— जगदीश पटेल, रोहित प्रजापति, कृष्णकांत —
गुजरात में औद्योगिक दुर्घटनाएं और उद्योगों में आग लगने की घटनाएं इस समय आम हो गयी हैं। आए दिन इस तरह के समाचार आते रहते हैं। दरअसल औद्योगिक संरक्षा एवं स्वास्थ्य निदेशालय, जिसे पहले कारखाना निरीक्षणालय के नाम से जाना जाता था, को निरीक्षकों की संख्या, कार्यस्थल पर नियमों को लागू कराने के लिए उनकी निगरानी शक्ति, प्रशिक्षण और प्रलेखन की दृष्टि से निष्क्रिय बना दिया गया है। सामान्यतः यह राजनीतिक इच्छाशक्ति और विशेष रूप से सरकार की मर्जी का परिणाम है।
सरकार समाज को भी निष्क्रिय बनाने में सफल हो गयी है। उद्योगों के भीतर प्रदूषण, स्वास्थ्य एवं संरक्षा की स्थिति की जाँच करने के लिए कोई भी स्वतंत्र विश्वसनीय जांच एजेंसी नहीं है। कार्यस्थल के भीतर और बाहर स्वास्थ्य, संरक्षा एवं पर्यावरण की स्थिति को ठीक रखना न सरकार की प्राथमिकता है, न ही उद्योगों की।
औद्योगिक परिसर के बाहर प्रदूषण स्तर की निगरानी के लिए गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड है, दूसरी तरफ औद्योगिक संरक्षा एवं स्वास्थ्य निदेशालय की जिम्मेदारी है कि वह कार्यस्थल के भीतर प्रदूषण की निगरानी करे, कर्मचारियों के अच्छे स्वास्थ्य के लिए उनकी सहायता करे तथा दुर्घटनाओं को न्यूनतम करने का प्रयास करे। ऐसा लगता है, ये दोनों संगठन अपने मालिकों की ही सेवा कर रहे हैं, समाज की नहीं, जबकि लोकतंत्र में तो समाज को ही मालिक होना चाहिए।
आखिर औद्योगिक दुर्घटनाओं में इतनी वृद्धि क्यों हो रही है? प्रत्येक उद्योग के कुछ अपने अलग कारण होंगे, लेकिन व्यापक तौर पर देखा जाए तो यह सत्ताधारी लोगों द्वारा बनाए गए अनुकूल वातावरण का ही नतीजा है।
वे अधिक से अधिक विदेशी निवेशकों को आकर्षित करना चाहते हैं, साथ ही व्यापार को आसान बनाने (ईज ऑफ डूइंग बिजनेस) के नाम पर उन्हें इस बात के लिए भी आश्वस्त करते हैं कि कोई भी निरीक्षक उनके यहाँ न तो घूस की मांग करने जाएगा, न ही श्रमिक कानूनों को लागू करने की निगरानी करेगा। वे व्यापार को आसान बनाने की प्रतिस्पर्धा में दूसरे देशों से आगे बढ़ने का पूरा श्रेय लेना चाहते हैं।
उद्योगों के अनुकूल नीतियां बनाई जाती हैं और किसी भी निरीक्षक को इस बात की अनुमति नहीं होती है कि वह अपने मन से कारखाने का निरीक्षण करे। इसके बजाय स्वप्रमाणन योजना के तहत उद्योगों के अपने निरीक्षक होते हैं। यही नहीं, वे इस बात के लिए भी आश्वस्त करते हैं कि दुर्घटना के मामले में कोई अभियोग नहीं लगेगा।
हमारी न्यायपालिका पर बहुत बोझ है, इसलिए इससे दोनों को मदद मिलती है। गुजरात सरकार ने एक अनूठी नीति बनाई है। इसके तहत सांघातिक दुर्घटना के मामले में यदि पीड़ित को अनुग्रह राशि का भुगतान कर दिया जाता है, तो नियोजक पर कोई अभियोग नहीं लगेगा। यदि कोई मामला दर्ज भी किया गया है तो उसे वापस ले लिया जाएगा। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने अपनी रिपोर्ट में इसकी आलोचना भी की है।
यहां तक कि जब कभी वे अभियोग लगाते हैं, इस बात का ध्यान रखते हैं कि अभियोग ऐसी धारा में लगाएं, जिनमें आर्थिक दंड न्यूनतम हो। भोपाल दुर्घटना के बाद कारखाना अधिनियम में संशोधन किया गया। धारा 96 ए जोड़ा गया : धारा41बी, धारा41सी और धारा41एच में निहित प्रावधानों का उल्लंघन करने पर दंड का प्रावधान है।
गुजरात सरकार ने केंद्र सरकार के श्रम मंत्रालय
(डीजीएसएएफएलआई) को वर्ष दर वर्ष यही रिपोर्ट भेजा है कि धारा 96ए के अंतर्गत कोई अभियोग नहीं लगाया गया है।
संक्षेप में यही कि कानून का कोई भय नहीं है और कुशासन के चलते पूरा वातावरण दुर्घटना के अनुकूल बन गया है।
बात यहीं खत्म नहीं होती है। इसके दूसरे आयाम भी हैं। किसी भी सरकार का प्राथमिक दायित्व यही है कि वह कानून का पालन कराए। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि सरकार ने खुद को समेट लिया है। हमारे यहाँ एक कानून है जिसे संविदा श्रमिक (निगरानी एवं उन्मूलन) अधिनियम,1972 के नाम से जाना जाता है। इस कानून के अनुसार किसी भी नियमित विनिर्माण कार्य के लिए संविदा कर्मियों को नियोजित नहीं किया जा सकता है, लेकिन सरकार की मंशा इस कानून को लागू कराने की एकदम नहीं है।
परिणाम यह हो रहा है कि नियमित कर्मचारियों की जगह संविदा कर्मचारी लेते जा रहे हैं। जोखिम भरे संयंत्रों में अनुभवहीन कर्मचारियों के कार्य करने से सभी की संरक्षा दांव पर लग रही है।
स्थायी कर्मचारी नहीं हैं तो यूनियन भी नहीं है। न तो उद्योग और न ही सरकार मजबूत यूनियन के पक्ष में है। नयी आर्थिक नीति लागू होने के बाद राजनीति ने नीतिगत रूप से ट्रेड यूनियनों को कमजोर किया है। इसकी वजह से अपने संयंत्रों पर कामगारों का जो थोड़ा बहुत नियंत्रण था, वह भी खत्म हो गया। अधिकतम उत्पादन एवं लाभ के चक्कर में नियमित अनुरक्षण के लिए संयंत्रों को बंद नहीं किया जाता।
महत्त्वपूर्ण कार्यों को ठेकेदारों के माध्यम से कराने के कारण निगरानी तंत्र ठीक से कार्य नहीं करता, जिससे स्थिति और खराब हो जाती है।
दुर्घटना के बाद इसके कारणों की विस्तृत जांच कौन करता है? पुलिस? नहीं। पुलिस की जिम्मेदारी सीमित होती है। वे आपराधिक कोण से जाँच करते हैं। जब वे पुष्टि कर देते हैं कि इसमें कोई आपराधिक कोण नहीं है तब जाँच विशेष एजेंसी निदेशक औद्योगिक संरक्षा एवं स्वास्थ्य द्वारा की जाती है। वे रिपोर्ट तैयार करते है तथा विभाग को सौंपते हैं। यह रिपोर्ट जनता के सामने नहीं आती है। जब रिपोर्ट मांगी जाती है तो बहुत ही मामूली जानकारी दे दी जाती है।
जांच रिपोर्ट बहुत खराब तरीके से तैयार की जाती है, तकनीकी विशेषज्ञता का अभाव होता है, फिर भी इसे छिपाकर रखा जाता है।
न तो उद्योगों की कोई जवाबदेही है और न औद्योगिक स्वास्थ्य एवं संरक्षा विभाग की। न तो कारखाना अधिनियम और न ही पर्यावरण संरक्षण अधिनियम ठीक से लागू है। और उद्योग के शीर्षस्थ पदाधिकारियों के खिलाफ तो आपराधिक प्रावधानों का प्रयोग कभी किया ही नहीं जाता है।
दुर्घटना के बाद कोई गंभीर कार्रवाई नहीं की जाती है। आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्येक पांच वर्ष पर सभी घटनाओं की पुनरीक्षा की जाए, उनका मूल्यांकन किया जाए और उन घटनाओं की पुनरावृत्ति न होने देने के लिए प्रणालीबद्ध सुधार किया जाए। केवल हादसों को कोसने से या मुआवजे की मांग करने से न तो समस्या का समाधान होगा न हादसे रुकेंगे।
(counterview से साभार)
अनुवाद : संजय गौतम