स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : 31वीं किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

ग्र पंथ के बंगाल विभाजन विरोधी आंदोलन तथा तिलक जी के राष्ट्रीय पक्ष की देन क्या रही? उन्होंने विदेशी माल का बहिष्कार, सरकार द्वारा दी गयी पदवियों को अस्वीकार करना, और समय आने पर सरकारी टैक्स नहीं देना आदि कल्पनाओं का प्रसार किया। इन सभी कार्यक्रमों को वे साकार कर पाये सो बात नहीं। मगर विचार-प्रसार का काम उन्होंने निःसंदेह किया। नरम पंथ के तौर-तरीकों में उग्रपंथी कुछ तीव्रता लाये। भारतीय जनता को कुछ आत्मनिर्भरता उन्होंने सिखाई। मगर टैक्स न देने आदि कार्यक्रमों को वे लागू नहीं कर सके। ऐसे अधिकांश कार्यक्रम बाद में गांधीयुग में ही जाकर साकार हुए। गांधीयुग में भी करबंदी का आंदोलन खेड़ा तथा बारडोली में ही यशस्वी हो पाया। 1931-32 में लगानबंदी आंदोलन से यू.पी. तथा मेदिनीपुर-हुगली (बंगाल) में किसान और रैयत काफी प्रभावित हो गए थे। ऐसा वर्धमान के महाराजा ने स्वयं एक ब्रिटिश संसदीय समिति के सामने स्वीकार किया था। इस तरह नरम पंथ, उग्रपंथ तथा गांधीयुग….परस्पर विरोधी न होकर एक माने में एक ही आंदोलन की सतत विकसित हुई मालिका हैं, प्रक्रिया है।

तीसरे चरण में उग्रवादी राष्ट्रीय नेताओं की धारा से कुछ अलग, लेकिन उनके प्रति कुछ सहानुभूति रखनेवाली एक नयी क्रांतिकारी विचारधारा भी भारतीय नौजवानों में उत्पन्न हुई थी। लोकमान्य तिलक आदि नेताओं के प्रति इनके मन में निःसंदेह आदर की भावना थी, लेकिन स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा आदि कार्यक्रम उनकी नजर में नाकाफी थे। शांतिपूर्ण आंदोलन और यदा-कदा जेल यात्रा को वे यथेष्ट नहीं मानते थे। ये क्रांतिकारी तरीकों का इस्तेमाल करना चाहते थे, जिसकी प्रेरणा उन्हें प्रसिद्ध इटालियन देशभक्त मैजिनी तथा आयरिश क्रांतिकारियों से मिली थी। जार के खिलाफ लड़नेवाले क्रांतिकारियों के प्रति भी इनमें काफी आकर्षण था। बम बनाने के रासायनिक फार्मूले वे इन रूसी क्रांतिकारियों से प्राप्त करते थे। बम, पिस्तौल और बंदूक आदि का प्रयोग, जालिम अंग्रेजों की हत्या और मुल्क में हथियारी बलवे की तैयारी करना इनकी विचारधारा का मुख्य अंग था।

क्रांतिकारी विचारधारा के ये पुजारी कम-अधिक तादाद में सभी राज्यों में थे, लेकिन इनका जाल बंगाल, महाराष्ट्र, पंजाब आदि राज्यों में विशेष रूप से फैला हुआ था। खुदीराम बोस से लेकर भगतसिंह तक इन युवा क्रांतिकारियों की एक श्रृखंला सी थी। सोलह साल की आयु में खुदीराम ने जालिम अंग्रेज अधिकारियों को मारने की गुप्त योजना बनाई थी। उन्हें फाँसी की सजा फरमाई गयी थी। उन दिनों अरविंद घोष का भी इन क्रांतिकारियों से संबंध था, लेकिन बाद में वे राजनीति से हट गए और पांडिचेरी में जाकर उन्होंने अपना आश्रम खोल लिया। इस तरह उग्र संवैधानिक आंदोलन के साथ यह आतंकवादियों की परंपरा भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में प्रकट अथवा गुप्तधारा के रूप में सतत जीवित रही।

आतंकवाद का रास्ता

सशस्त्र क्रांति या आतंकवाद का आंदोलन 1907 के बाद प्रारंभ हुआ। उसके पहले राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए हिंसा का योजनाबद्ध इस्तेमाल नहीं हुआ था, न उसके लिए कोई गुप्त और भूमिगत संगठन बनाया गया था। हाँ, तब से लगभग तीस साल पहले वासुदेव बलवंत फड़के ने आदिम जनजातियों की मदद से सशस्त्र विद्रोह अवश्य किया था। दो दशक बाद पूना में प्लेग निवारण के बहाने किए गए कड़े उपायों और अत्याचारों की वजह से साधारण लोग अत्यंत पीड़ित हो गए थे। चाफेकर भाइयों ने स्पेशल प्लेग कमिश्नर रेंड और उसके साथी का 1897 में कत्ल कर दिया था। उनके बारे में जानकारी देने वाले द्रविड नाम के आदमी को भी मार डाला गया था। अंग्रेजों ने इस हिंसाकांड का संबंध लोकमान्य तिलक से जोड़ने का प्रयत्न किया था। लेकिन जब अंग्रेजों ने देखा कि इसमें उनको सफलता नहीं मिल पाएगी तो उन्होंने केसरी में प्रकाशित उनके लेखों का बहाना बनाकर उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला दिया और उन्हें अठारह महीने की सजा दे दी।

खुफिया विभाग के अंग्रेज अफसरों ने आतंकवादी आंदोलन के बारे में कई रिपोर्टें सरकार को पेश की थीं। जेम्स केंबल कर नाम के एक अफसर ने, जो कि बाद में क्रिमिनल इंटेलीजेंस विभाग का निदेशक बना था, 1907 और 1917 के बीच हुए हिंसात्मक आंदोलनों की एक बहुत महत्त्वपूर्ण समीक्षा लिखी है। इसी के आधार पर रौलेट कमेटी ने अपनी रिपोर्ट बनाई थी और आगे चलकर उनके सुझावों को समाविष्ट करते हुए रौलेट एक्ट बनाया गया। फरूकाहर नाम के एक लेखक ने आधुनिक भारत के धार्मिक आंदोलनों पर एक किताब लिखी है, जिसमें उसने प्रतिपादित किया है कि आतंकवादी आंदोलनों को हिंदूसमाज की धार्मिक पुनरुत्थान वाली विचारधारा से प्रेरणा मिली थी। इस विचारधारा की मार्फत हिंदुस्तान की प्राचीन परंपराओं, वेद-उपनिषद और सांस्कृतिक उपलब्धियों के बारे में एक प्रखर भक्ति-भावना नौजवानों के मनों में भरती करके उन्हें सर्वोच्च त्याग और बलिदान के लिए प्रवृत्त किया। शक्ति की उपासना भी उसका एक पहलू था। जालिम अंग्रेज अफसरों को कत्ल करना, विदेशी प्रशासकों के मन में दहशत उत्पन्न करना और उन्हें हिंदुस्तान छोड़कर अपने देश वापस जाने के लिए बाध्य करना आतंकवादी संस्थाओं का मकसद था। जाहिर है, इन संस्थाओं की विचारप्रणाली और कार्यप्रणाली के प्रति खुफिया विभाग के अंग्रेज अधिकारियों के मन में सहानुभूति रहना असंभव था। लेकिन फरूकाहर जैसे समीक्षकों ने इनकी निःस्वार्थ भावना और हिम्मत की खुलकर प्रशंसा की है।                     

 कार ने कहा है : कर्जन ने हिंदुस्तान को असत्यवचनी लोगों का मुल्क कहकर जिस तरह हिंदुस्तानियों को अपमानित किया और साथ ही राष्ट्रीय आंदोलन को खंडित और विघटित करने के लिए उसने जो बंगाल का विभाजन किया उसके चलते आतंकवादी आंदोलन को ईंधन मिला।

इस माने में आधुनिक आतंकवादी आंदोलन का प्रारंभ बंगाल में हुआ और वह बंग-विभाजन के परिप्रेक्ष्य में हुआ। इसके पहले भी बंगाली नौजवानों की राष्ट्रीय भावना और उनके मनोबल ऊँचा उठाने का काम कई व्यक्तियों और कवियों द्वारा कुशलतापूर्वक हुआ था। इनमें बंकिमचंद्र के  ‘आनंदमठ नाम के उपन्यास का उल्लेख करना आवश्यक है। अंग्रेजी प्रशासन के प्रारंभकाल में 18वीं शताब्दी के अंत में संन्यासियों द्वारा जो विद्रोह किया गया था, उसी पर यह उपन्यास आधारित है। इस उपन्यास से न सिर्फ वंदेमातरम् राष्ट्रगीत देश को मिला, बल्कि बंगाल के सैकड़ों-हजारों नौजवानों को देशसेवा और बलिदान की प्ररेणा भी मिली।

कार ने अपनी समीक्षा में कहा है कि- महाराष्ट्र में शिवाजी उत्सव का जो अभियान लोकमान्य तिलक द्वारा जो शुरू किया गया था वह बंगाल तक पहुंचाने का काम 1908 में लोकमान्य तिलक और दादा साहब खापर्डे आदि लोगों ने किया। बंगाल के कुछ प्राचीन राजाओं के नाम से इसी किस्म का आंदोलन चलाए जाने की योजनाएं भी बनाई गई थीं।

आतंकवादी आंदोलन के पीछे मुस्लिम विरोध और हिंदुत्व को पुनर्जीवित करने की भावना थी। बंगाल पर सदियों तक मुसलमान सुल्तानों और मुगलों का राज रहा और उसमें सारे प्रशासकीय अधिकार, सारी सत्ता मुस्लिम अधिकारियों के हाथों चली गई थीं। सत्ता से वंचित हिंदूभद्रलोगों को अंग्रेजों का आगमन मुक्ति के क्षण की तरह प्रतीत हुआ और प्रारंभकाल में अंग्रेजों को इन भद्रलोगों का अच्छा सहयोग मिला। इन भद्रलोगों के बारे में हमने पहले पढ़ा है कि किस तरह जो छोटे-छोटे प्रशासकीय पद मुसलमानों द्वारा खाली किए गए थे, उन सभी रिक्त पदों पर इन्हीं भद्रलोगों को अंग्रेजों द्वारा पदासीन किया गया था। मुसलमानों में   अशरु (उच्चवर्ग) लोगों का जो समुदाय पहले सत्तासीन था, वह पूर्णतया बर्बाद हो गया। अंग्रेजी हुकूमत के तहत जो सुविधाएं भद्रलोगों को उपलब्ध हुईं वे बाद में उन्हें नाकाफी लगने लगीं। उनकी राजनीतिक आकांक्षाएं अब बहुत विस्तृत हो गयी थीं और उनको पूरा करने के लिए अंग्रेजी प्रशासन तैयार नहीं था। हिंदू और मुसलमानों के बारे में अंग्रेजों की जो पहले नीति थी, उसमें भी अब धीरे-धीरे परिवर्तन आने लगा। अब उनका झुकाव फिर मुसलमानों की ओर अधिक होने लगा। इन नयी परिस्थितियों का परिणाम यह हुआ कि नौजवान हिंदुओं के मन में अंग्रेजी हुकूमत के प्रति असंतोष उत्पन्न होने लगा। विश्वविद्यालय विधेयक और बंग-विभाजन से उसका विस्फोट होकर आतंकवादी आंदोलन को बढ़ावा मिला।

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