1. किसान गाथा : 2022
सब ओर से थक कर खाकर मार
हम आए हैं ग्राम देवता, पास तुम्हारे
सबने धोखा किया और बिछाए जाल
वे मिठबोले भी जो अपने बनकर आए थे
और बगल में बैठ किया करते थे बातें जमाने की
सब शामिल थे उस गुनाह में जो हुआ
जो लीलना चाहता है हमारे घर, खेत और जंगल
जमीन पुरखों की जो हजारों बरसों से थी मीठी गोदी
और क्रीड़ा-भूमि हमारी
जहाँ बहता था सोता तो झर-झर झरता था जीवन का संगीत
उसी से छल-छल था हमारा जीवन।
मगर तभी इतिहास को छलने आ गया न जाने कहाँ से
महा भूत कोई जबर
जिसे गलोबल-फलोबल या ऐसा ही कुछ बोलते हैं हमारे जमाने के
ज्यादा पढ़े लोग
जिसमें दुनिया एक मंडी है और लोग सिरफ गिनती
सिरफ संख्याएँ
इस बार और ज्यादा बली होकर आया था आततायी मेघनाद
टंकारता गरजता हुआ यहाँ से वहाँ तक
उसके पास और भी ज्यादा ताकतवर लोग थे,
पैसा और साधन
विशालकाय थीं उसकी बाँहें लालच और भी बड़े
जिनसे खरीदा जा सकता था बहुत कुछ
खरीदा जा सकता था बड़ी-छोटी कुर्सियों पर बैठे
लोगों का जमीर
और हमसे हमारी जमीन छीनने का किया गया
पुख्ता इंतजाम
उन्हें लोग नहीं दिखाई दिए न हमारे खेत न जंगल
पशु और चारागाह
उन्हें नहीं दिखाई दिया रोज-रोज का दिन और रात का
घूमता पहिया
जो जीवन है
जिसमें हँसती है बच्चों की किलकारी स्त्रियों के गीत
और काम से थककर लौटे पुरुषों के चेहरों की संतुष्ट मुसकान
बहती एक धारा किस्से-कहानियों, गीत और हँसी-ठिठोली की
चली आयी हजारों बरसों से हमारे पुरखों के पुरखों के काल से
उनके लिए तो यह बेकार थी बंजर भूमि जहाँ सिर्फ चूहे
घूमते थे और कुछ नहीं
उनके लिए बेकार थे हम लोग बेकार हमारा जीना
सो इसे हथिया लेने से पड़ने वाला था कुछ फर्क नहीं
कुछ फर्क नहीं गर उजड़ जाएँगे हरे-भरे बाग खेत घर
और गिरस्थियाँ
सिर्फ अपने पैन की स्याही से वे खींचेंगे एक लकीर
रजिस्टर पर
और हम सारे के सारे खत्म हो जाएँगे एक ही वार में
आदमी से महज संख्याएँ बनकर
जिन्हें इधर-उधर करके चलता है आज की दुनिया का कारोबार
और परजातंतर का तमाशा जिसे हम देखते आ रहे हैं
न जाने कब से
हम किससे कहें ग्राम देवता,
ओ पिता, कौन सुनेगा हमारी थकी-पिटी टूटती आवाज
इसलिए आए हैं थक-हारकर तुम्हारे पास कि तुम्हीं करो अब
अगर कुछ हो सकता है
अगर बचायी जा सकती है जिंदगी की लीक दरिंदों से
निबल द्रोपदी की लाज आज फिर
दुःशासन से
2.
हमारे सारे प्रयत्न तुम्हीं को समर्पित हैं ग्राम देवता
हमारी सारी कोशिशें पता नहीं कितनी सार्थक व कितनी निरर्थक हैं
हमारी भीगी आँखें और सूखे होंठों से निकले तप्त उच्छवास
साझी लड़ाइयाँ हमारी जिनमें शामिल बूढ़े जवान औरतें बच्चे
खेत फसलें घास पेड़ और पत्ता-पत्ता हमारा
सब तुम्हें समर्पित ग्राम देवता!
सब तुम्हें कि तुम्हीं हो इस गाँव और गाँववालों के रक्षक
प्रहरी सदियों से लाज रखना तुम्हीं
हम जीतें या हारें लड़ रहे हैं धारा के विरुद्ध
और वे सब बाबू लोग, अफसर, कारिंदे और पढ़ाकू जन
जो यहाँ जन-सुनवाई के बहाने इकट्ठे हुए हैं सुबह से ही
पिकनिक मनाने हमारे शोक और आँसुओं से गीली धरा पर
हमारे उष्ण निश्वासों पर हँसते हुए
वे जो हमारे न्याय-मित्र और प्रतिनिधि बनकर आए हैं छलिया
सब खोटे हैं कितने और किन-किन से मिला चुके हाथ
सौदे, गुप्त लेन-देन, हमारी जिंदगियों की बर्बादी की कीमत
कि हम खत्म हों, खत्म हो सारा खेल और बरसे सोना
उनके घरों में
खत्म हो जीवन का छल-छल सोता कि जो बहता आया
हजारों बरसों से बुझाता सबकी प्यास…
खत्म हो सोता जिंदगी का और बन जाए यहाँ उनकी
पैसे की खान
लालची आततायियों का खेल है खतरनाक
पर हे ग्राम देवता,
हमारे पिता रक्षक आराध्य, करें हम क्या
हम कैसे लड़ें आततायी से कि उसके हाथ बहुत बड़े हैं
और बहुत-से छोटे-बड़े महाजनों के हाथ उनमें शामिल…
वे भी जो कहलाते भद्र लोक मुसकराते मंद-मंद
किस पर यकीन करें किस पर नहीं
समझ में आता नहीं कुछ भी
फिर भी हम लड़ रहे हैं ग्राम देवता
लड़ते जाएँगे जब तक आखिरी बूँद लहू की आखिरी साँस…
धरती की इज्जत और आबरू बचाने की खातिर
यों जारी है लड़ाई यह जारी युद्ध आखिरी साँस तक
इसमें बस तुम्हारा रहे साथ और हम हारेंगे नहीं
झूठे मुआवजों के नाटक कानूनी हत्याएँ
जिंदा जी अमानुष होने की पीड़ा…
होगा बहुत कुछ होगा बहुत-बहुत बहानों से
पर परवाह क्या ग्राम देवता, तुम हो, तुम तो हो ही न साक्षी
रहना गवाह ओ ग्राम देवता, कि हम लड़े थे आखिरी बूँद तक
और हमने हार नहीं मानी
और अपने जीते जी अपनी धरती को गुलाम नहीं होने दिया
उनके हाथों जो थैले में सोने की अशर्फियाँ लिए आए
और सब कुछ को खरीदने का अरमान
तुम बताना ग्राम देवता,
जरूर बताना कि लोग यहाँ के थे कड़क
वे लड़ाके थे धरती माँ के बेटे
जो लड़े आखिरी साँस तक और जिन्होंने
हार नहीं मानी
लालची तानाशाहों के आगे
और हाँ, ग्राम देवता,
हमारे गुस्से और तप्त नारों का जो गरम लावा उट्ठा है जमीं से
और देखते-देखते घुल गया हवाओं में
छोड़कर अपनी लीक अपने निशान…
उसे तुम सँजो लेना छाती में।
क्या पता बरसों बाद वह लड़की यहाँ आए
जो गवाह थी हमारे दुख, तड़प, गुस्से और लड़ाइयों की
कि जिसने अपने कैमरे में कैद किया था सब कुछ…
यह पूरा का पूरा महाभारत कुरुक्षेत्र का
शायद सब कुछ छोड़छाड़ अपनी जिंदगी में कोई निर्णायक कदम उठा ले
और बनाए फिल्म हमारी जिद हमारे दुक्खों और आसमान कँपाते क्रोध पर
बनाए फिल्म और फिर यहाँ आए
इस जुझारू जमीन को उसे अर्पित करने
वह आए तो उसे बताना
कि हम कैसे लोग थे ग्राम देवता…
कितने लड़ाके और कड़क और भीतर से नरम और सुच्चे
कि जैसे हैं ये खेत और जैसी हमारी धरती है
और जब उसकी यह फिल्म जिसमें हमारे दुखों का
होगा पसारा
पहुँचे सारी दुनिया के आरपार
तो उसमें से बह उठे हमारे दुखों का सोता
बहे तो साथ ही बह जाएँ षड्यंत्रकारियों के मंसूबे सारे
बह जाए दुनिया लालच की जिसे वे विश्व बाजार कहते हैं
हो सके तो थोड़ी फुर्सत निकाल,
वह फिल्म तुम भी देखना ग्राम देवता,
और देखो तो थोड़ा आँख में आँसू भरकर
याद कर लेना ओ पिता,
कि तुम्हारे ही थे बेटे वे लड़े जो पूरी ताकत से
कुर्बान कीं जिंदगियाँ धरती माँ को बचाने
पर खत्म हुए अनाम संख्याएँ बनकर
और उनकी शहादत को भी वे भुनाएँगे
जो उन्हें खत्म करने के अपराधी थे।
तब ग्राम देवता, तुम्हारी गीली आँखें कहेंगी जो इतिहास
उससे नम होगी छाती आने वाले वक्तों की
उठेगा बवंडर आएगा भूडोल
और एक साथ बहुत कुछ दरकेगा
बहुत कुछ की होगी एक साथ शुरुआत
2. जेपी को याद करते हुए
कितना कुछ बदल गया है…
यों वही भुतहा जंगल है वही आदमखोर झाड़ियाँ
जिंदगी और मौत के बीच किसी सलीब
पर लटके ठंडे लोग
वही रात, वही तूफान, वही बेसब्री
लेकिन कायर चुप्पी के खिलाफ दहाड़ता
वह बूढ़ा शेर नहीं
रात में हर सिर पर लटके खंजर के बावजूद
भीतर का हरापन टटोलने वाली
दो आर्द्र आँखें नहीं हैं
इसके बजाय वक्त है—
जंगल में काली शिला की तरह उगी हुई
इस बेहद सख्त ऊब को वक्त अगर कहा जाए,
और कटा और छिला यह वक्त
लहू उगलता है मुँह से हर साँस के साथ
देखते ही देखते चीजें किसी गोल चक्करदार
घेरे में घूमने लगती हैं
लगातार चलते हुए भी शव की तरह
बेजान लगती है सड़क
गलियाँ चौरस्ते पस्त, हताश
पगडंडियाँ बलात्कृत लड़कियों सी
लाउडस्पीकरों पर प्रवचन करते
निजी सुख में औंघने लगती है आस्था
और कागज के रंगीन पुलिंदे फेंके जाते हैं
भूख पर—भूखे आदमी की बेबसी पर
ठठाकर हँसते हुए निश्चिन्त
कहाँ है उस बूढ़े शेर की
खतरों में सिर देकर जूझती जवान आस्था
दर्द को दर्द से राह देकर एक और सूरज उगाने
की चिंता—
नहीं, कहीं नहीं बची अब
नंगी छाती पर सबका सब झेलने और टूटने की ताकत
यहाँ तो हर तरफ चरित्र को कुरसी में
और आदमी को एक ढक्कनदार खोल में
बदलने की साजिश है
इस सबके बीच एक रसीला सुविधाजीवी नाटक है
प्रजातंत्रीय महाभोज का
लगातार चलता रहता है यह महानाटक
और इतनी चतुराई से परोसा जाता है भाषण
कि रोज किसी जिंदा आदमी की बलि पर
आदमी बजा देते हैं तालियाँ
नाटक का असली दृश्य वह है जहाँ पसीना गिराते
कंधे हैं झुके हुए
कंधों पर कुछ और कंधे हैं छिले हुए
कंधों पर कुर्सियाँ हैं
कुर्सियों पर सिंहासन
सिंहासन के आगे खीसें बाए सफेदपोश केंकड़े
खड़ताल बजाने की मुदा में हैं
किसी खास इशारे पर झूठे वक्तव्यों का फेन
उगलने लगती है राजनीति
हें-हे-हें से शुरू होकर खत्म होती है बहस
हाँ-हाँ-हाँ पर
कोई मदमस्त उल्लू कलामुंडियाँ खाता है अपने कोटर में
और हर दर्द मजाक बन जाता है…
कि जैसे एक घिसा हुआ चुटकुला बन गई है जनता
अपने देश में…!
उधर खेतों फसलों झोंपड़ियों और मवेशियों को चौपट करता
कमर तक आ गया है दर्द
साँप की तरह फन पटकते पानी में
सिरों पर बड़ी-बड़ी पोटलियाँ उठाए
किसी अज्ञात दिशा में भाग रहे हैं लोग
भागते-भागते लपलपाते वक्त की जीभ में घुलकर
जाने कब खत्म हो जाते हैं…
मगर लोगों का मरना
केवल कुछ संख्याओं का गुम हो जाना है मेरे देश में
कभी किसी चेहरे पर कोई दर्द कोई पछतावा नहीं
अपने ही भाइयों बेटों की मौत
बेटियों के इस कदर रौंदे जाने पर
कितना बदल गया है वक्त का चेहरा
कितनी काली पड़ गई हैं उसके माथे की लकीरें
यों वही झाड़ियाँ हैं वही जंगल वही लोग
उजड़े हुए किसानों का फटा दर्द
जली हुई झोंपड़ियों का हाहाकार
मगर नंगी तलवारों के खिलाफ यहाँ से वहाँ तक मोरचा सँभाले
दहाड़ता
बूढ़ा शेर नहीं है
क्रांति के नक्शे की ओर इशारा करती
बाघ की जलती हुई दो हरी आँखें नहीं हैं
और सचमुच कुछ नहीं है
कहीं कुछ नहीं है!
वाह! गजब की कविता है। तितली और मटर के दाने पर कविता लिखने वाला इतने तीव्र व्यंग्य की धारदार कविता भी लिख सकता है।
अग्नि की लपटों पर बैठे एक कवि वाणी है यह कविता, जो अपने चारों ओर घोर अराजकता, स्वार्थ, छल-कपट और भ्रष्ट राजनीति से घिरा बैठा है।
एक एक वाक्य आम आदमी की पीड़ा का महाकाव्य है। जिस भाषा और बिम्बो को लेकर, जिस शैली में बात कही है वह अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।
डॉ अशोक बैरागी
आदरणीय मनु जी की ये दोनों कविताएँ एक अलग तरह की अनुभूति कराती हैं। देश के वर्तमान हालात का ऐसा सच्चा और बेबाक चित्रण देखकर मन खुश तो बहुत हुआ पर पीड़ा भी हुई।
बालमन के चितेरे, तितली और मटर के दानों पर कविता लिखने वाले कवि का तीखा तेवर मैं पहली बार देख रहा हूँ। सच पूछिए तो बड़ा ही सुकून मिला।
यह कविता अग्नि की लपटों पर बैठे एक सजग कवि की वाणी है। जो अपने चारों को घोर अराजकता, स्वार्थ और छल कपट से भरी राजनीति से घिरा बैठा है। वैश्वीकरण और उदारवाद के नाम पर जल, जमीन, हवा और प्रकृति को चंद खनकते सिक्कों के बदले रोंदा जा रहा है। गाँव के आम आदमी, गरीब किसान- मजदूर की सुध बुध लेने वाला कोई नहीं है। इनके लिए हर तरफ बेबसी और लाचारी है।
कविता से स्पष्ट होता है कि इस बाजारवाद ने लोक जीवन, कला, संस्कृति, साहित्य, और परंपरागत काम धंधे चौपटकर दिए हैं। मानवता को लील दिया गया है। चारों तरफ लूट मची है, महंगाई गरीबों को खाए जा रही है। कविता का एक-एक वाक्य साधारण जन की पीड़ा का महाकाव्य है। कवि जी स्पष्ट लिखते हैं कि पूरा विश्व एक मंडी और रिश्ते बाजारू हो गए हैं, जहाँ बोली लगाकर कुछ भी खरीदा और बेचा जा सकता है। मनु जी लिखते हैं –
“कुछ फर्क नहीं गर उजड़ जाएँगे हरे-भरे बाग खेत घर और गिरस्थियाँ /
सिर्फ अपने पेन की स्याही से वे खीचेंगे एक लकीर रजिस्टर पर /
और हम सारे के सारे खत्म हो जाएँगे एक ही बार में। ”
ये मार्मिक पंक्तियां बहुत बड़े भावी संकट की ओर इशारा करती हैं। जैसे सब कुछ सिमटता जा रहा है। केवल चंद लोगों की जेबों में और हम बेबस लाचार जीने को मजबूर हैं, दूसरों के टुकड़ों पर।
इस वैश्विक छल से हर गरीब, भूखा, नंगा, पीड़ित मजदूर, किसान, बच्चा, औरत लड़ तो रहे हैं, पर इसका परिणाम शायद इन्हें ही खत्म कर दे। सभी के साझे प्राकृतिक संसाधनों पर कुछ पूंजीपतियों का कब्जा होता जा रहा है। अन्न, जल और दूसरे खाद्यान्न के दाम आसमान छू रहे हैं। अपनी धरती के लिए लड़ने वालों को मिल रही है – गली-सड़ी और प्रदूषित चीजें। दूषित हवा, सड़ा हुआ अन्न और जहरीला पानी। एक बड़ी व्यथा यह भी कि ऐसे लोगों की कहीं कोई सुनवाई भी नहीं। न अपील, न वकील और न ही दलील। कवि जी ने कितनी सुंदर बात कही है -“ खत्म होती जा रही… खतरनाक।”
साथ ही कवि को अंदेशा भी है कि यह सब लड़ने वाले गल- सड़ जाएंगे या इतिहास के पन्नों से हटा दिए जाएंगे। शायद ही कोई इन धरती पुत्रों की सुध ले और इतिहास की धूल झाड़ने का प्रयास करें। शायद बहुत ही कम, न के बराबर। पर इतना होने के बाद भी कवि को एक आशा और विश्वास है कि क्रांति होगी। लोगों में चेतना जागेगी, आज जो आतताई, मौत के सौदागर, तानाशाह और राजनीति के कुबेर बने बैठे हैं, वे खत्म होंगे। मनु जी ने कितनी बेबाकी से भृष्ट राजनीति की पोल खोली है। कविता की ताकत देखिये – “किसी खास इशारे पर झूठे वक्तव्यों का फेन/ उगलने लगती है राजनीति/ हें- हे- हें से शुरू होकर खत्म होती है बहस हाँ-हाँ-हाँ पर।”
‘जेपी को याद करते हुए’, आज के इस घोर अंधकार भरे युग में उस बूढ़े शेर जयप्रकाश नारायण की आवश्यकता महसूस कराती है। जो आम आदमी की मुखर आवाज था। जो किसान मजदूर के कंधे से कंधा मिलाकर चला करता था। जो गरीबों की भावनाओं और आवश्यकताओं को समझता था।
आज का विकास प्रगति केवल कागजी है, वास्तविकता से कोसों दूर। एकांगी विकास। केवल यांत्रिक प्रगति, जिसमें मानवता को, प्रकृति को और संबंधों को मिटाया जा रहा है। सबका साथ सबका विकास नहीं बल्कि सब लोगों के हाथ काटकर कुछ लोगों का विकास किया जा रहा है। आम जनता को भ्रमाकर रंगीन स्वप्न दिखाया जा रहा है। दूसरी तरफ सत्ता सुख भोगने के लिए सभी और लोकतंत्र का माया जाल फैलाया जा रहा है, जबकि कुछ भी लोकतांत्रिक नहीं है।
ऐसी सहज और व्यंग्यात्मक धारदार भाषा, लोक जीवन से जुड़े बिम्ब जनता के आह्वान गीत की तरह हैं।
पाठकों प्रेरित करने वाली ऐसी सहज कविताएँ बहुत कम पढ़ने को मिलती है। इस अनुपम उपलब्धि के लिए आदरणीय गुरु जी को शत शत प्रणाम। बधाई।
डॉ अशोक बैरागी
प्रकाश मनु शब्द नहीं देते, आग परोसते हैं कि ठंडी पड़ती साँसों में लौट आए गर्माहट और हो जाएँ जिंदा मुट्ठी भर लोग … ये मुट्ठी भर जिंदा लोग ही ईश्वर को शर्मसार होने से बचाए रखेंगे| सर की लेखनी का तेवर बना रहे| आमीन!