स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : 17वीं किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

भारतीय राष्ट्रवाद और जिन्ना

मोहम्मद अली जिन्ना निःसंदेह मुसलमानों के सबसे शक्तिशाली नेता थे। जिन्ना साहब और गांधीजी का अगर हम तुलनात्मक अध्ययन करें तो कई विचित्र समानताएं दोनों में पाएंगे। दोनों बड़े नेता थे। जिन्ना हालांकि कराची में जनमे थे, लेकिन गांधीजी के जन्म स्थान से उनके परिवार का पुश्तैनी संबंध था। दोनों की सामाजिक पृष्ठभूमि व्यापारिक थी। जिन्ना साहब का मजहब इस्लाम था, लेकिन वे जिस जाति में पैदा हुए थे उसको खोजा कहा जाता था। यह वणिक समुदाय था। गांधीजी मोढ़ बनिया जाति में पैदा हुए थे। दोनों नेता युवावस्था में इंग्लैण्ड चले गए थे। दोनों ने विश्वविद्यालयी शिक्षा प्राप्त किए बिना ही इंग्लैण्ड से बैरिस्टरी की परीक्षाएं पास की थीं और भारत वापस आकर दोनों ने वकालत शुरू की थी। यह कहने की जरूरत नहीं कि दोनों की मातृभाषा गुजराती थी।

आगे चलकर दोनों के रास्ते कुछ भिन्न हो गए थे लेकिन कुछ समय बाद थोड़े अंतराल के लिए वे फिर मिल गए थे। परंतु उसके बाद तो दोनों परस्पर विरोधी दिशाओं में बढ़ गए। गांधीजी दक्षिण अफ्रीका चले गए जहाँ उन्होंने गोरे प्रशासकों द्वारा वहाँ के भारतीयों के साथ किए जा रहे अमानवीय और विषम व्यवहार के खिलाफ आंदोलन किया। दक्षिण अफ्रीका में ही उनकी जीवन प्रणाली में बुनियादी परिवर्तन आया। उन्होंने अंग्रेजी वेशभूषा और आधुनिक सुविधाओं वाली जीवन शैली को त्याग दिया। उनमें पहले से ही धार्मिक प्रेरणा थी अतः उसी के आधार पर अपने जीवन को उन्होंने एक नए ढाँचे में ढाल लिया। इंग्लैण्ड का सोसाइटी आफ फ्रेंड्स तथा ईसा के सरमन आन द माउंट (पर्वतीय प्रवचन) का उनके मन पर बहुत गहरा असर हुआ था। महान रूसी साहित्यकार लियो तोल्सतोय के विचारों ने भी उनके ऊपर गहरी छाप छोड़ी थी।

सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि दक्षिण अफ्रीका निवास के वर्षों में उन्होंने सामुदायिक प्रतिकार का एक नया तरीका ढूंढ़ा। अब तक अन्याय के प्रतिकार के लिए अहिंसा का व्यक्तिगत प्रयोग तो होता रहा था, चाहे प्रह्लाद हो, सुकरात (यूनानी चिंतक) हो या थोरो हो। लेकिन गांधीजी का अहिंसात्मक प्रतिकार का तरीका सामुदायिक था। सार्वजनिक और राष्ट्रीय महत्त्व के प्रश्नों का हल निकालने के लिए उन्होंने इसका इतिहास में सर्वप्रथम सफल प्रयोग किया था। आगे चलकर सत्याग्रह की सार्वत्रिक उपयोगिता के बारे में उनका विश्वास बढ़ता ही चला गया।

जिन्ना साहब ने जिस उदार-मतवादी विचारधारा और जीवनशैली को अपनाया उसको उन्होंने अंत तक नहीं छोड़ा, सिवाय अंतिम वर्षों के, जब सभा-सम्मेलनों आदि में उन्होंने जिन्ना टोपी और अचकन पहननी आरंभ कर दी थी। द्विराष्ट्रवाद और पृथकतावाद के समर्थक बनने के बाद भी उनकी जीवन प्रणाली में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं आया। आखिरकार इन दोनों नेताओं में इतना भयंकर टकराव आगे चलकर क्यों पैदा हुआ? सेक्रेटरी आफ स्टेट फॉर इंडिया एडविन मांटेग्यू 1917-18 में हिंदुस्तान के दौरे पर आए थे। इस दौरे के संस्मरण उन्होंने अपनी डायरी में लिखे हैं जिसका नाम है : इंडियन डायरी। इस इंडियन डायरी से इस पर कुछ रोशनी पड़ती है।

गांधी नामक सितारा भारत के राष्ट्रीय गगन पर सही माने में 1919 में उदित हुआ। उसके पहले उनकी गणना राष्ट्रीय नेताओं में नहीं थी। हाँ दक्षिण अफ्रीका के उनके कार्यों के कारण भारत लौटने तक उनकी ख्याति अवश्य बढ़ गयी थी। लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध काल में उनका शुमार अव्वल कोटि के नेताओं में नहीं था। उस समय अत्यधिक लोकप्रिय नेता लोकमान्य तिलक तथा श्रीमती एनी बेसेण्ट थे। एडविन मांटेग्यू ने अपनी इस डायरी में तिलक को ही हिंदुस्तान का सबसे शक्तिशाली नेता माना है। एनी बेसेण्ट की भी उन्होंने इस सिलसिले में चर्चा की है।

गांधीजी उस समय तक ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति निष्ठा रखनेवाले नेताओं में गिने जाते थे। एक राष्ट्रीय नेता के रूप में उनकी चर्चा मांटेग्यू ने नहीं की है, बल्कि एक समाज-सुधारक और साधुवृत्ति के पुरुष के रूप में ही की है। जिन्ना की बुद्धिमानी, चरित्र तथा वाद-विवाद कौशल की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है : वे बहुत महत्त्वाकांक्षी हैं और ऐसा सोचते हैं कि तिलक और एनी बेसेण्ट के बाद राष्ट्रवादी आंदोलन के वे सर्वमान्य नेता बनेंगे। 

लेकिन गांधीजी का 1919 में भारतीय क्षितिज पर उदय होते ही पूरे मुल्क में एक आँधी सी बहने लगी। राष्ट्रीय स्वतंत्रता की प्यास, असहयोग और सत्याग्रह तथा खिलाफत आंदोलन (इस आंदोलन की विस्तृत चर्चा इसी अध्याय में हम आगे कर रहे हैं) ये उद्दीप्त मुसलमानों की साम्राज्य-विरोधी भावना के मिश्रण से इस आँधी को इतना शक्ति मिली कि पुराने नेतृत्व के साथ-साथ जिन्ना, तिलक और बेसेण्ट की उत्तराधिकार की महत्त्वाकांक्षाएं सूखे पत्ते की तरह उड़ गयीं। यही वजह है कि जिन्ना के मन में गांधीजी के प्रति हमेशा एक किस्म की मानसिक प्रतिरोधयुक्त गुत्थी यानी रिजर्वेशन रहा। वे इस बात को भूल नहीं सके कि गांधीजी ने ही उनको नेतृत्व के शिखर से च्युत किया था।

जिन्ना यह सोचते थे कि साधारण जनता की धार्मिक भावनाओं को भड़काकर, भावावेश से उन्हें उद्वेलित करके ही गांधीजी महान नेता बने थे और उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन पर अपना एकाधिकार स्थापित किया था। गांधीजी की धर्मपरायणता को वे हिंदूवाद समझते थे। गांधीजी की लोकप्रियता का आधार उनकी धार्मिकता और उससे जुड़ा हुआ साधुत्व है, यह वे कदापि नहीं समझ सके। इस तरह राजनीति में पिछड़ जाने के कारण कुंठा और हताशा के शिकार जिन्ना साहब शनैः शनैः राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा से अलग होते-होते मुस्लिम पृथकतावाद के वरिष्ठ एवं शक्तिशाली प्रवक्ता बन गए। इस प्रकार उन्होंने गांधीजी के समकक्ष नेता के रूप में दुनिया और अंग्रेजों से बलपूर्वक मान्यता प्राप्त की। इसलिए एक माने में यह कहना अनुचित नहीं होगा कि जिन्ना ने 1919-20 में स्वयं को नेतृत्व की चोटी हटाए जाने का बदला पच्चीस वर्ष बाद जाकर लिया।

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