— मुख्तार अनीस —
साने गुरुजी के प्रारंभिक संस्कार कट्टर ब्राह्मणवादी थे। किंतु जेल जीवन एवं महात्मा गांधी के सत्संग के कारण वे उदार बन गये। उन्होंने धार्मिक ग्रंथों से हिंदू मत के कट्टर पंथ को समझा कि सामान्य जन से संपर्क बढ़ाया जाए तथा अछूतोद्धार किया जाए। इसी कारण उन्होंने भारतीय संस्कृति नामक पुस्तक लिखी। महात्मा गांधी सच्चे भारत की तस्वीर गांव में देखते थे। इसी दौरान कांग्रेस का स्वर्ण जयंती अधिवेशन खानदेश के फैजपुर गांव में हुआ। साने गुरुजी की प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं थी। कांग्रेस कार्यकर्ताओं के सहयोग से साने गुरुजी ने सम्मेलन की शानदार तैयारी की। इस प्रकार उऩका नाम देश के नेताओं के मध्य चर्चा का विषय बन गया। 6 अप्रैल 1938 को जलियांवाला बाग के शहीदों की स्मृति में उन्होंने कांग्रेस नामक पत्रिका निकालनी प्रारंभ कर दी।
युद्ध विरोधी प्रचार और जेल यात्रा
1939 में दूसरा विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया। कांग्रेस ने अंग्रेजों से असहयोग करने का ऐलान किया। ‘न एक पाई-न एक भाई’ का नारा गूंजने लगा। साने गुरुजी ने युद्ध विरोधी प्रचार प्रारंभ कर दिया। उन्होंने एक सुंदर कविता लिखी-
“आता उठवू सारे रान
आता पेटवू सारे रान
शेतकन्यां राज्यासाठी
कामकन्या राज्यासाठी
लावूं पणात्का प्राण”
“श्रमिकों एवं किसानों के राज्य की स्थापना के लिए हम अपने प्राणों की बलि दे देंगे।” साने गुरुजी के शिष्यों ने उनकी रचनाओं का प्रचार प्रारंभ कर दिया। कविताओं के संग्रह का नाम पत्री दिया गया अर्थात वह पत्ती जो पेड़ों से सूखकर गिर जाती है तथा पूजा के काम आती है।
नासिक के युवजनों ने चादंवड में एक युवा सम्मेलन करने की घोषणा की। साने गुरुजी उसमें प्रमुख वक्ता थे। उन्होंने भाषण दिया। उन्हें जनवरी 1941 में गिरफ्तार किया गया तथा नासिक में दो वर्ष की कठोर कारावास की सजा सुनायी गयी तथा धुलिया जेल में रखा गया। राजबंदियों में वहां उनके बहुत से मित्र थे। इनमें से प्रमुख 17-18 वर्ष की अल्प आयु के मधु लिमये भी थे। गुरुजी धुलिया जेल से पूर्व नासिक जेल में थे जहां एसएम जोशी, केशव गोरे, बंडू, माधव लिमये जैसे समाजवादी कैदी थे। धुलिया जेल में मधु जी एवं साने गुरुजी की भेंट हुई। मधु लिमये अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि धुलिया जेल में साने गुरुजी के आ जाने के बाद ‘वहां की दुनिया बदल गई थी।’ गुरुजी ने मधु लिमये को अपना सहयोगी मान लिया था। वे उन पर आखिरी क्षण तक प्रेम की वर्षा करते रहे।
साने गुरुजी धुलिया जेल में जाने से पूर्व तक मात्र एक राष्ट्रवादी थे। कम्युनिस्ट एवं सोशलिस्ट उन्हें अपने प्रभाव क्षेत्र में लाना चाहते थे। इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा करते हुए मधु लिमये अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, “साने गुरुजी से कम्युनिस्ट पार्टी पर बहुत चर्चा होती थी। कम्युलिस्ट पार्टी की भूमिका पर मैं कठोर टीका-टिप्पणी करता था। कम्युनिस्ट किस तरह दूसरों की बुद्धि पर निर्भर रहते हैं, यह मैंने उन्हें उदाहरणों के साथ बताया। वर्ष 1930-32 के संघर्ष में उनके द्वारा अपनायी गयी राष्ट्रविरोधी भूमिका, संयुक्त मोर्चा के समय कांग्रेस समाजवादी पक्ष को खोखला बनाने हेतु उनकी ओर से किये गये प्रयास, इस बात पर मैं विशेष रोशनी डालता था। युद्ध की शुरुआत में ब्रिटिश और फ्रांसीसी कम्युनिस्ट पार्टियों ने युद्ध समर्थन की घोषणा कैसे की और मास्को की ओर से इस बात पर विरोधी होने की गुंजाइश पर पंद्रह दिन में उस घोषणा को कैसे बदल गया है, यह भी मैंने बताया।…
गुरुजी कम्युनिस्टों के बड़े दोषों से वाकिफ थे। लेकिन गुरुजी तर्क और बुद्धि के जरिये नहीं बल्कि व्यक्तिगत अनुभूतियों के आधार पर अपनी राय बनाते थे। मधु लिमये की अल्प आयु थी। फिर भी उनकी बातों का साने गुरुजी पर गहरा प्रभाव पड़ा। मधु जी आगे लिखते हैं, सितंबर में जब मैं पुणे गया तब मैंने अपने नेताओं से कहा कि अब साने गुरुजी हमारे साथ काम करनेवाले हैं। तब नाना साहब गोरे को विश्वास नहीं हुआ। उन्हें विश्वास हो गया था कि गुरुजी कम्युनिस्टों के प्रभाव में पूरी तरह आ गए हैं। नाना जी गोरे ने मुझसे कहा कि तुम्हारे प्रेम से यदि साने गुरुजी की सोच में सचमुच परिवर्तन आ गया है तो तुमने बहुत बड़ा काम किया है क्यों कि गुरुजी स्वयं एक प्रचंड शक्ति हैं।’’
भारत छोड़ो आंदोलन
साने गुरुजी अभी धुले जेल में ही थे कि महात्मा गांधी ने 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन प्रारंभ कर दिया। जेल अधीक्षक ब्लेक बहुत उदार एवं राष्ट्रवादी था। इसलिए उसने उन्हें 10 अगस्त की प्रातः ही छोड़ दिया। पुलिस जब आयी तो वे जा चुके थे। वे पुणे आये और वहां उन्होंने भूमिगत कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं से मंत्रणा प्रारंभ कर दी। 15 अगस्त 1942 को महादेव देसाई की दिल का दौरा पड़ने से आगा खां महल में मृत्यु हो गई। साने गुरुजी ने एक मार्मिक श्रद्धांजलि लिखी जिसकी सैकड़ों प्रतियां वितरित की गयीं। वे मुंबई गये जहाँ उन्होंने भूमिगत कांग्रेस सोशलिस्ट नेताओं से भेंट की। एसएम जोशी, एनजी गोरे, शिरू भाऊ लिमये आदि मुंबई की एक पुरानी हवेली में- जिसमें चूहे बहुत थे इसी कारण उसको ‘मूषक महल’ का नाम दिया गया था- रहते थे। साने गुरुजी यहां कार्यकर्ताओं के लिए भोजन आदि का प्रबंध करते थे। 1943 में पुलिस को मूषक महल का पता चल गया। 18 अप्रैल 1943 को साने गुरुजी सहित अनेक सोशलिस्ट नेताओं को मूषक महल से गिरफ्तार किया गया।
इन बंदियों को येरवडा केंद्रीय कारागार में रखा गया। उन्हें जब नासिक जेल में स्थानांतरित किया गया तो वहां उन्होंने ‘इस्लामी संस्कृति’ और ‘चीनी संस्कृति’ नामक दो पुस्तकों की रचना की। साने गुरुजी का कथन था कि ‘भगवद्गीता’ के कारण मैं विनोबा जी के समीप आया तथा ‘महात्मा गांधी दर्शन’ के कारण मैं आचार्य जावडेकर के समीप आया।’
राष्ट्र सेवादल की स्थापना
साने गुरुजी 21 महीने बाद जेल से रिहा किये गये। उन्होंने तब राष्ट्र सेवादल का कार्य प्रारंभ किया जो समाजवादी विचारधारा पर आधारित युवा सोशलिस्टों का संगठन था। साने गुरुजी ने समाजवादी विचारधारा के प्रचार एवं प्रसार के लिए समस्त महाराष्ट्र का दौरा प्रारंभ किया। राष्ट्र सेवा दल के माध्यम से उन्होंने युवजनों का एक विशाल संगठन खड़ा किया।
1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह के दौरान कांग्रेस के सभी नेता जेल चले गये। इसका लाभ उठाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे सांप्रदायिक संगठन पनपने लगे जो राष्ट्रीय भावना के विपरीत थे। ये लोग उद्दंड स्वभाव के थे तथा पुणे नगर में यह संगठन तीव्रता से फैल रहा था। इसका केंद्र नागपुर था। ऐसी स्थिति में शिरू भाऊ लिमये, नाना साहब गोरे, वीएस हर्डीकर आदि ने, जो जेल के बाहर थे, मई 1941 में पुणे के डेक्कन जिमखाना में एक छोटी सभा की और राष्ट्र सेवा दल की स्थापना की गयी। एसएम जोशी जब जेल से रिहा हुए तो उन्हें इसका प्रमुख बनाया गया। साने गुरुजी इसकी मुख्य प्रेरक शक्ति बने। यह संगठन सांप्रदायिक सौहार्द का प्रचार करता तथा उदार राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाता। साने गुरुजी को 21 माह बाद जेल से रिहा किया गया।
हरिजन मंदिर प्रवेश
साने गुरुजी को पंढरपुर के बिठोवा मंदिर में दलितों के प्रवेश पर प्रतिबंध असह्य हो उठा। उन्होंने इसके विरुद्ध अनशन करने की घोषणा की। सेनापति बापट ने उन्हें समझाया कि इस तरह एकाएक अनशन करना उचित नहीं होगा। लोगों को समझाना तथा इसके लिए जनमत बनाना आवश्यक है। फलतः छह माह के लिए अनशन स्थगित कर दिया गया। सेनापति बापट एवं मराठी साहित्यकार बसंत बापट ने भी उऩके साथ दौरा प्रारंभ किया। जनमत बनाया गया और बिठोवा मंदिर में हरिजनों का प्रवेश निर्बाध रूप से होने लगा। महात्मा गांधी को जब इसकी सूचना मिली तो उनकी प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने प्रार्थना सभा में घोषणा की ‘मुझे आज यहां शुभ समाचार मिला है। प्राचीन एवं प्रसिद्ध पंढरपुर का विट्ठल मंदिर हरिजनों के लिए खोल दिया गया है। इस शुभ घटना का श्रेय साने गुरुजी को जाता है जिन्होंने इसके लिए आमरण किया।’
महात्मा गांधी की हत्या
15 अगस्त, 1947 को देश स्वतंत्र हुआ किंतु देश का विभाजन हो गया था। इस घटना से साने गुरुजी अत्यंत दुखी थे। 30 जनवरी 1948 को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या से साने गुरुजी को भारी आघात लगा। उन्हें जब मालूम हुआ कि हत्यारा नाथूराम गोडसे महाराष्ट्र का रहनेवाला था, वह भी पुणे नगर का, तो उन्होंने आत्मशुद्धि के लिए 21 दिन का उपवास रखा।
साने गुरुजी राष्ट्र सेवा दल को समाजवादियों को संस्कारित एवं प्रशिक्षित करने का औजार मानते थे। साने गुरुजी अपने सार्वजनिक कार्यक्रमों के कारण अत्यंत व्यस्त रहते थे। उन्हें विश्राम की भूख नहीं थी। समाज की प्रगति एवं उसके विकास के लिए उनकी चिंता बनी रहती थी। महात्मा गांधी की हत्या के बाद उऩमें ऊर्जा समाप्त हो गयी थी। उन्होंने 9 जून 1950 शुक्रवार को नींद की कई गोलियां खा लीं। जब कई घंटे तक वे नहीं उठे तो शयन कक्ष में जाकर कार्यकर्ताओं ने उन्हें जगाया। उऩको डॉक्टर को दिखाया गया। अस्पताल ले जाया गया किंतु कोई लाभ नहीं हुआ। इस महामानव की मृत्यु 11 जून 1950 को हो गई। इस प्रकार लोकतांत्रिक समाजवाद का यह प्रहरी सदा सर्वदा के लिए इस संसार से विमुख होकर चिरनिद्रा में लीन हो गया। साने गुरुजी को मात्र पचास वर्ष की अल्प आयु मिली। यदि वे अधिक समय तक जीवित रहते तो देश का बहुत कल्याण होता। देश की स्वतंत्रता के लिए साने गुरुजी ने सात वर्ष से कुछ समय अधिक जेल में बिताये।
(समाप्त )