स्वतंत्रता आंदोलन के प्रारंभिक चरण में त्याग, तपस्या, और हिम्मत जैसे गुणों में लोकमान्य तिलक से बढ़कर कोई नेता नहीं हुआ। उन्होंने जितनी दफा और जितनी लंबी जेलें काटीं, उस जमाने में और किसी दूसरे राष्ट्रीय नेता ने नहीं काटीं। अतः गांधीजी के सत्याग्रह के रास्ते का मर्म यदि हमें समझना है तो तिलक के तौर-तरीकों से उसकी तुलना करना फायदेमंद होगा।
तिलक जी पर राजद्रोह को दो मुकदमे चलाए गए थे। राजद्रोह से संबंधित 124 (क) धारा जान-बूझकर तोड़ने की उनकी मंशा नहीं थी। इसलिए इन मुकदमों में अपनी सफाई पेश करना, सबूत प्रस्तुत करना, प्रतिपक्ष के गवाहों से जिरह आदि विविध प्रक्रियाओं में बचाव के जितने तरीके हो सकते थे, तिलक जी ने उन सबको बिना संकोच अपनाया। अपील करने वे साम्राज्य के सर्वोच्च न्यायालय प्रिवी कौंसिल (जो ब्रिटेन में थी) तक गए।
कानून की चार सीमाओं के अंदर रहकर जन-जागरण और जन-आंदोलन करने की तिलक जी की नीति थी। ‘कानून का जान-बूझकर उल्लंघन न मैंने किया है, न आगे करने का इरादा है।’ यह उन्होंने अपनी पत्रिका ‘केसरी’ में 1899 में लिखा था। उनका ‘वैधता’ पर इतना दृढ़ विश्वास था कि दंण्ड संहिता की धारा 124 (क) की सही व्याख्या करने के बजाए जज ने अपने फैसले से कानून के अंदर ही संशोधन किया है, ऐसी तिलक जी की राय थी। कानून की मर्यादाओं में रहकर लिखने-बोलने पर तिलक जी को आपत्ति नहीं थी, लेकिन ये मर्यादाएं कानून द्वारा तय की जाएं, न्यायिक फैसलों द्वारा नहीं, यह उनकी मांग थी।
वैधता की तिलक जी का व्याख्या और उससे मर्यादित आंदोलन का उनका रास्ता आसान नहीं था। उसमें कई खतरे थे। समाचारपत्रों और पत्रिकाओं पर सरकार द्वारा जमानत और जुर्माने के रूप में आघात हो सकता था। कभी-कभी नेताओं को जेल भी जाना पड़ सकता था। धीरज के साथ इसको बर्दाश्त करने के लिए तिलक जी तैयार रहते थे। उनकी लोकप्रियता का यही रहस्य था।
लेकिन गांधीजी की विचारधारा बिल्कुल अलग थी। जान-बूझकर अन्यायपूर्ण कानूनों को तोड़ना, सामुदायिक सत्याग्रह के दौरान हजारों लोगों को इसके लिए प्रवृत्त करना, अपने ‘अपराध’ को स्वेच्छा से स्वीकार करना, कानून की अदालती प्रक्रिया में हिस्सा न लेना, खुशी से सजा काटने के लिए राजी रहना, अपील आदि नहीं करना, ये सब गांधीजी के सत्याग्रह शास्त्र के नियम थे- ये ही इनके रास्ते की विशेषताएं थीं।
किसी भी सरकारी शर्त को कबूल करना और उस शर्त पर रिहा होना गांधीजी को नागवार था। इसे वे न सिर्फ आत्मसम्मान के विरुद्ध समझते थे, बल्कि उनकी मान्यता में यह सत्याग्रह के सिद्धांत के विपरीत था। लेकिन 1898 में तिलकजी ने अस्वास्थ्य और शारीरिक क्षीणता के कारण रिहाई की मांग की थी और कुछ शर्तों को कबूल करने पर उनको रिहा भी किया गया था। उसमें एक शर्त यह थी कि दुबारा राजद्रोह के आरोप में यदि उनको सजा फरमाई जाएगी तो उसमें 1898 की शेष बची सजा को भी समाविष्ट कर लिया जाएगा। संभवतः आगे चलकर 1908 में उन्हें 6 वर्षों की लंबी सजा इसीलिए दी गई थी, इन शर्तों में ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर कोई रोक नहीं थी और न ही कोई अपमानजनक बात थी। अतः इन शर्तों को स्वीकार करना राजनैतिक दांव-पेच की दृष्टि से अनुचित नहीं है, ऐसी तिलक जी की धारणा थी। साथ ही साथ हमें यह भी याद रखना चाहिए कि राजद्रोह की अपनी पहली जेलयात्रा के बाद तिलक जी ने स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि सरकारी रोष के कारण क्लेश भोगना पड़ता है, यह मैं जानता हूं। इसके कारण मैं अपने कर्तव्य को पूरा करने से कभी बाज नहीं आऊंगा। यह उनकी ‘वैधता’की व्याख्या में ही सन्निहित था।
1908-14 के बीच तिलकजी बर्मा में मंडले की जेल में बंद थे। उस समय भी उन्होंने अपने को जमानत पर रिहा कर अंडमान-निकोबार में रखने की विनती सरकार से की थी, जो सरकार ने ठुकरा दी थी। यह ध्यान में रखना चाहिए कि गांधीजी के सत्याग्रह के सिद्धांत प्रकाश में आने और उन पर व्यापक कार्यान्वयन होने के पूर्व राजबंदियों द्वारा इस तरह का व्यवहार किया जाना सारी दुनिया में एक साधारण सी बात थी, उसे कोई भी आत्मसम्मान के विरुद्ध नहीं मानता था।
गांधीजी के खिलाफ कई बार झूठे व्यक्तिगत आरोप लगाए गए किंतु उन्होंने किसी के ऊपर मुकदमा नहीं किया। वैलेंटाइन चिरोल ने तिलक जी के ऊपर आरोप लगाया था कि उऩका आतंकवादियों के क्रियाकलापों से संबंध था। इस पर तिलकजी ने उनके खिलाफ इंग्लैण्ड में जाकर केस दायर कर दिया। मगर जब गांधीजी को अंग्रेज सरकार ने 1942 में हुई हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराया था, उनके ऊपर जापानियों के एजेण्ट होने का आरोप लगाया था तो उस पर गांधीजी ने केस वगैरह करने की बात भी नहीं सोची।
लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि 1954-55 में गोवा की विदेशी पुर्तगाली हुकूमत को चुनौती देकर जब सत्याग्रह शुरू हुआ – जिसमें कई अन्य नेताओं ने और मैंने भी शिरकत की थी- तब गांधीजी की सीख को भुला दिया गया। चूंकि हमें अलग-अलग जगह बंद रखा गया था (मुझे तो एकांतवास में रखा गया था) हम आपस में विचार विनिमय नहीं कर सकते थे। अलावा मेरे अन्य लोगों ने वकील करके अपना बचाव किया। इसका कोई असर नहीं हुआ, यह बात अलग है। परंतु जिस पुर्तगाली हुकूमत को ही हम नहीं मानते थे, उसकी बोगस कानूनी प्रक्रिया में हिस्सेदारी क्यों करनी चाहिए– मेरा यही कहना था। हमें दस साल, और जुर्माना न देने पर दो साल और, इस प्रकार बारह साल की सजा हुई थी। आगे भी अपील की बात आयी जिसका मैंने विरोध किया और अपील करने से साफ मना कर दिया। मेरी मान्यता थी कि यह गांधीजी के सत्याग्रह के विरुद्ध है। परंतु अन्य नेताओं ने मेरी बात सुनी नहीं। उऩका नतीजा फिर उन्हें भुगतना पड़ा। पुर्तगाली ट्रिब्यूनल ने उन अपील करनेवालों की सजा की पुष्टि कर दी। साथ ही उनको उहालना भी दिया गया कि जब आप हमारी सत्ता ही नहीं मानते तो फिर अपील क्यों कर रहे हो। स्पष्ट था कि आदर्शवादी और व्यावहारिक दोनों नजरियों से उनका यह कार्य गलत था। गांधीयुग के बाद सत्याग्रह का सिद्धांत एक मखौल बनकर रह गया है।