— डॉ. एस जतिन कुमार —
भारत के संविधान में दर्ज नीति निर्देशक सिद्धांत यह घोषणा करते हैं कि भारत एक कल्याणकारी राज्य है। यह कहा जाता है कि कल्याणकारी योजनाएँ गरीबों और दबे-कुचले लोगों की रक्षा करती हैं, आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया में बेहतर भागीदारी के लिए आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को तैयार करती हैं, आवश्यक कौशल मुहैया कराती हैं।
सामाजिक कल्याण योजनाएँ खाद्य सुरक्षा, बेरोजगारी भत्ता, चिकित्सा सुविधा, माताओं और शिशुओं की देखभाल में सहायता, वृद्धावस्था पेंशन, मकान बनाने में अनुदान आदि के जरिए व्यक्तियों और परिवारों को मदद करती हैं।
क्या कल्याण-योजनाएँ वास्तव में गरीबों की मदद कर रही हैं?
क्या गरीबों का जीवन स्तर बढ़ रहा है? क्या ये योजनाएँ उनमें जिंदगी और भविष्य के सुरक्षित होने का अहसास जगा पा रही हैं? ये सवाल उठने ही चाहिए। दूसरी तरफ यह प्रचार किया जाता है कि ये योजनाएँ बंद कर दी जानी चाहिए क्योंकि कल्याण योजनाएँ और लोगों को मुफ्त में दी जानेवाली सुविधाएँ सरकारी खजाने को खाली कर रही हैं। सरकारी खजाने का, यहाँ तक कि लिये गये कर्ज का भी बड़ा भाग, इन योजनाओं के वित्त-पोषण में लग जाता है। वे कहते हैं, “मैन्युफैक्चरिंग या उत्पादन के सेक्टर पर लगाने के बजाय मुफ्त की योजनाओं पर इतना धन व्यय करना आर्थिक संकट की तरफ ले जा रहा है। देश का आर्थिक विकास धीमा पड़ रहा है।”
लेकिन क्या सरकारें कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने में सचमुच ईमानदार और संजीदा हैं? वे जनकल्याण की योजनाएँ लागू कर रही हैं, या लोक लुभावन योजनाएँ? इन योजनाओं का मकसद गरीबी मिटाना है या गरीबी को बनाए रखना? पचहत्तर सालों में हमारे शासकों ने गरीबी हटाओ के नाम पर ढेर सारी योजनाएँ हमें दी हैं। इनसे गरीबी कम हुई? गरीबों का जीवन स्तर ऊपर उठा? क्या इनसे देश में समृद्धि बढ़ी? अगर बढ़ी, तो वह बढ़ोतरी गयी कहाँ? ये सभी सवाल गौर करने लायक हैं।
कल्याणकारी योजनाएँ क्यों नाकाम हो रही हैं?
पारदर्शिता या जवाबदेही की कमी, जन-केंद्रित नीतियों के अभाव, सामुदायिक भागीदारी का न होना और ईमानदारी से समीक्षा या निगरानी न किये जाने के कारण कल्याणकारी योजनाएँ कारगर ढंग से लागू नहीं हो पा रही हैं। जिस तरह से योजनाएँ बनायी जाती हैं उनके पीछे सरकार का इरादा क्या है और इन्हें लागू करने में वह कितनी गंभीर है, इसकी पड़ताल जरूर होनी चाहिए। अधिकतर योजनाएँ चुनाव के दौरान लोगों को खुश करने के लिए घोषित की जाती हैं। यह भी गौरतलब है कि योजनाएँ काफी धूम-धड़ाके से घोषित की जाती हैं, लेकिन उनके लिए वित्तीय आवंटन निहायत नाकाफी रहता है।
बहुत-से पूँजीवादी देश, और विकसित देश भी, सामाजिक सुरक्षा पर काफी खर्च करते हैं। मसलन, अमरीका ने 2019 में अपने बजट का 23 फीसद (1 खरब डॉलर के बराबर) सामाजिक सुरक्षा पर खर्च किया था। उसी साल फ्रांस की सरकार ने अपने देश की जीडीपी का लगभग एक तिहाई सामाजिक सेवाओं पर खर्च किया था। डेनमार्क, स्वीडन, नार्वे इन मदों पर 25 फीसद से अधिक खर्च करते हैं। ओईसीडी (आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन) के 38 सदस्य-देश- जैसे कि कनाडा, आस्ट्रेलिया, आस्ट्रिया, इटली, जापान- कल्याणकारी योजनाओं पर औसतन 20 फीसद खर्च करते हैं। जबकि भारत में अब कुल सबसिडी-व्यय जीडीपी का केवल 4 फीसद है। लिहाजा, हमारे अर्थशास्त्रियों की इस दलील में कोई दम नहीं है कि भारत कल्याणकारी योजनाओं के कारण आर्थिक संकट में पड़ गया है। यह कहना कि देश की सारी समस्याओं के लिए गरीब लोग जिम्मेवार हैं, छलावे से अधिक कुछ नहीं है। चीन का अनुभव और नीति अलग है। चीन ने रोजगार सृजन और बुनियादी सेवाओं का विस्तार करके गरीबों की समस्याएँ दूर कीं, और गरीबी से भी छुटकारा दिलाया लेकिन शिक्षा, कृषि आदि में सबसिडी देकर नहीं। चीन और दूसरे देशों में जो फर्क है वह साफ है।
मुफ्त वाली योजनाएँ आबादी के स्वरूप को, शहरी और ग्रामीण आबादी के बीच के फर्क को और शायद आर्थिक विकास के स्तर को ध्यान में रखकर घोषित की जाती हैं। प्रशासनिक तंत्र और राजनीतिक निर्णय की इसमें केंद्रीय भूमिका रहती है ताकि सरकार या सत्तारूढ़ दल और लाभार्थियों के बीच एक आर्थिक रिश्ता बन जाए। लेकिन यह दाता और प्राप्तकर्ता का रिश्ता है। लोगों को सुविधाएँ लोगों को अधिकार के तौर पर नहीं, बल्कि सरकार की दया की तरह मुहैया करायी जाती हैं। भारत को विकसित देश बनने के पहले ही कल्याणकारी राज्य बताया जा रहा है।
हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के चलते सत्तारूढ़ दलों पर यह दबाव रहता है कि चुनावी लाभ के लिए वे कुछ करें। लिहाजा गरीबी-जनित समस्याओं को दीर्घकालीन टिकाऊ नीतियों के जरिए दूर करने के बजाय वे सबसिडी तथा लोकलुभावन योजनाओं की हड़बड़ी में रहते हैं। लोगों का उस पार्टी की ओर सकारात्मक रुझान रहता है जो उन्हें फौरी आर्थिक सहायता मुहैया करा सकती है। सभी सरकारें आबादी के उस हिस्से को लुभाने की फिराक में रहती हैं जो इधर से उधर हो सकता है, जिन्हें ‘स्विंग वोटर्स’ कहा जाता है। सरकारें ऐसे मतदाताओं का भरोसा जीतने की योजना बनाती हैं। लिहाजा मुफ्त वाली योजनाएँ स्थायी समाधान की तरह शुरू और लागू नहीं की जातीं बल्कि वे लोगों को फौरी तौर पर लुभाने के लिए लायी गयी ‘वोट बैंक योजनाएँ’ होती हैं।
नतीजतन भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, लाभार्थियों के चुनाव में सत्ताधारी पार्टी की मनमर्जी और प्रभावशाली व्यक्तियों के प्रति वफादारी आदि इन योजनाओं की विशेषताएँ होती हैं। ये योजनाएँ सामाजिक धन को चुनिंदा लोगों के खातों में भेजने का जरिया बन जाती हैं, उनमें से ज्यादातर अमूमन अपात्र होते हैं। लोगों को जो लाभ मिलने चाहिए वे बड़े ही असमान तरीके से और अंधा बाँटे रेवड़ी के अंदाज में बाँटे जा रहे हैं। योजनाएँ बड़े नाकारा ढंग से लागू की जा रही हैं।
जो उभरती बाजार-अर्थव्यवस्थाएँ सबसिडी का उपयोग करती है उन्होंने उत्पादन-लक्षित सबसिडी (राशन, ईँधन और फर्टिलाइजर आदि पर दी जानेवाली सबसिडी) से व्यक्ति-लक्षित सबसिडी की ओर रुख कर लिया है। इसलिए सरकारें कीमतों में बढ़ोतरी की परवाह नहीं करतीं बल्कि अपने आवंटन घटाने के लिए तय सबसिडी की एक निश्चित रकम का भुगतान करती हैं। लोग अपने खातों में सीधे आनेवाली छोटी राशियों से संतुष्ट हो जाते हैं, यह नहीं समझते कि उन्हें मिलती आ रही सबसिडी वास्तव में कम हो गयी है।
(countercurrents से साभार)
अनुवाद : राजेन्द्र राजन
(जारी – कल पढ़िए कुछ कल्याणकारी योजनाओं पर एक नजर)