— शशि शेखर प्रसाद सिंह —
आज स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की 59वीं पुण्यतिथि है। 27 मई को 1964 को स्वतंत्र भारत के लगभग 17 साल प्रधानमंत्री रहने के बाद उनकी मृत्यु हो गयी थी। इन 58 सालों में कई प्रधानमंत्री कांग्रेस तथा गैर-कांग्रेसी दलों के बन चुके हैं। लोकसभा के 17 चुनाव हो गए हैं। इतना ही नहीं, देश 1975 से 1977 के बीच 19 महीनों का आपातकाल का दुःस्वप्न झेल चुका है। अब देश आजादी का 75वॉं साल मना रहा है लेकिन आज भारत की धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था को अपूर्व खतरा पैदा हो गया है। द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के आधार पर देश का विभाजन, कश्मीर में बाह्य शक्तियों से प्रायोजित आतंकवाद, उत्तर-पूर्व सीमावर्ती क्षेत्रों तथा राज्यों में अलगाववाद और पंजाब में खालिस्तान की मांग वाले पृथकतावादी आंदोलनों के बाद आज भारत, धर्म की राजनीति तथा बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता के कारण, लोकतांत्रिक संविधान के लिए खतरा महसूस कर रहा है ।
आज जब संवैधानिक संस्थाएं और मीडिया की स्वतन्त्रता गहरे संकट में हैं, तब राष्ट्रीय आंदोलन के अग्रणी नायक तथा प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को स्मरण करना और भी जरूरी जान पड़ता है। नेहरू के प्रशंसकों की भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में कमी नहीं, लेकिन देश के अंदर और बाहर उनके आलोचक भी रहे हैं, खासकर बहुसंख्यक सांप्रदायिकता की राजनीति करनेवाली हिंदुत्ववादी शक्तियां। लेकिन भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर स्वतंत्र भारत के राष्ट्र- निर्माण में नेहरू के अमिट योगदान को कोई चाहकर भी झुठला नहीं सकता।
समाजवादी नेहरू की आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक भारतीय राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता का एक बड़ा कारण उनकी वैज्ञानिक सोच में निहित था जिसमें धर्म एवं ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं था। नास्तिक नेहरू आधुनिक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक जीवन के संचालन में धर्म व ईश्वर को कोई स्थान देने के पक्ष में नहीं थे। आधुनिक यूरोपीय लोकतांत्रिक देशों की तरह धर्म को व्यक्तिगत आस्था तक सीमित करने के पक्ष में थे।
सांप्रदायिक राजनीति को अभिशाप मानने वाले नेहरू की स्पष्ट मान्यता थी कि सांप्रदायिकता के साथ राष्ट्रवाद जीवित नहीं रह सकता। राष्ट्रवाद का मतलब हिंदू राष्ट्रवाद, मुस्लिम राष्ट्रवाद या सिख राष्ट्रवाद कभी नहीं होता। ज्यों ही आप हिंदू, सिख मुसलमान की बात करते हैं, त्यों ही आप हिंदुस्तान के बारे में बात नहीं कर सकते।
उन्होंने अपने इतिहास-बोध के आधार पर माना कि अलगाव हमेशा भारत की कमजोरी रही है। पृथकतावादी प्रवृत्तियाँ चाहे वह हिंदू की रही हों या मुसलमान की, सिखों की या और किसी की, हमेशा खतरनाक और गलत रही हैं। ये छोटे और तंग दिमागों की उपज होती हैं। राजनीति और मजहब का गठबंधन सबसे ज्यादा खतरनाक गठबंधन है और इसको खत्म कर देना चाहिए। इससे सांप्रदायिक राजनीति पनपती है।
लोकतंत्र, समाजवाद, एकता और धर्मनिरपेक्षता नेहरू की घरेलू नीति के चार ठोस स्तंभ थे। कांग्रेस के भीतर और कांग्रेस के बाहर नेहरू को दक्षिणपंथी रुझान में सिर्फ हिंदू मुसलमान एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों के मामले में ही नहीं जूझना था बल्कि कांग्रेस के भीतर दक्षिणपंथी वर्ण-जाति एवं पितृसत्ता में विश्वास रखता था जिसकी भारतीय समाज में गहरी जड़ें थीं, उनसे भी निपटना था। नेहरू जाति व्यवस्था से नफरत करते थे। भले ही उन्हें इसका अहसास ना रहा हो कि वर्ण, जाति व्यवस्था भारतीय समाज की नाभि है और उसकी भीतरी तहें कहाँ तक धॅंसी हुई हैं।
अपने एक अंतिम साक्षात्कार में नेहरू ने स्वीकार भी किया कि वह भारतीय समाज में जाति के कारक का ठीक से एहसास नहीं कर पाये। हॉं, आधुनिक और वैज्ञानिक सोच का व्यक्ति होने के चलते वह वर्ण-जाति व्यवस्था एवं पितृसत्ता में बिल्कुल विश्वास नहीं करते थे और आधुनिक लोकतांत्रिक भारत में उसे किसी रूप में स्वीकृति देने को तैयार नहीं थे जबकि कांग्रेस के भीतर ही मजबूत दक्षिणपंथी धडा़ वर्ण-जाति व्यवस्था को एवं पितृसत्ता और उसे स्वीकृति देनेवाले हिंदू धर्म एवं धर्मग्रंथों के प्रति समर्पित था। देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद तथा दूसरे राष्ट्रपति राधाकृष्णन भी उसमें शामिल थे। इस मामले में नेहरू आंबेडकर के साथ थे, भले उन्हें कांग्रेस के दक्षिणपंथी लोगों के दबाव में कई बार पीछे हटना पड़ा। हिंदू कोड बिल भी इसका एक उदाहरण है। भारत के राष्ट्रपिता भी वर्ण व्यवस्था को आदर्श व्यवस्था कहते रहे और रामराज्य के पैरोकार बने रहे।
नेहरू की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा में धर्म के साथ वर्ण- जाति एवं पितृसत्ता निरपेक्षता भी शामिल थी। इसका सबूत उनके नेतृत्व में बनी कमेटी द्वारा प्रस्तुत भारत के संविधान की प्रस्तावना है जो इस प्रकार है –
“हम भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर 1949 ईस्वी को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”
यह प्रस्तावना 13 दिसंबर 1946 को जवाहरलाल नेहरू द्वारा पेश किए गए उद्देश्य-प्रस्ताव (ऑब्जेक्टिव रेजोल्यूशन) पर आधारित है। भले समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता शब्द को 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़ा गया हो, लेकिन इसका भाव प्रस्तावना में पहले से मौजूद था।
जवाहरलाल नेहरू के सामने चुनौती कांग्रेस के भीतर और बाहर के विकट हालात एवं विपरीत परिस्थितियों के बीच एक आधुनिक लोकतांत्रिक भारत की नींव रखने की थी और वह इसमें काफी हद तक कामयाब भी हुए। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती एक ऐसा संविधान तैयार करवाने की थी, जो हर तरह आस्थाओं और पूर्वाग्रहों से मुक्त हो, जो किसी भी व्यक्ति की मानवीय गरिमा को चोट न पहुंचाता हो। वे विचार एवं आस्थाएं चाहे किसी धर्म, समुदाय एवं जाति विशेष को कितना ही प्रिय क्यों ना हों। नेहरू द्वारा प्रस्तुत संविधान की प्रस्तावना को देखें तो उसमें मानवीय गरिमा पर बहुत अधिक जोर है।
नेहरू मानते थे कि मानवीय गरिमा की स्थापना की अनिवार्य शर्त न्याय और समता आधारित समाज का निर्माण है, जिसमें धर्म, लिंग, भाषा एवं क्षेत्र आदि के आधार पर कोई भेदभाव न हो। बाबा साहेब आंबेडकर की तरह नेहरू राजनीतिक और सामाजिक समता के साथ आर्थिक समता चाहते थे। मिश्रित विकास मॉडल अपनाने के पीछे यह एक बहुत बड़ा कारण था।
नेहरू आंबेडकर के साथ निरंतर संवाद एवं तालमेल करते हुए भारत को एक ऐसा आधुनिक संविधान देने में सफल रहे, जिसमें मध्यकालीन आस्थाओं के लिए कोई जगह न हो। संविधान बन जाने के बाद उनके सामने सबसे बड़ा कार्यभार था उसे जमीन पर उतारने के लिए प्रयास करना। नेहरू प्रधानमंत्री रहते हुए आजीवन एक आधुनिक भारत के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध बने रहे। उन्होंने अनेक आधुनिक एवं वैज्ञानिक संस्थाओं की नींव डाली और भारत के आधुनिकीकरण के लिए आवश्यक औद्योगीकरण की शुरुआत की।
जिस कश्मीर के लिए संघ-भाजपा नेहरू को कोसते रहे हैं, भारत के साथ उस कश्मीर को बनाए रखने का सर्वाधिक योगदान भी नेहरू को ही जाता है। नेहरू की धर्मनिरपेक्षता और उनके लोकतांत्रिक समाजवाद की ओर उन्मुख व्यक्तित्व ने ही शेख अब्दुल्ला को नेहरू की ओर खींचा और उन्होंने उनके साथ रहने का निर्णय लिया और धर्म आधारित पाकिस्तान की तुलना में नेहरू के धर्मनिरपेक्ष भारत में रहना पसंद किया। शेख अब्दुल्ला सोशलिस्ट भी थे, और इस बात ने भी उन्हें नेहरू के समाजवादी भारत के स्वप्न के करीब लाकर खड़ा कर दिया।
देश की स्वतंत्रता एवं संप्रभुता को बनाए रखने की चुनौती को नेहरू ने स्वीकार किया। हम सभी जानते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत को भले ही राजनीतिक सत्ता का हस्तांतरण 1947 में कर दिया था लेकिन नेहरू को यह अच्छी तरह अहसास था कि भारत को राजनीतिक-आर्थिक और उपनिवेशवाद की विरासत से पूरी तरह से मुक्त करने का ठोस कार्यभार अभी बाकी है।
उनके सामने विश्व समुदाय के ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद थे जिसमें तुरंत आजादी पानेवाले देशों ने आंतरिक एवं बाह्य कारणों से अपनी आजादी खोकर किसी न किसी साम्राज्यवादी देश का नव-उपनिवेश बनना स्वीकार कर लिया था और वहाँ लोकतांत्रिक व्यवस्था की जगह अधिनायकवादी या सैनिक तानाशाही की स्थापना हो गयी।
नेहरू के सामने एक तात्कालिक कार्यभार था भारत को एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में कायम रखना और उसे सशक्त बनाते जाना। इसके लिए उन्होंने न केवल गुटनिरपेक्षता का रास्ता चुना बल्कि वैश्विक स्तर पर गुटनिरपेक्ष देशों का एक ऐसा समूह बनाने के प्रयासों की अगुवाई भी की, जिसमें उनको पूरी तरह सफलता मिली और भारत इस या उस देश की कठपुतली बनने की जगह संप्रभु देश के रूप में अपने अस्तित्व को बनाए रख सका। आज भी भारत की संप्रभुता दुनिया में कायम है तो इसका सर्वाधिक श्रेय नेहरू को जाता है। आज भले ही यह संप्रभुता खतरे में दिखाई दे रही है और हमारी राष्ट्रवादी सरकार चीन को चुनौती देने की आड़ में देश को अमेरिका का पिछलग्गू बनाने की ओर बढ़ रही है।
नेहरू ने विकट एवं विपरीत परिस्थितियों में आधुनिक भारत की आधारशिला रखी। उन्हें प्रारम्भ में अंग्रेजों की तुलना में अपनों यानी कांग्रेस के भीतर की दक्षिणपंथी ताकतों से सबसे अधिक जूझना पड़ा। नेहरू ने आधुनिक भारत के निर्माण के तीन तत्त्वों को अपनी पूरी ताकत के साथ स्थापित करने की कोशिश की। पहला, आधुनिक भारत में धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा और ना ही धर्म के आधार पर किसी को वरीयता यानी विशेषाधिकार दिया जाएगा। दूसरा, आधुनिक भारत में वर्ण-जाति एवं लिंग के आधार पर भेदभाव करने के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। तीसरा, भारत दुनिया के किसी भी देश की कठपुतली या पिछलग्गू नहीं बनेगा यानी अपनी स्वतंत्रता एवं संप्रभुता को गिरवी नहीं रखेगा। पहले दो तत्त्व संघ-भाजपा की विचारधारा के पूरी तरह खिलाफ जाते हैं और तीसरे तत्त्व पर भाजपा ने समझौता करना शुरू कर दिया है।
अकारण ही नेहरू संघ-भाजपा के निशाने पर सदा नहीं बने रहे हैं। नेहरू ने जिन विचारों एवं मूल्यों के आधार पर आधुनिक भारत की नींव रखी, भाजपा-संघ उन विचारों एवं मूल्यों से बिल्कुल उलट भारत का निर्माण करना चाह रहे हैं, एक बहुमतवादी अधिनायकवाद की स्थापना के लिए कोशिश कर रहे हैं जिसमें नेहरू की विरासत उन्हें सबसे बड़ी बाधा की तरह लगती है। नेहरू के आधुनिक मूल्यों पर आधुनिक भारत की जगह संघ-भाजपा मध्यकालीन मूल्यों पर आधारित भारत बनाना चाहते हैं, और नेहरू की विरासत को दरकिनार करना उनके लिए सबसे मुश्किल चुनौती है।
सबसे बड़ी बात है कि आधुनिक लोकतांत्रिक भारत की स्थापना में नेहरू की अहम भूमिका को कतई झुठलाया नहीं जा सकता और न ही कोई इस बात से इनकार कर सकता है कि आधुनिक लोकतांत्रिक विचारों-मूल्यों के बिना दुनिया का कोई देश स्वतंत्र और समृद्ध हो सकता है।