— डॉ सुनीलम —
मंदसौर किसान आंदोलन के पांच वर्ष 6 जून 2022 को पूरे हो रहे हैं। 6 जून को पुलिस गोली चालन में शहीद हुए छह किसानों की गांव में बनी मूर्तियों पर ग्रामवासियों द्वारा पुष्पांजलि अर्पित की जाएगी। श्रद्धांजलि कार्यक्रम में शामिल होने मैं और जयस के संरक्षक डॉ अभय ओहरी गोली चालन में शहीद हुए किसानों के परिवारों से मिलने और शहीदों को श्रद्धांजलि देने पहुंचे हैं।
मंदसौर के शहीद किसानों की स्मृति में देश भर के किसानों द्वारा शहीद किसान स्मृति दिवस मनाया जा रहा है। दिल्ली के बॉर्डरों पर शहीद 715 किसानों तथा देश भर में शहीद किसानों को श्रद्धांजलि अर्पित की जाएगी।
सवाल यह है कि मंदसौर किसान आंदोलन से किसानों को क्या हासिल हुआ? गोलीचालन के बाद देश के 250 किसान संगठन पहली बार अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के नाम से एकजुट हुए। समन्वय समिति ने मंदसौर के किसानों का लागत से डेढ़ गुना दाम (सी 2 +50 %) पर खरीद के मुद्दे पर कानून लागू करवाने और कर्जा मुक्ति की मांग को लेकर खुद कानून तैयार कर उसे अपने प्रतिनिधियों से लोकसभा और राज्यसभा में पेश किया।
बीच में केंद्र सरकार द्वारा 3 किसान विरोधी कानून थोपे जाने के कारण समन्वय समिति ने किसान आंदोलन को व्यापक बनाने के उद्देश्य से संयुक्त किसान मोर्चा का गठन किया। सर्वविदित है कि यह आंदोलन 380 दिन चला, जिसमें 715 किसानों की शहादत हुई। खुद को महाबली माननेवाली मोदी सरकार को कानून वापस लेने को मजबूर होना पड़ा। अब एमएसपी पर खरीद की कानूनी गारंटी की मांग को लेकर देश भर में किसान संगठन सक्रिय हैं अर्थात 5 साल पहले एमएसपी का जो मुद्दा मंदसौर किसान आंदोलन ने उठाया था वह मुद्दा अब राष्ट्रीय स्तर का मुद्दा बन गया है, जिसके प्रेरणा स्रोत मंदसौर के छह शहीद किसान और मंदसौर का किसान आंदोलन है। इन सब के बावजूद लहसुन, प्याज और अन्य कृषि उत्पादों का उचित दाम आज भी मंदसौर सहित देश के किसानों को नहीं मिल रहा है। इस कारण मंदसौर के किसानों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे गोली चालन से भयभीत हुए बिना फिर एक बार किसानों की बड़ी गोलबंदी करेंगे।
मंदसौर पुलिस फायरिंग की जांच के लिए 13 जून को मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह चौहान सरकार ने उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जे. के. जैन के नेतृत्व में न्यायिक आयोग गठित किया गया था। आयोग को 3 माह में रिपोर्ट देनी थी। आयोग को इस बात की रिपोर्ट देनी थी कि किन परिस्थितियों में पुलिस फायरिंग की गई, क्या पुलिस फायरिंग जरूरी थी, यदि नहीं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है तथा घटना के बाद अधिकारियों द्वारा की गई कार्यवाही आवश्यकतानुसार थी ? जैसी कि आशंका थी वैसा ही हुआ। आयोग की जांच और सरकार ने दोषी अधिकारियों को साफ-साफ बचा लिया।
पुलिस गोली चालन के बाद जांच आयोग या जांच समिति बिठाना और उसके माध्यम से गोली चालन को जायज ठहराने की कार्यवाही में कुछ भी नया नहीं है। यह मात्र औपचारिकता बनकर रह गया है इसलिए आंदोलनकारी आमतौर पर सरकार की जांच पर भरोसा नहीं करते हैं।
यही कारण है कि मुलताई के किसानों ने न्यायिक जांच का बहिष्कार किया था। लेकिन मंदसौर पुलिस फायरिंग को लेकर कमीशन के सामने तमाम पीड़ित किसान तथा आनंद मोहन माथुर जैसे दिग्गज वकील उपस्थित हुए थे। पूर्व विधायक पारस सकलेचा ने काफी रुचि ली थी। लेकिन 9 माह बाद दी गई रिपोर्ट के बाद कलेक्टर स्वतंत्र कुमार सिंह समेत किसी का कुछ नहीं बिगड़ा,पुलिस अधीक्षक ओपी त्रिपाठी का भी, जिनको पुलिस फायरिंग के बाद निलंबित कर दिया था और जिनके बारे में कमीशन ने यह टिप्पणी की थी कि पुलिस फायरिंग के दौरान नियमों और प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया तथा सरकार का खुफिया तंत्र बहुत कमजोर था। कमीशन ने यह भी स्वीकार किया कि गोली चालन सीधे भीड़ पर किया गया जबकि आंदोलनकारियों के पैर पर किया जाना था।
यहां यह भी उल्लेख करना जरूरी है कि राहुल गांधी ने पीड़ित परिवारों से मिलकर उन्हें न्याय दिलाने का वायदा किया था। मंदसौर की पीपल्या मंडी में हुई आम सभा में इस आशय की घोषणा की थी कि कांग्रेस के सत्ता में आने पर गोलीचालन की फिर से जांच कराई जाएगी तथा मंदसौर पुलिस गोली चालन के दोषियों की सजा सुनिश्चित कराई जाएगी। 18 फरवरी को कांग्रेस की सरकार बनने के बाद विधायक हर्ष गहलोत के प्रश्न के जवाब में तब के गृहमंत्री बाला बच्चन ने जवाब दिया कि 6 जून को महू नीमच रोड पर एग्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट की अनुपस्थिति में चलाई गई गोली आत्मरक्षा के लिए तथा सरकार और निजी संपत्ति की सुरक्षा के लिए चलाई गई थी। सरकार बनने के बाद कांग्रेस के नेता जीतू पटवारी ने जांच पुनः शुरू करने का कहा था। गृहमंत्री बाला बच्चन ने जैन रिपोर्ट का हवाला देकर यह जरूर कहा था कि प्रशासन ने इसलिए गोली चालन किया था कि कर्जा मुक्ति और बेहतर मूल्य देने की स्थिति में प्रशासन नहीं था।
शहीद कन्हैयालाल पाटीदार के भाई मधुसूदन पाटीदार तथा अभिषेक पाटीदार, दिलीप पाटीदार एवं अमृतलाल पाटीदार ने भी शहीदों के साथ न्याय नहीं किए जाने के खिलाफ आवाज उठाई थी। 5 साल बाद भी पांच शहीद किसान जो गोली से मरे थे तथा एक किसान जिसे पुलिस ने लाठियों से पीट-पीटकर मार डाला था, उनके हत्यारों को सजा मिलना तो दूर, मुकदमे तक दर्ज नहीं हुए है।
छत्तीसगढ़ के बस्तर में धरना दे रहे आदिवासियों को पुलिस ने 17 मई 2018 को तीन आदिवासियों को सिलगेर कैंप के पास मार गिराया था। तब से आज तक वहां अनिश्चितकालीन धरना जारी है। छत्तीसगढ़ सरकार ने उन्हें एग्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट से जांच कराने का आदेश 23 मई को दिया। इसका अर्थ यह है कि छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने उच्च न्यायालय के न्यायाधीश से जांच कराने की आवश्यकता तक नहीं समझी। जिसका अर्थ है कि बस्तर पुलिस फायरिंग की जांच केवल और केवल पुलिस फायरिंग को उचित, जायज और न्यायपूर्ण घोषित करने की रह गई है।
12 जनवरी 1998 को मुलताई किसान आंदोलन पर फायरिंग हुई थी जिसमें 24 किसान शहीद हुए तथा 150 किसानों को गोली लगी थी। इसकी भी न्यायिक जांच सरकार ने कराई थी लेकिन वहां भी गोली चालन को जायज ठहरा कर पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को न केवल बचा लिया गया बल्कि उन्हें पदोन्नति देकर उच्च पदों पर आसीन कर दिया गया। यही तमिलनाडु के तूतीकोरिन पुलिस फायरिंग में भी हुआ जहां पूर्व न्यायाधीश अरुणा जगदीशन को जांच की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। वहां आज तक न्यायिक जांच पूरी नहीं हो सकी है।
आजादी के बाद देश भर के गोली चालन में एक लाख से अधिक नागरिक मारे जा चुके हैं लेकिन पुलिस फायरिंग के 99 फीसद मामलों में दोषी अधिकारियों को सजा देना तो दूर, उन पर मुकदमे दर्ज तक नहीं किए गए।
जबकि अविभाजित आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय ने गोली चालन के सभी मामलों में प्रकरण पंजीबद्ध कर न्यायिक प्रक्रिया पूरी करने के आदेश दिए थे। परंतु सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस आदेश पर स्टे लगा दिया गया। यह हालत तब है जब भारत का संविधान देश के हर नागरिक को सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार देता है तथा भारत की राष्ट्र-राज्य की यह जिम्मेदारी है कि वह देश के हर नागरिक को जीवन की सुरक्षा प्रदान करे।
शहीदों को न्याय देने का यह मुद्दा भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास से भी जुड़ा है, जिसमें अंग्रेजों ने लाखों राष्ट्रभक्तों को मौत के घाट उतारा था। वर्तमान किसान आंदोलन के संदर्भ में यह मुद्दा अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी और भाजपा से संबद्ध भारतीय किसान संघ ने हाल ही में किसान आंदोलनकारियों को राष्ट्रद्रोही और आतंकवादी बतलाया है। ऐसी स्थिति में भविष्य में टकराव होने पर किसानों को आसानी से निशाना बनाया जा सकता है।
सरकारें शहीद परिवारों को मुआवजा देकर तथा कभी-कभी नौकरी देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती हैं, लेकिन शहीद परिवारों को न्याय के सवाल का जवाब कभी भी नहीं मिल पाता है। देश में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तथा राज्य में मानवाधिकार आयोग तो हैं ही, मानवाधिकार संगठन भी हैं। तमाम शहीद परिवार अदालत भी गए लेकिन गोली चालन के दोषियों को सजा दिलाने में आमतौर पर कामयाबी किसी को नहीं मिलती है। ऐसी स्थिति में निहत्थे, अहिंसक नागरिकों पर पुलिस गोलीचालन पर कानूनी रोक लगाना एकमात्र विकल्प बचता है।
डॉ राम मनोहर लोहिया की जन्मशताब्दी पर राष्ट्र सेवा दल और युसूफ मेहर अली सेंटर के साथ जब मैंने देश भर की यात्रा की थी तब इस मुद्दे को मुख्य मुद्दा बनाया था। लेकिन पार्टियों से तथा जन संगठनों से भी इस मुद्दे पर समर्थन नहीं मिला। कुल मिलाकर पुलिस गोली चालन में शहीद हुए स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से लेकर मंदसौर, मुलताई, तूतीकोरिन तथा बस्तर के शहीद किसानों को न्याय का इंतजार है।