— संजय गौतम —
वरिष्ठ कथाकार रामदेव सिंह के संस्मरणों का संग्रह है वे जब याद आये…… । रामदेव सिंह ने रेलवे की नौकरी में रहते हुए साहित्य लिखा भले ही कम हो, लेकिन जीया बहुत ज्यादा। साहित्य और समाज को तबीयत से जीने का सिलसिला उनके छात्र जीवन से ही दिखाई पड़ता है। वह साहित्य, समाज और राजनीति के सभी आंदोलनों से सजग रूप से जुड़े रहे। साहित्यिक संगठनों के भी बहुत नजदीक रहे और अपने तरीके से मानवीयता के परिप्रेक्ष्य में सभी का परीक्षण करते रहे। वह रहे, जीये सभी के साथ, लेकिन मानवीयता की कसौटी के अपने मूल स्वभाव से कभी डिगे नहीं। उन्हें साहित्य लेखन से ज्यादा लोगों की मदद करने में आनंद आता है। इसीलिए उनका लेखन भी कम हुआ, लेकिन जो कहानियां उन्होंने लिखी हैं, उनमें जीवन के दैनिक अनुभव मानवीय ऊष्मा के साथ इस तरह बुने गए हैं कि जब भी पढ़िए मन को छूती हैं। कहानियों का उनका संग्रह ‘काले कोट का सफेद दिन’ है तो उपन्यास है ‘टिकट प्लीज’। दोनों में ही रेल की उनकी नौकरी का अनुभव प्रमुख रूप से हैं।
रामदेव सिंह की रुचि कला के विभिन्न रूपों में रही है, खास तौर से रंगमंच और फिल्मों में। उन्होंने नौकरी के दौरान बाकायदा संस्था का निर्माण कर रंगमंच को पूर्णकालिक तौर पर जीया। अभिनय से लेकर निर्देशन तक। रंग संसार के प्रमुख लोगों के साथ उनके आत्मीय संबंध बने। फिल्मी दुनिया के सफर को भी उन्होंने नजदीक से देखा। साहित्य से लेकर सिनेमा तक विभिन्न कला क्षेत्रों के प्रति उनकी रुचि के कारण ही इस पुस्तक के संस्मरणों में भी विविधता है। साहित्यिक क्षेत्र के नामवर सिंह, कैफ़ी आज़मी, काशीनाथ सिंह, शिवमूर्ति, संजीव, शुकदेव सिंह, सुरेश चंद्र श्रीवास्तव, पं. रंगनाथ राकेश, हरिहर प्रसाद जैसे लोगों पर आत्मीयतापूर्ण संस्मरण हैं, तो फिल्म जगत के उत्पलेंदु चकवर्ती, सामाजिक-आर्थिक आंदोलन के डॉ. बी.डी. शर्मा, कार्टूनिस्ट कांजीलाल जैसे लोगों पर भी। रेणु साहित्य से जुड़े जयशंकर को याद किया गया है तो रेणु के गाँव ‘औराही हिंगना’ की भी यात्रा की गयी है। माँ, बाबू जी पर संस्मरण इस किताब को खास बनाता है तो आत्मसंस्मरण उनको समझने में हमारी मदद करता है।
माता और पिता पर लिखा गया संस्मरण हमें उस जमाने के गाँव में रह रहे लोगों के संघर्ष और कशमकश को विस्तार और मार्मिक ढंग से बताता है। लाख कठिनाइयों के बाद भी उनका मन-प्राण गाँव में बसता था। वे अपने बच्चों के पास शहर आते भी थे तो कुछ ही दिनों में गाँव के अपने घर में लौट जाना चाहते थे। उनके लिए दुनिया में सबसे सुंदर जगह ही नहीं, बल्कि सबसे बड़ा तीर्थ भी गाँव ही हुआ करता था। वे अपना प्राण भी उसी माटी में छोड़ना चाहते थे।
रामदेव सिंह जी के माता-पिता दोनों ने ही अपना प्राण अपने गांव इसरायण कला में ही त्यागा। इन संस्मरणों में हम उनकी कहानियों में पाए जानेवाले ‘मानुष सत्य’ के स्रोत को देख सकते हैं। खासतौर से ‘गठरी’ कहानी की मां का यथार्थ रूप हमे यहां नजर आता है।
साहित्यकारों पर लिखे गए संस्मरणों में भी उनके साहित्यिक अवदान या उपलब्धियों की चर्चा से अधिक उनके जीवन के छोटे-छोटे प्रसंगों को उभारा गया है। नामवर सिंह के गांव में आयोजित उनके सम्मान के दौरान का चित्र अभिभूत कर जाता है। गांव की मिट्टी का स्पर्श पाते ही नामवर सिंह जैसे तर्कशील आलोचक भी भावुक हो जाते हैं और अपने आंसुओं को रोक नहीं पाते हैं। व्यावहारिक रूप से नामवर जी अपने परिचितों की भावनाओं का कितना खयाल रखते हैं यह बात भी इस संस्मरण में बहुत अच्छे तरीके से उभरी है। कैफ़ी आज़मी जैसे नामी शायर किस तरह सामान्य लोगों से अपने संबंध को प्रगाढ़ करते हैं और अपने गाँव की तरक्की के लिए बेचैन रहते हैं, इसे रोचक तरीके से उभारा गया है। कथाकार काशीनाथ सिंह की जीवन शैली में जीवन के सूत्रों को छोटी जगहों में तलाशने की उनकी ललक को उभारा गया है। उनके पात्रों का रहस्य हम समझ पाते हैं।
रामदेव सिंह में अपने संपर्की साहित्यकारों से जितना लगाव है, उतनी ही स्पष्टता भी। वे उनके अवदान को जितनी गरिमा के साथ प्रस्तुत करते हैं, उनकी कमियों यह कहें अपनी असहमतियों को भी उतनी ही सहजता और सटीकता से रख देते हैं। कथाकार काशीनाथ सिंह जी की षष्ठिपूर्ति के समारोह में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के ही प्रोफेसर और लेखक शुकदेव सिंह के अनामंत्रित होने की पीड़ा को जिस तरह प्रस्तुत करते हैं, वह मन में बनारस के साहित्यकारों के परस्पर रागद्वेष के प्रति एक टीस जगा जाता है। कथाकार शिवमूर्ति पर लिखते हुए भी उन्होंने उनकी कहानी ‘भरतनाट्यम’ के अंत के प्रति अपनी असहमति सहजता से व्यक्त की है और अपनी पसंद की कहानियों का जिक्र किया है, जो आमतौर पर चर्चित कहानियों से अलग हैं। संजीव को उन्होंने बेचैन आत्मा के कथाकार के रूप में चित्रित किया है।
रामदेव सिंह जिससे भी जुड़ते हैं, बहुत ही गहराई से जुड़ते हैं। केवल साहित्य तक सीमित नहीं रहते, बल्कि उनके घर-परिवार के दुख-सुख तक अपने को साझा करते हैं और उन्हें दूर करने में यथेष्ट सहयोग करते हैं। यही कारण है कि वे लोगों के ‘दुलरूआ’ बन जाते हैं। शायर कैफ़ी आज़मी, फिल्मकार उत्पलेंदु चकवर्ती, उपन्यासकार सुरेशचंद्र श्रीवास्तव, आंदोलनधर्मी कथाकार हरिहर प्रसाद, पंडित रंगनाथ राकेश के साथ उनके संबंध ऐसे ही हैं। उत्पलेंदु चकवर्ती के घर का वर्णन कला जगत की महत्त्वपूर्ण हस्ती के जीवन के एक अजाने आयाम को मार्मिकता के साथ प्रस्तुत करता है। इसी तरह सभी के जीवन के निजी संदर्भ अत्यंत आत्मीयता से उभरे हैं।
प्रसिद्ध आईएएस अधिकारी और आदिवासियों के लिए खुद को समर्पित कर देनेवाले सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा की कार्यप्रणाली को उन्होंने नजदीक से देखा और व्यक्त किया है। हम देखते है कि कैसे डॉ. बी.डी. शर्मा सामान्य दर्जे में सामान्य लोगों के बीच यात्रा किया करते थे और सामाजिक-आर्थिक विषयों पर लिखी हुई अपनी पुस्तिकाएं भी उस दौरान बेचते थे। यह संस्मरण रामदेव सिंह के दायरे को एक नया आयाम देता है।
रेणु साहित्य से जुड़े जयशंकर पर संस्मरण और रेणु के गांव की यात्रा का वर्णन रेणु और रेणु साहित्य के प्रति उनकी आत्मीयता को प्रकट करता है। संयोग से उनके चाचा वहां स्टेशन मास्टर थे। रामदेव सिंह रेणु के परिवार के साथ ही रात बिताते हैं और वहां उनके परिवार के द्वारा आयोजित नाटक भी देखते हैं। उनके परिवार की शिकायत बहुत जायज है कि शहरों में रहनेवाले साहित्यकार बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं, लेकिन अच्छे नाटक करने या वहां हो रहे नाटकों के परिष्कार के लिए समय देने को कोई तैयार नहीं है। रेणु के गांव के आसपास के लोग रेणु को अपने गांव के गौरव से जोड़कर देखते हैं। वे जनसामान्य के भी कितने आत्मीय हैं, इसका पता इस बात से लगता है कि चायवाला भी कहता है, आप इतनी दूर से गांव देखने आए हैं क्या मैं चाय भी नहीं पिला सकता।
‘आत्मसंस्मरण’ में रामदेव सिंह ने अपने जीवन के सफर को पीछे मुड़कर देखा है। बचपन से लेकर नौकरी और फिर साहित्यिक-सामाजिक गतिविधियों को हम विस्तार से जान पाते हैं। पढ़ाई के लिए माँ की चिंता और कमरा बंद कर एक बार की पिटाई का चित्र मार्मिक है। माँ उनकी पहली गुरु हैं- अंतर हाथ संभार कर, बाहर मारे चोट। पढ़ाई और नौकरी के दौरान जहां भी उन्हें मानवीय संवेदनात्मक ऊष्मा की जरा सी गुंजाइश दिखी, उन्होंने जुड़ने का प्रयास किया। चाहे वह किशन पटनायक हों, डॉ. बी.डी. शर्मा हों, या फिर लेखकों के संगठन हों। सभी के बीच रहते हुए भी उन्होंने अपने को किसी लीक से बाँधा नहीं और न ही अपने भाव को प्रकट करने में कभी संकोच किया। निर्मल वर्मा के प्रति अपने आकर्षण को उन्होंने निर्भ्रांत रूप में प्रकट किया है और गांधी के ‘सत्य के प्रयोग’ के प्रति भी। आजकल चलन हो गया है एक ध्रुव के सत्य को पकड़कर बाकी सभी की बिना सोचे-समझे निंदा करते रहने का। इस स्थिति में रामदेव सिंह संबंधों की ऊष्मा और मानवीय गरिमा को बचाए रखने के प्रति आश्वस्त करते हैं।
इस संग्रह के संस्मरणों में अनेक प्रसंग ऐसे हैं, जो साहित्य और कला जगत के उच्चतम भाव को हमारे सामने लाते हैं। गोदई महराज जैसे कलाकार का रात में होटल के कमरे में जाकर उत्पलेंदु चक्रवर्ती को तबला सुनाना, सिर्फ इसलिए कि वे अतिथि हैं और फिर रात्रि एक बजे उत्पलेंदु चक्रवर्ती द्वारा मिठाई मॅंगाकर खिलाया जाना जैसे प्रसंग कला जगत के परस्पर सम्मान भाव को ही प्रकट करते हैं। पारिवारिक कारणों से आर्थिक विचलन का भाव मन में आना और फिर उससे बच जाने का मानसिक प्रसंग हमें आत्मा की भीतरी तह तक उतारता है। ऐसे तमाम प्रसंगों को जानने-समझने के लिए इस पुस्तक को पढ़ना होगा। रामदेव सिंह के संस्मरणों में भी कथात्मक रोचकता, कहन की विशिष्टता, घटनाओं का आरोह-अवरोह, स्थिर किस्म की स्मित से भरी हुई भाषा और मार्मिकता है, इसीलिए पढ़ना शुरू कीजिए तो पढ़ने की तल्लीनता बढ़ती जाती है।
पुस्तक : वे जब याद आये…
लेखक : रामदेव सिंह
प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य : 350.00 रु.मात्र