— डॉ. एस. जतिन कुमार —
भारत में जीडीपी के 2.5 फीसद के बराबर सबसिडी राशन, ईंधन और खाद पर दी जाती है। कुछ लोगों का दावा है कि यह रकम, सभी विकास परियोजनाओं के लिए आवंटित राशि से ज्यादा है। यह बताया जाता है कि सरकार 1 रुपए की सबसिडी देने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) पर 3 से 4 रुपये खर्च करती है- यह खुलासा 2005 में एन.सी.ए.ई.आर. के अध्ययन ने किया था। कथनी और करनी का फर्क सामने आ जाता है जब हम कुछ सरकारी योजनाओं की छानबीन करते हैं।
तीन बड़ी योजनाओं पर नजर डालते हैं- रोजगार, स्वास्थ्य और पोषण से ताल्लुक रखनेवाली ये योजनाएँ चल रही हैं। आइए, देखते हैं कि लोगों के जीवन को ये किस रूप में प्रभावित कर रही हैं।
मनरेगा
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून 2006 से लागू है। इसका मकसद ग्रामीण क्षेत्र में हर घर के एक बालिग सदस्य को साल में कम से कम सौ दिनों का अकुशल मजदूरी का काम दिलाना है। कहा गया था कि यह योजना प्राकृतिक आपदा और आर्थिक संकट के दिनों में ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 14.70 करोड़ श्रमिकों को जीविका का साधन मुहैया कराएगी।
इस योजना (मनरेगा) के तहत काम चाहनेवालों की तादाद 43 फीसद बढ़कर वित्तवर्ष 2021-22 में 13.3 करोड़ पर पहुँच गयी। हालांकि सरकार ने इस योजना के लिए आवंटन 34 फीसद तक घटा दिया है। वित्तवर्ष 2021-22 में इस योजना पर 73,000 करोड़ रु. खर्च किये गये। देश के 21 राज्य इस योजना को चलाने में पैसे की तंगी महसूस कर रहे हैं और बकाये का भुगतान नहीं कर पा रहे हैं। मार्च 2020 में की गयी लॉकडाउन की घोषणा से पहले केंद्र सरकार ने इस योजना के लिए 61,500 करोड़ रु. आवंटित किये थे। लेकिन लॉकडाउन के कारण बड़ी संख्या में मजदूरों का शहरों से गाँवों की ओर पलायन हुआ। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार मुहैया कराने की जरूरत बढ़ गयी। नतीजतन, 2020-21 में, आपातकालीन कदम के तौर पर, आवंटन 81 फीसद बढ़ाकर 1,11,500 करोड़ करना पड़ा। लेकिन बाद में, 2021-22 में आवंटन 34 फीसद घटाकर 73,000 करोड़ कर दिया गया, हालांकि हालात में कोई सुधार नहीं हुआ था।
‘लिब टेक इंडिया’ और ‘पीपुल्स एक्शन फॉर इंप्लायमेंट गारंटी’ द्वारा किये गये एक अध्ययन के मुताबिक केंद्र सरकार पर 4 दिसंबर 2021 तक, मनरेगा के तहत मजदूरी का 4,500 करोड़ रु. से अधिक बकाया था। बकाया मजदूरी के मामलों की संख्या 2.88 करोड़ है। पिछले साल इस तरह के 64.36 लाख मामले (लगभग 280.42 करोड़ रु. के बराबर) खारिज कर दिये गये।
उत्तर प्रदेश के सीतापुर में संगिन किसान मजदूर संगठन से जुड़ी ऋचा सिंह का कहना है कि “मनरेगा के तहत काम पाना आसान नहीं है। अगर काम मिल भी जाए, तो समय पर मजदूरी न मिलना दूसरी समस्या है। पूरी प्रक्रिया में बहुत सारे झोल हैं। मसलन, रीना नाम की एक औरत का उदाहरण लें। उसे हम 90 दिनों की उसकी मजदूरी का 18,000 रु. का बकाया दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मजदूरों की समस्याएँ सुलझाने का सरकार का कोई इरादा नहीं दिखता। जब लोगों को काम की जरूरत हो तो उसे मुहैया कराने के लिए कोई विधिवत आदेश नहीं है।”
विडंबना यह है कि संपन्न राज्य इस योजना का अधिक उपयोग कर रहे हैं बनिस्बत उन राज्यों के, जो गरीब हैं जिन्हें इस योजना की ज्यादा जरूरत है। इससे राज्यों के बीच विकासगत खाई और चौड़ी हो रही है। उम्मीद से उलट, जरूरतमंदों को ध्यान में रखकर बनायी गयी इस योजना को जिला या ब्लाक स्तरीय किसी विकास कार्यक्रम से नहीं जोड़ा गया है। 2013-14 में, 132 रुपये की मजदूरी के भुगतान पर 175 रुपये खर्च किये गये। यही नहीं, भुगतान की गयी मजदूरी का 90 फीसद ही लाभान्वितों तक पहुँच पाया। यह तथ्य बताता है कि यह योजना किस कदर भ्रष्टाचार और बरबादी का शिकार है।
स्वास्थ्य संबंधी योजनाएँ
भारत सरकार बड़े पैमाने पर यह प्रचार करती रही है कि वह ‘आरोग्यश्री’ और ‘आयुष्मान भारत’ जैसी योजनाओं के जरिए गरीबों को आला दर्जे की चिकित्सा सुविधाएँ मुफ्त मुहैया करा रही है। इस मामले में बारीकी से समीक्षा और छानबीन जरूरी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा निर्धारित सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों के मद्देनजर देखें तो भारत मातृ मृत्यु दर (वर्ष 2015 में प्रति 1 लाख जन्म पर 113 माँओं की मृत्यु और वर्ष 2020 में प्रति 1 लाख जन्म पर 99 बच्चों की मृत्यु) और शिशु मृत्यु दर (वर्ष 2015 में प्रति 1 हजार जन्म पर 30 शिशुओं की मृत्यु और वर्ष 2020 में प्रति 1 हजार जन्म पर 26 शिशुओं की मृत्यु) जैसे मानकों पर काफी पिछड़ा हुआ है, जबकि ये मानक किसी भी देश में चिकित्सीय देखरेख के मानकों में काफी अहम माने जाते हैं।
भारत में सरकारी चिकित्सा व्यवस्था भी है और प्राइवेट भी। सार्वजनिक क्षेत्र में प्राथमिकता दी जाती है प्राथमिक स्वास्थ्य व्यवस्था, संक्रामक रोगों की रोकथाम और बच्चों के टीकाकरण को। प्राइवेट सेक्टर में दूसरे और तीसरे सोपान की चिकित्सीय सुविधाओं को तरजीह दी जाती है। लिहाजा, अमूमन लोग जिन स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करते हैं उनमें से सिर्फ 20 फीसद का ही समाधान सरकारी क्षेत्र में हो पाता है। सरकार द्वारा चलायी जानेवाली मुफ्त चिकित्सा की योजनाएं किसी भी तरह से पर्याप्त नहीं हैं। हर कोई स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों को लेकर प्राइवेट अस्पतालों का रुख करने को बाध्य है।
70 फीसद स्वास्थ्य व्यवस्था प्राइवेट सेक्टर के हाथ में है, जो या तो मझोले दर्जे के अस्पतालों के तौर पर चलायी जाती है या कॉरपोरेट अस्पताल-उद्योग के तौर पर। यह उद्योग एक तरफ विदेशी मरीजों को आकर्षित करता है और अंतरराष्ट्रीय दर्जे के संस्थानों के मुकाबले कुछ कम रेट पर इलाज मुहैया कराता है। राजस्व का 18 फीसद चिकित्सा पर्यटन की बदौलत आता है। स्वास्थ्य सेक्टर में 47 लाख लोग काम करते हैं, 2021 में यह सबसे ज्यादा मुनाफा कमानेवाला, 372 अरब डॉलर का एक बड़ा बाजार बन गया।
दूसरी तरफ सरकारी क्षेत्र में स्वास्थ्य व्यवस्था दिनोदिन और बिगड़ती जा रही है और ढाँचागत सुविधाओं के अभाव के फलस्वरूप खराब सेवाएँ देने के कारण लोगों की नजरों से गिरती जा रही है। हर कोई जानता है कि कोविड-19 महामारी के दौरान प्राइवेट सेक्टर की सेवा लेना कितना महँगा साबित हुआ।
भारत में 63 फीसद से ज्यादा लोग इलाज पर अपनी जेब से खर्च करते हैं। यह दुनिया में सबसे ज्यादा है। भारत में 5 फीसद से भी कम लोगों का स्वास्थ्य-बीमा है। इलाज के लिए कर्ज लेने या संपत्ति बेचने के कारण 30 फीसद मरीज मध्यवर्ग से गरीबों की कतार में आ जाते हैं।
पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया में प्रोफेसर व सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के विशेषज्ञ डॉ अंबरीश दत्ता कहते हैं, हमारे सार्वजनिक (सरकारी) स्वास्थ्य तंत्र में निवेश बढ़ाने की जरूरत है। भारत अपने कुल जीडीपी का केवल 1.2 फीसद स्वास्थ्य के मद में खर्च करता है, जो कि दुनिया में सबसे कम है। स्वास्थ्य के मद में अमरीका 8.5 फीसद, ब्रिटेन 7.9 फीसद और चीन 3.2 फीसद खर्च करता है। प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना एक ऐसी स्वास्थ्य योजना है जो पूरे देश में लागू की जाती है। हालांकि कोविड महामारी के दौरान, अप्रैल 2020 से जून 2021 तक, सिर्फ 17.7 लाख टेस्ट (कुल टेस्ट का 0.49 फीसद) हो पाये और केवल 6 लाख मरीज (कुल मरीजों का 14.25 फीसद) इस योजना के तहत अस्पतालों में भर्ती हो पाये। सरकार कितनी भी योजनाएँ घोषित करे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि ढाँचागत सुविधाओं के अभाव में समस्या आंशिक रूप से भी दूर नहीं की जा सकती।
ओपी जिन्दल यूनिवर्सिटी में स्वास्थ्य-प्रोफेसर डॉ इंद्राणी मुखोपाध्याय का कहना है कि प्राथमिक स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करने पर फोकस करना चाहिए। स्वास्थ्य बजट 2020-21 के 78,866 करोड़ से घटाकर 71,269 करोड़ कर दिया गया, बावजूद इसके कि देश कोराना महामारी का सामना कर रहा था। इसका अर्थ है कि सरकार मेडिकल मामले में अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है और लोगों को प्राइवेट सेक्टर के हवाले कर रही है।
पोषण योजनाएँ
दुनिया भर में इंडिया शाइनिंग का ढिंढोरा पीटा गया है। लेकिन हकीकत कुछ और है। विकास और कल्याणकारी राज्य के मामले में ‘विश्वगुरु’ का स्थान दुनिया में वैसा नहीं है जैसा हमारे शासक चाहते हैं बल्कि कई मामलों में हमारा रिकार्ड शर्मनाक है। जरूरत-भर भोजन से वंचित लोगों के सूचकांक (हंगर इंडेक्स) में 116 देशों में हमारा स्थान 101वाँ है। जहाँ चीन को इस सूचकांक में 5 से भी कम अंक मिले हैं और वहाँ खाद्य असुरक्षा की कोई समस्या नहीं है वहीं 27.5 अंक के साथ भारत को एक ऐसे देश के तौर पर चिह्नित किया गया है जहाँ अधपेट रहने की मजबूरी एक बड़ी समस्या है।
खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की रिपोर्ट के मुताबिक भारत की 14 फीसद आबादी भुखमरी के कगार पर है। यूनिसेफ के आँकड़ों के अनुसार, 20 करोड़ लोग रोजाना सिर्फ एक बार भोजन कर पाते हैं और सालाना 25 लाख लोग भुखमरी के कारण जान गँवा बैठते हैं। यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक 18.5 करोड़ भारतीय हर साल कुपोषण के कारण बीमारी की गिरफ्त में आ जाते हैं। हर साल पाँच साल से कम उम्र के 8.8 लाख बच्चे भोजन के अभाव में दम तोड़ देते हैं। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने 14 अक्टूबर 2021 को यह अनुमान जाहिर किया था कि देश में 15.46 लाख बच्चे कुपोषण और 17.76 लाख बच्चे अत्य़धिक कुपोषण के शिकार हैं।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस 2019-20) के मुताबिक 6 माह से 23 माह के आयुवर्ग के 89 फीसद बच्चों को पर्याप्त आहार नहीं मिल पाता है। लिहाजा, 32 फीसद बच्चों का वजन अपेक्षा से कम रहता है, 35 फीसद बच्चों का ठीक से शारीरिक-मानसिक विकास नहीं हो पाता है, 20 फीसद बच्चे दुर्बल बने रहते हैं। वर्ष 2020 में 66 फीसद स्त्रियों और 68 फीसद बच्चों में खून की कमी पायी गयी। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के मुताबिक 2016 में करीब 46 फीसद स्त्रियाँ और 36 फीसद बच्चे एनीमिया (खून की कमी) के शिकार पाये गये।
इसका अर्थ है कि लोगों की सेहत का ग्राफ दिनोदिन गिर रहा है। आखिर हमारी जनकल्याणकारी योजनाओं को क्या हुआ है, दुनिया भर के लिए जिनके रोल मॉडल होने का दावा किया जाता है?
यह हालत तब है जब 1990 से देश में खाद्य की कोई कमी नहीं रही है। हमारा देश दूध, दालों और ज्वार, बाजरा आदि मोटे अनाज की पैदावार में दुनिया में अव्वल है, और चावल, गेहूँ, गन्ना, मूँगफली और सब्जियों की पैदावार में हम दूसरे स्थान पर हैं। फिर भी हंगर इंडेक्स में हमारी स्थिति इतनी बुरी है। ऐसी स्थिति खाद्य पैदावार की कमी के कारण नहीं बल्कि वितरण की खामी के कारण है। 2013 में बने कानून में सभी भारतीयों को खाद्य सुरक्षा की गारंटी दी गयी थी। इस कानून के तहत यह सुनिश्चित किया गया कि अगर जरूरत हो तो सरकार को लोगों को रियायती दर पर अनाज मुहैया कराना होगा। इसका अर्थ है कि एक के बाद एक, सभी सरकारें अपने संवैधानिक दायित्व को पूरा करने में नाकाम रही हैं। उनकी कोताही भुखमरी और कुपोषण की वजह है।
गरीबी उन्मूलन के लिए व्यवस्थागत बदलाव और नीतियाँ अपनाने के बजाय, लोगों के असंतोष को शांत करने के लिए, आँखों में धूल झोंकनेवाली योजनाएँ लागू की जाती रही हैं। कुपोषण कम करने के लिए पोषण अभियान योजना 2018 में शुरू की गयी थी। यह एक सरकारी योजना है जिसका मकसद छह माह से छह साल के बच्चों, गर्भवती तथा दूध पिला रही माताओं और स्कूल से वंचित 11 साल से 14 साल की लड़कियों को अतिरिक्त पोषण मुहैया कराना है। आँगनवाड़ी सेवाओं के तहत पूरक पोषण कार्यक्रम और एकीकृत बाल विकास योजना (आईसीडीएस) के पीछे यही मकसद रहा है। इन सभी को मिलाकर 2021-22 के बजट में एकीकृत पोषण सहायता कार्यक्रम का नाम दे दिया गया।
सरकार मिड-डे मील योजना के तहत, शिक्षा मंत्रालय के तत्वावधान में, सरकारी स्कूलों और सरकारी अनुदान से चलनेवाले स्कूलों में कक्षा 1 से कक्षा 8 तक के बच्चों को पका हुआ भोजन मुहैया कराती है। वर्ष 2020-21 में मिड-डे मील के लिए 12,900 करोड़ रु. आवंटित किये गये थे लेकिन इसे घटाकर 2021-22 में 11,500 करोड़ कर दिया गया। यानी 10.8 फीसद की कटौती की गयी। स्वास्थ्य संबंधी अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ डॉ इंद्रनील मुखोपाध्याय का कहना है कि “महामारी के दौरान मिड-डे मील और एकीकृत बाल विकास योजना के बंद रहने का परिणाम बहुत बुरा हुआ, बच्चे अत्यधिक कुपोषण के शिकार हुए।”
विशेषज्ञ चाहते हैं कि पोषण के लिए आवंटन बढ़ाया जाए। लेकिन 2020-21 में आईसीडीएस का कुल बजट जो 28,557 करोड़ रु. आवंटित किया गया था उसे संशोधित आवंटन में घटाकर 20,038 करोड़ कर दिया गया। यह लगभग 29 फीसद की कटौती थी। जबकि विशेषज्ञ कहते हैं, “हमें किशोर उम्र की लड़कियों के पोषण पर फोकस करने की जरूरत है। अभी काफी संसाधनों की आवश्यकता है।” लेकिन सरकार आवश्यक कल्याणकारी योजनाओं के फंड घटा रही है। उन्हें नाम भर को चलाया जा रहा है पर उनका ढिंढोरा पीटने में कोई कसर नहीं रखी जाती।
(countercurrents से साभार)
(जारी : कल पढ़िए अगली किस्त- ‘गले तक कर्ज में डूबा देश’)
अनुवाद : राजेन्द्र राजन