उन दिनों जिन्ना साहब मुसलमानों से अपील करते थे कि उन्हें केवल अपने समुदाय के हितों और केवल अपने ही संकुचित फायदे-नुकसान का खयाल नहीं करना चाहिए। सात करोड़ मुसलमानों को भय त्याग कर काया-वाचा-मनसा यह सिद्ध करना चाहिए कि स्वस्थ राष्ट्रीय एकता के निर्माण की आकांक्षा में वे तहेदिल से साथ हैं, वे किसी के पीछे नहीं हैं। (उपरोक्त, पृ. 59-60)
कांग्रेस के 1917 के अधिवेशन में बोलते समय उन्होंने हिंदू वर्चस्व के डर का उल्लेख करते हुए कहा : “यह मत निरर्थक और निराधार है कि हिंदू समाज विधिमंडलों में बहुमत के बल पर कोई कानून हमारे ऊपर लादेगा, जबरदस्ती हिंदू सरकार की स्थापना करेगा। यह संभव नहीं है। सात करोड़ मुसलमानों की इच्छा का अवमान नहीं किया जा सकता है। हिंदू वर्चस्व का नारा एक हौवा मात्र है। आपके दुश्मनों द्वारा आपको विचलित करने के लिए कि आप स्वतंत्रता की लड़ाई में हिंदू भाइयों से सहयोग न करें (जो कि आपको करना चाहिए) आपको यह भय दिखाया जा रहा है। यदि इस मुल्क में हिंदुओं का राज नहीं होना है तो उसी भाव और स्वर में मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि इस देश पर मुसलमानों का भी राज नहीं होना है और अंग्रेजों का तो बिल्कुल ही नहीं। पूरे देश की यह भावना है कि वास्तविक सत्ता का तत्काल हस्तांतरण किया जाए।” जिन्ना साहब ने आगे कहा : “मुस्लिम लीग और कांग्रेस आपसी विचार-विमर्श कर विशेष बैठकों में आपस में समझौता करेंगे और फिर हिंदू तथा मुसलमान मिलकर एक राष्ट्र के नाते इस योजना को लागू करने की माँग करेंगे। उसके बाद इस माँग से विमुख होने का कोई प्रश्न नहीं खड़ा होगा।” (उपरोक्त, पृ. 160-65)
इस कालखंड में ही नहीं, आगे भी गोखले के बारे में उनकी राय अच्छी थी। गोखले की याद में दिए गए अपने भाषण में उन्होंने कहा था : “अपनी एकनिष्ठता, कर्मठता और निःस्वार्थ भावना के कारण सारे देश के वे प्रिय हो गए थे। यदि मैं कहूँ कि वे अखिल भारतीय महत्त्व के, राष्ट्रीय महत्त्व के व्यक्ति थे तो गलत नहीं होगा। क्या हिंदू, क्या मुसलमान दोनों के मन में उनके प्रति-सम्मान की भावना थी। इंपीरियल कौंसिल में कुछ साल मुझे उनके साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उनको सुनना और अक्सर उनका अनुसरण करना मेरे लिए खुशी और अभिमान की बात थी।” (उपरोक्त, पृ. 125-126)
जिन्ना साहब अत्यधिक अभिमानी थे, उनमें अहं की भावना बहुत ज्यादा थी। यह देखते हुए गोखले के बारे में व्यक्त उनके उपरोक्त विचार औपचारिकता मात्र नहीं मानने चाहिए। जिन्ना साहब की इसी भावना को दृष्टिगत रखकर श्रीमती सरोजिनी नायडू ने जिन्ना के इस ‘अर्थपूर्ण आत्मप्रकटीकरण’ का उल्लेख इस रूप में किया है कि वे ‘मुस्लिम गोखले’ बनना चाहते थे।
20वीं शताब्दी के पहले पाँच दशकों में राष्ट्रीय जागृति के साथ हिंदू-मुसलमान एकता का प्रश्न अत्यंत महत्त्वपूर्ण बन गया था। इनमें एकता स्थापित करने के तीन-चार अवसर आए। पहला अवसर 1915-16 में आया। मुस्लिम लीग के राजनीतिक उद्देश्यों में परिवर्तन आने के बाद कांग्रेस और मुस्लिम लीग एक-दूसरे के बहुत निकट आ गए और इन दोनों के बीच लखनऊ करार हुआ। इसमें जिन्ना साहब का बड़ा रोल था। लोकमान्य तिलक ने भी इस करार का समर्थन किया। स्वराज्य प्राप्ति एक बड़ा मकसद है और उसको हासिल करने के लिए कुछ त्याग करना पड़ेगा, ऐसी उनकी भावना थी। मगर इस करार से कोई व्यावहारिक नतीजे नहीं निकल सके। 1919-20 में राजनीतिक वातावरण एकदम बदल गया। जलियांवाला बाग कांड और खिलाफत के प्रश्नों ने उग्र रूप धारण कर लिया। दोनों प्रश्न राष्ट्रीय एकता और असहयोग आंदोलन के मुख्य आधार बन गए। विधा मंडलों में सहयोग और सत्ता में साझेदारी का अब प्रश्न ही नहीं रहा। जिन्ना साहब और उदारवादी नेता अब कांग्रेस से दूर हट चुके थे। जिन्ना साहब को न धार्मिकता को प्रधानता देनेवाली गांधीजी की विचार-प्रणाली पसंद थी, न ही उनका कौंसिल का बहिष्कार का कार्यक्रम उन्हें अपील करता था।
खिलाफत आंदोलन की चर्चा पीछे भी आयी है और यहाँ ऊपर भी। खिलाफत और असहयोग आंदोलन से महात्मा गांधी का राष्ट्रीय नेतृत्व प्रस्थापित हुआ था। चूंकि खिलाफत के बारे में साधारण पाठक को जानकारी नहीं रहती है, उसका संक्षेप में विवरण देना अवांछनीय नहीं होगा क्योंकि उन दिनों कुछ समय इस सवाल को लेकर आँधी-सी उठ खड़ी हुई थी और लगने लगा था कि हिंदू-मुसलमान एकता का सपना साकार हो जाएगा।
जब तक मोहम्मद साहब जीवित थे तब तक उन्होंने पैगंबर, विधि शास्त्री, धार्मिक नेता, प्रमुख न्यायाधीश, सेनापति तथा राज्य के प्रमुख आदि सभी भूमिकाओं को एकसाथ निभाया। उनकी मृत्यु के पश्चात उनकी ईश्वर-प्रेषित की भूमिका किसी अन्य द्वारा अदा करने का प्रश्न ही नहीं उठता था क्योंकि स्वयं उन्होंने कहा था कि वे अंतिम ईश्वर-प्रेषित थे। अरब कबाइली रस्मो-रिवाज के अनुसार उत्तराधिकार वंश परंपरागत नहीं था, हालांकि अली के अनुयायी इस उसूल को नहीं मानते थे। शियाओं का कहना था कि मोहम्मद साहब की इच्छा के अनुसार ही यह भार उनके भतीजे और दामाद (उनकी इकलौती पुत्री फातिमा के पति) को सौंप दिया गया था। दूसरे पक्ष का कथन था कि मोहम्मद साहब ने किसी को भी औपचारिक अथवा अनौपचारिक ढंग से अपना उत्तराधिकारी नामजद नहीं किया था। अतः साधारण सहमति या चयन के आधार पर अरबों के प्रमुख नेताओं ने अबू बकर को खलीफा अर्थात् धार्मिक नेता और राजप्रमुख घोषित कर दिया था। अबू बकर के बाद क्रमशः उमर तथा उस्मान खलीफा चुन लिये गए थे। इन दोनों खलीफाओं की मौत प्राकृतिक कारणों से नहीं हुई, बल्कि दोनों की हत्या की गयी। चौथे खलीफा अली थे। उनका भी यही हाल हुआ। उनकी हत्या के साथ-साथ नवोदित अरब इस्लामिक राज्य में गृहयुद्ध छिड़ गया। शिया-सुन्नी संघर्ष के रूप में यह दरार अभी तक बनी हुई है।
अली की हत्या के बाद मुवैया खलीफा बन गया और इनके परिवार ने खिलाफत को लगभग वंश-परंपरा पर आधारित कर दिया। इनके जमाने में सीरिया का प्रमुख शहर दमिश्क (दमास्कस) खिलाफत की राजधानी बन गया। इस दौरान इस्लाम का फैलाव पश्चिम में स्पेन से लेकर पूर्व में मध्य एशिया तक हो चुका था। कुछ समय बाद मुवैया वंश के हाथ से निकलकर खिलाफत (यानी मुस्लिम समाज का राजकीय और धार्मिक प्रमुखत्व) अब्बास के परिवार में चली गयी। इस वंश ने बगदाद से राज किया। इनके काल में अरब-इस्लाम सर्वोच्च बिंदु पर पहुंच गया।
13वीं शताब्दी में बगदाद की सत्ता मंगोल आक्रमण का शिकार बन गयी और बगदाद के पतन और ध्वंस के साथ खिलाफत का भी ह्रास शुरू हो गया। मिस्र में मोहम्मद साहब की पुत्री फातिमा के वंशजों ने खिलाफत के उत्तराधिकारी होने का दावा किया, मगर उनके राज्य और वैभव का दायरा सीमित था। कुछ समय तक स्पेन में मुवैया वंश के अमीर राज्य करते रहे। उस समय कार्डोवा की ख्याति सारे पश्चिम में फैल गयी।