मत्स्यन्याय का आधुनिक स्वरूप है बुलडोजर न्याय

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— योगेन्द्र यादव —

अप्रणीतः तु मत्स्यन्यायं उद्भावयति।

बलीयान् अबलं हि ग्रसते दण्डधराभावे।। (अर्थशास्त्र)

त्स्यन्याय पर अर्थशास्त्र की इस उक्ति को समझना हो तो आप कुछ यूं कल्पना कीजिए-मान लीजिए कि आपका भाई दिल्ली के किसान मोर्चा में शामिल था। अब एक साल बाद आपके शहर में कुछ बलवा होता है। आपका और आपके भाई का उससे कुछ लेना-देना नहीं है, लेकिन शाम को पुलिस आपके घर आती है, नोटिस आपके भाई के नाम चिपका देती है, लेकिन मकान आपका तोड़ देती है।

आप पूछेंगे न कि भाई यह कैसा न्याय है?

इसी को अर्थशास्त्र में मत्स्यन्याय कहा गया है : बड़ी मछली छोटी मछली को खाएगी। यानी जिसकी लाठी उसी की भैंस। जंगल की मर्यादा से अपरिचित लोग कई बार इसे जंगल न्याय भी कह देते हैं। इसी न्याय का नवीनतम स्वरूप है बुलडोजर न्याय।

इसकी कार्यपद्धति को समझने के लिए आप 12 जून को इलाहाबाद में जावेद मोहम्मद के घर के विध्वंस की कहानी समझिए। इलाहाबाद के मानवाधिकार संगठनों और कार्यकर्ताओं में एक जाना-पहचाना चेहरा जावेद मोहम्मद वैल्फेयर पार्टी ऑफ इंडिया से जुड़े हैं। यह पार्टी और उससे जुड़ा संगठन जमात-ए-इस्लामी मुख्यतः मुसलमानों के बीच काम करते हैं। इन संगठनों पर कभी किसी हिंसा से जुड़ा होने का आरोप भी नहीं रहा। वह प्रतिष्ठित नागरिक हैं, तमाम आला अफसरों के साथ बैठकों और शहर की तमाम शांति समितियों का हिस्सा रहते हैं। सन् 2020 में वह नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हुए आंदोलन में शामिल रहे थे। उनकी बिटिया आफरीन फातिमा विद्यार्थी संगठनों में सक्रिय रही है।

जावेद पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच हुई मुठभेड़ के वक्त मौके पर मौजूद ही नहीं थे। उस दिन सुबह से शहर में तनाव की आशंका को देखते हुए उन्होंने शुक्रवार सुबह 11 बजकर 12 मिनट पर (गड़बड़ होने से 3 घंटे पहले) अपनी फेसबुक पर यह लिखा था-किसी भी मसले पर यदि सरकार से बात कहनी हो तो बेहतरीन तरीका होता है अपनी बात या माँग को ज्ञापन के जरिए अधिकारियों से समय लेकर दिया जाए। यह शहर हमेशा शांतिप्रिय रहा है, हालात के मद्देनजर हमें खामोशी से जुम्मा नमाज पढ़कर अल्लाह से दुआ करनी चाहिए। अमन-ओ-अमाल के लिए सभी को कानूनी दायरे में रहकर अपनी बात कहने का अधिकार है, मैमोरंडम बनाएं, हम सब मिलकर जिला अधिकारी के माध्यम से राज्य सरकार या केंद्र सरकार, महामहिम राष्ट्रपति महोदय को भिजवाएं। बेवजह सड़क पर बिल्कुल इकट्ठा न हों, जिससे पूरी मिल्लत को नुकसान उठाना पड़े। जुम्मा पढ़ें, अपने घर जाकर दुआ करिए कि अमन-चैन, शांति-मोहब्बत कायम रहे। मेहरबानी करके पोस्ट शेयर जरूर करें। क्या आपको यह एक दंगाई की भाषा लगती है?

जुम्मे की नमाज के बाद प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतर आए, पुलिस से मुठभेड़ हुई और शाम को पुलिस ने जावेद मोहम्मद को इस बलवे का मुख्य आरोपी बताया। उसी दिन रात को उन्हें हिरासत में ले लिया गया। बाद में पुलिस घर आकर उनकी पत्नी और छोटी बेटी को भी थाने ले गयी। शनिवार शाम को जब कोर्ट-कचहरी बंद हो जाते हैं, तब पुलिस ने उनके घर के बाहर नोटिस चिपका दिया। नोटिस में कहा गया कि यह अवैध निर्माण है। जल्दबाजी में बनाए नोटिस में यह कहानी भी गढ़ दी गयी कि दरअसल घर के अवैध होने के बारे में जावेद मोहम्मद को एक महीना पहले ही नोटिस दिया जा चुका था, जिस पर वह सुनवाई में उपस्थित नहीं हुए। उन्हें फरमान दिया गया कि इसे अगले दिन यानी रविवार सुबह 11 बजे तक खाली कर दिया जाए, ताकि इसे गिरा दिया जाए। यही हुआ।

अजीब बात यह है कि मकान उनकी पत्नी के नाम था, जिन्हें अपने मायके से मिला था। परिवार के पास सरकारी रसीदें हैं, जिनमें मालकिन का नाम स्पष्ट लिखा है। प्रॉपर्टी टैक्स और अन्य शुल्क समय पर पूरी तरह अदा किए गए हैं। अगर मकान अवैध था तो यह सब दस्तावेज कैसे बने? आस-पड़ोस के सभी मकानों को छोड़कर सिर्फ उसी मकान को क्यों गिराया गया?

यह जगजाहिर है कि भाजपा सरकार ने तय किया है कि मुसलमानों को सबक सिखाने के लिए उनके नेतृत्व को सार्वजनिक रूप से ठिकाने लगाया जाए। जो सिर उठाए, उसे कुचल दिया जाए। बुलडोजर न्याय का यह सिलसिला उत्तरप्रदेश से शुरू हुआ, फिर मध्यप्रदेश में खरगोन, दिल्ली में जहांगीरपुरी, फिर उत्तर प्रदेश में कानपुर और अब प्रयागराज में दिख रहा है।

बर्बादी के इस मंजर को मीडिया रस लेकर पेश कर रहा है। अफसर इसे उपलब्धि की तरह पेश कर रहे हैं, नेता अपनी छाती ठोंक रहे हैं। कोर्ट-कचहरी आँख मूँदे बैठे हैं।

बुलडोजर न्याय को टीवी पर देखनेवाले मासूमियत से पूछते हैं- कानून के ठीक रास्ते से चलेंगे तो सालों लग जाएंगे, दंगाइयों को तत्काल सजा देने में क्या बुरा है? जावेद मोहम्मद का उदाहरण इसका जवाब देता है। एक तो बुलडोजर न्याय में इसकी कोई गारंटी नहीं है कि दंगाई ही पकड़ा जाए। अगर पुलिस प्रशासन मुद्दई और मुंसिफ दोनों हो जाएं तो कब किसको पकड़ा जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं। आरोप की जाँच होने से पहले ही सजा दे दी जाएगी तो गलती को सुधारने की कोई गुंजाइश नहीं है।

एक बार बुलडोजर के मुँह खून लग गया फिर कब किसका नंबर आएगा, कोई नहीं कह सकता। आज टीवी पर बुलडोजर देखकर हम तालियाँ पीट रहे हैं। कल हमारे घर बुलडोजर पहुँच गया तो हमें कौन बचाएगा? इस अभियान का देश की एकता पर क्या असर पड़ेगा? आज सत्ता के मद में चूर लोग इस सवाल पर सोचने को तैयार नहीं।

इस मत्स्यन्याय से देश को बचाने की अब एक ही आशा है। अगर देश की न्याय व्यवस्था में आम जन का विश्वास बनाए रखना है तो सुप्रीम कोर्ट को तुरंत और स्वतः संज्ञान लेकर बुलडोजर की मदमस्ती को रोकना होगा। यह नियम बनाना होगा कि कोर्ट की अनुमति के बिना कोई भी ध्वंस नहीं होगा। नियम-कायदे को ताक पर रख आशियाना तोड़नेवाले अफसरों और आदेश देनेवाले नेताओं की व्यक्तिगत जिम्मेदारी तय कर उन्हें सजा दी जाए।

(नवोदय टाइम्स से साभार)

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