यदि हमें सुदृढ़ राज की स्थापना करनी है तो हमें समाज को समता के आधार पर संघटित करना होगा। यदि प्रभुशक्ति सर्वसाधारण में निहित होती है तो हमें सर्वसाधारण को शक्ति-मान बनाना होगा, श्रृंखला की जो भी कड़ी निर्बल दिखाई दे उसमें शक्ति भरनी होगी। एक जबरदस्त सामाजिक उलट-फेर के द्वारा ही सामाजिक सौहार्द की स्थापना हो सकती है। बिना सामाजिक सौहार्द के सुदृढ़ राज्य का निर्माण नहीं हो सकता। दुर्भाग्यवश हमारे नेता धारा-सभाओं से बाहर लोकतंत्र के व्यवहार पर जोर देने की आवश्यकता अनुभव नहीं करते। जिनके हाथ में देश का संचालन सूत्र है वे पुलिस, फौज और नौकरशाही के सदस्यों पर ही भरोसा कर सकते हैं। यदि राष्ट्र-निर्माण के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए गैर-सरकारी संस्थाओं से काम लेने की बात उनके सामने रखी जाती है तो ऐसे सुझावों के प्रति वे कोई उत्साह नहीं दिखाते।
यह बात समझ लेने की है कि भारतीय संघ का मार्ग फूलों से भरा हुआ नहीं होगा। समय आ गया है कि हम इस उक्ति के सत्य को हृदयंगम कर लें कि सतत जागरूकता ही स्वतंत्रता का मूल्य होती है।
आनेवाले समय में बाह्य और आंतरिक समस्या, दोनों पर ही पूरा ध्यान देना होगा। संघ के भीतर विच्छिन्नकारी शक्तियों पर नियंत्रण हिंसा के प्रयोग द्वारा नहीं, बल्कि इन शक्तियों का प्रतिनिधित्व करनेवाली जनता की उचित माँगों और आकांक्षाओं की पूर्ति द्वारा करना होगा। जो विभाजक शक्तियाँ अब तक स्वाधीनता प्राप्त करने के समूचे ध्यान को एक ही ओर लगा देनेवाले कार्य की ओर लगी हुई थीं अब तक खुलकर खेलने के लिए अवसर पाएंगी। इस प्रकार की प्रवृत्तियां अभी ही उभरती हुई नजर आ रही हैं। उदाहरण के लिए बम्बई के भविष्य के संबंध में कांग्रेसजनों में अभी से मतभेद उत्पन्न हो गया है। एक दल उसे गुजरात का अंग बनाना चाहता है तो दूसरा महाराष्ट्र का। प्रांत के अन्तर्गत प्रादेशिक स्वायत्त शासन को स्वीकार करके आदिवासियों के पार्थक्यवादी आंदोलन की माँग का हमें सहानुभूतिपूर्ण हल ढूँढ़ना होगा। विभिन्न प्रांतों की ईर्ष्या के उभड़ने का खतरा भी है और उनसे उत्पन्न होनेवाले प्रान्तीय झगड़ों का निपटारा करने के लिए हमें अपनी पूरी बुद्धि और समझ का उपयोग करना पड़ेगा। सबके ऊपर भूख और गरीबी की समस्या को हल करना तो ही है।
वादा नहीं प्रत्यक्ष चाहिए
अब हमें यह देखना है कि एक सुदृढ़ राज्य की स्थापना किस प्रकार हो सकती है। आधुनिक उद्योग-धंधों के बिना ऐसे राज्य की कल्पना भी नहीं की जी सकती। ब्रिटिश शासन से विरासत में अशिक्षा, दरिद्रता, पिछड़े उद्योग-धंधे तथा अत्यंत पुराने ढंग की कृषि-व्यवस्था ही हमें प्राप्त हुई हैं। हमें सभी काम नये सिरे से आरंभ करना है, किंतु जनता के हार्दिक सहयोग के अभाव में हमारी प्रगति संभव नहीं। इस महान निर्माण-कार्य में हमें जनता की शक्ति का प्रयोग करना है और उसमें दिलचस्पी एवं उत्साह पैदा करना है। यह तब तक संभव नहीं जब तक राज्य जनता में नया विश्वास नहीं उत्पन्न कर देता। उसे न केवल आर्थिक प्रगति और सामाजिक कल्याण का वादा करना है, बल्कि सामाजिक उन्नति का प्रत्यक्ष प्रमाण भी देना है। ऐसी अवस्था में ही लोग सभी आपत्तियों का सामना करेंगे।
सोवियत रूस का उदाहरण हमारे सामने है। लेनिन की प्रेरणा से राज्य द्वारा जारी किये गये कानूनों ने देश में एक ऐसी मनोवैज्ञिक स्थिति पैदा कर दी थी जिससे श्रमिकों में नया जीवन आ गया और वे अनुभव करने लगे कि उन्हें अपने राज्य-निर्माण का कार्य पूरा करना है। सोवियत जनता ने उज्ज्वल भविष्य की आशा में हर तरह के कष्टों को प्रसन्नतापूर्वक सहन किया। अगर हम जनता को संगठित करना चाहते हैं और एक नये जीवन का आधार तैयार करने में उसका सहयोग प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें रूसी उदाहरण का अनुकरण करना होगा।
इस राष्ट्रीय कार्य में सामाजिक दृष्टि से दलित वर्गों का हार्दिक सहयोग प्राप्त होगा और उनकी सामूहिक शक्ति का तभी सदुपयोग हो सकता है जब कि हम उन्हें यह अनुभव करा देंगे कि आज का सामाजिक भेद-भाव शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा। हमारे देश में जनता की शक्ति का एक ऐसा विशाल स्रोत है जिसका अधिक उपयोग नहीं किया गया है और इसमें तभी सफलता मिल सकती है जबकि हम बुद्धिमत्तापूर्वक और सहानुभति के साथ इसका इस्तेमाल करेंगे।
हमें जनता में यह विश्वास उत्पन्न कर देता है कि राज्य उनकी मान्य महत्ता को स्वीकार करता है और शासन-व्यवस्था के वे स्वयं एक मुख्य अवयव हैं।
हमें यह भी स्मरण रखना है कि वर्तमान युग में व्यक्ति को आर्थिक उन्नति करने के लिए समान अवसर दिये जाने पर विशेष जोर दिया जाए।
जहाँ विभिन्न वर्गों में पायी जाने वाली विषमता, आर्थिक विषमता, बहुत अधिक है, सुखमय जीवन संभव नहीं।
इसलिए सामाजिक विषमता की समाप्ति लोकतांत्रिक व्यवस्था के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि यदि हिंदू-राज्य का नारा कार्यान्वित किया गया तो लोकतंत्र मुरझा जाएगा और हमारी सामाजिक व्यवस्था के वर्तमान दोष स्थायी बन जाएंगे।
अनुदार और प्रतिक्रियावादी शक्तियों का जोर पुनः बढ़ जाएगा और हिंदू-धर्म के नाम पर इस बात की पूरी कोशिश की जाएगी कि लोकतंत्रीय आदर्शों का आर्थिक क्षेत्र में विकास न हो सके। पुरानी पद्धतियों को पुनर्जीवित करने की चेष्टा घातक ही सिद्ध हो सकती है, पर नया सामाजिक दृष्टिकोण, जिसके विकास की हमलोग चेष्टा करते हैं और जिसके द्वारा ही जन-शक्ति की एक नयी दिशा प्रदान की जा सकती है, उस प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण द्वारा दबा दिया जाएगा जो भविष्य के विरुद्ध भूतकालीन व्यवस्था का पोषक है।
हमें उन नये सामाजिक और सांस्कृतिक आदर्शों की रक्षा करनी है जिनका निर्माण जनता के इतने कष्ट सहने के बाद हो सका। गत दो पीढ़ियों की शिक्षा को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए। इस बीच हिटलर के संकीर्ण राष्ट्रवाद के विरुद्ध हमें मेजिनी के व्यापक राष्ट्रवाद को अपनाने की शिक्षा मिली है। हमने बराबर यह ध्यान रखा है कि हमारी राष्ट्रीयता आक्रमणशील संकुचित राष्ट्रीयता की अधोगति को न प्राप्त होने पाये। आधुनिक युग में राष्ट्रीयता अधिक अनुदार होती जा रही है, इसलिए यह और भी आवश्यक हो गया है कि पूर्ण सतर्क रहें।
(‘समाज’ के 10 जुलाई 1947 के अंक में ‘लोकतंत्र की स्थापना का मार्ग’शीर्षक से प्रकाशित लंबे लेख का अंश)