदों पर बड़ी संख्या में मुसलमान थे। राजभाषा के तौर पर फारसी का प्रयोग होता था। परंपरागत शिक्षा प्रणाली में अरबी, फारसी के अध्ययन को महत्त्व दिया जाता था। लेकिन अब सारी स्थिति पलट गयी। फारसी की जगह अंग्रेजी ने ले ली। परंपरागत भाषाओं और विद्याओं की जगह अंग्रेजी भाषा और पश्चिम की शिक्षा प्रणाली उन्होंने शुरू कर दी। अंग्रेजी प्रशासक बड़े ओहदे तो हिंदुस्तानियों को वैसे भी नहीं देना चाहते थे। इन पर तो अंग्रेजी अफसरों का ही एकाधिकार था। लेकिन प्रशासन चलाने के लिए उनको किरानी, कारकूनों की जरूरत थी, छोटे अफसरों की जरूरत थी। अतः ये सारे काम कराने के लिए भद्रलोगों को अंग्रेजी पढ़ाकर तोता बना दिया गया और इस प्रकार उनको प्रशासनिक तंत्र का एक हिस्सा, एक पुर्जा बना दिया गया।

अंग्रेजी शासन के प्रारंभिक काल में पुरानी शिक्षा प्रणाली समाप्त नहीं की गयी थी। मैकाले के बाद कानून और विधि प्रक्रिया के साथ-साथ शिक्षा प्रणाली में भी मौलिक परिवर्तन आया। मैकाले के मन में पौर्वात्य शिक्षा के प्रति बिलकुल भी आदर नहीं था। उसने तुच्छता से कहा था : एशिया का पूरा साहित्य एक तरफ और पश्चिमी साहित्य की अलमारी में खाने-भर किताबें दूसरी तरफ रखें तो पश्चिम के साहित्य की तुलना में एशिया का साहित्य मूल्यहीन प्रतीत होगा।

क्या मैकाले की इस उक्ति में सत्य का अंश था? इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि दर्शन, अध्यात्मशास्त्र, व्याकरण, अलंकारशास्त्र, भाषाशास्त्र या काव्य, नाटक, कविता जैसी सारी विधाओं में हमारा जो प्राचीन साहित्य था, वह किसी माने में पश्चिम के  अभिजात्य सहित्य के मुकाबले कम नहीं था। यहाँ तक कि एक अंग्रेज और जर्मन पंडित ने लिखा है कि व्याकरण के क्षेत्र में ईसा के पाँच-छह सौ साल पहले पाणिनी ने जो काम किया, उसका मुकाबला कोई भी पश्चिम का वैयाकरण 18वीं शताब्दी तक नहीं कर पाया था। दर्शन और मनोविज्ञान तथा अध्यात्म का जहाँ तक सवाल है हम लोग इसमें काफी आगे जा चुके थे।

लेकिन आधुनिक विज्ञान और गणित का जहाँ तक संबंध है इसमें पिछली कई सदियों से हम पिछड़ चुके थे। भास्कराचार्य के बाद कोई गणित का हमारे यहाँ ज्ञानी नहीं हुआ था। उसके पहले यह विद्या अरबों ने, और उनके मार्फत पश्चिम के लोगों ने हिंदुस्तानियों से ही प्राप्त की थी। इस प्रकार मैकाले की उक्ति गणित और विज्ञान संबंधी ज्ञान के बारे में तो सही थी परंतु दर्शन आदि के बारे में यह मात्र गर्वोक्ति थी। विज्ञान के मामले में भारत पूरी तरह पिछड़ गया था। एक दफा पश्चिम में नयी चेतना आने के बाद वहाँ कोई ऐसा साल नहीं गुजरता था कि कोई न कोई नयी खोज नहीं होती हो।

नौकानयन में तो उन्होंने इतनी अद्भुत प्रगति कर ली थी कि उनके बनाए जहाज महीनों बिना किसी बंदरगाह का आश्रय लिये महासागर में सफर करते रह सकते थे। उन्होंने नए-नए भूभागों की खोज की। जैसे अमरीका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड। अफ्रीका के अंदरूनी इलाकों में भी वे घुसने लगे थे। 16वीं शताब्दी के प्रारंभ में मैगेलन नाम के पश्चिम के एक नाविक ने पूरे विश्व का पर्यटन किया था। हालांकि वह स्वयं फिलीपिंस में मारा गया था। उसने जिस जहाज में यात्रा की थी वह अटलांटिक महासागर में पश्चिम की ओर बढ़ते-बढ़ते पेसिफिक महासागर होते हुए वापस पश्चिम में पहुँच गया था। इस तरह मैगेलन और उसके साथियों ने इसका प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत किया कि पृथ्वी गोलाकार है।

भद्रलोग अंग्रेजों की वैज्ञानिक प्रगति तथा उनके यहाँ जिन राजनीतिक संस्थाओं का विकास हुआ था, उससे अत्यधिक प्रभावित हुए थे। वे स्वयं कहने लगे थे कि हमें प्राचीन विद्या से कोई मतलब नहीं है, हमें पश्चिम की नयी विद्या चाहिए। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी आग्रह किया कि इसे हम संस्कृत या फारसी या अरबी या किसी प्रचलित देशी भाषा के माध्यम से नहीं पढ़ना चाहते। प्रारंभ में कुछ जगहों पर वैद्यकी, इंजीनियरी आदि की आधुनिक विद्या देसी भाषाओं के माध्यम से देने का प्रयास अंग्रेजी प्रशासन ने किया था। लेकिन उसका विरोध स्वयं भद्रलोगों ने किया यह कहकर कि हमें यह माध्यम नहीं, अंग्रेजी माध्यम चाहिए। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि जापान में भी पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान पढ़ाया गया। लेकिन जापान में इससे उलटी प्रक्रिया चली। उन्होंने इन विषयों के लिए माध्यम जापानी भाषा को ही बनाया, अंग्रेजी को नहीं। परंतु यहाँ ऐसा नहीं हुआ।

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