अभिव्यक्ति के अधिकार की बहस में यह याद रखना जरूरी है कि हमारे पुरखों ने अकारण ही अभिव्यक्ति के अधिकार को आजादी की सबसे बड़ी कसौटी नहीं माना था। आज से 110 बरस पहले प्रकाशित ‘गीतांजलि’ में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने प्रार्थना लिखी कि, ‘ हे परमपिता! हमारा देश स्वतंत्रता का स्वर्ग बने; समाज में सत्य, ज्ञान और तार्किकता की दीप्ति फैले और मन की निडरता और आत्मसम्मान से आलोकित जीवन हो (‘व्हेयर द माइंड इज विदाउट फीयर एंड द हेड इज हेल्ड हाई, व्हेयर द नॉलेज इज फ्री…व्हेयर द वर्ड्स कम आउट फ्रॉम द डेप्थ ऑफ ट्रुथ इनटु दैट हैवन ऑफ़ फ्रीडम, माय फादर, लेट माय कंट्री अवेक.’)
गांधीजी ने उसी दौर में स्वराज की परिभाषा करते हुए बताया था कि–
‘सच्चा स्वराज थोड़े लोगों के सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं, बल्कि जब सत्ता का दुरुपयोग होता हो तब सब लोगों द्वारा उसका प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करके हासिल किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, स्वराज जनता में इस बात का ज्ञान पैदा करके प्राप्त किया जा सकता है कि सत्ता पर कब्जा करने और उसका नियमन करने की क्षमता उसमें निहित है।’ (नवजीवन; 29 जनवरी ’25)
इसलिए अगर मौजूदा दौर में अभिव्यक्ति की आजादी पर आँच आ रही है तो यह आजादी का अपहरण है। दुनिया में आजादी की निगरानी करनेवाली कई संस्थाओं ने भारत की तस्वीर को चिंताजनक और समस्याग्रस्त बताया भी है। उदाहरण के लिए अपनी तटस्थता के लिए प्रसिद्ध ‘फ्रीडम हाउस’ ने पाया कि स्वतंत्रता के मापदंडों पर भारत 2017 में 65 देशों के समुदाय में 27वें स्थान पर था लेकिन 2021 में 60 देशों के बीच फिसलकर 33वें स्थान पर चला गया। इसमें 2020 में हुई भारत-चीन सीमा मुठभेड़, जम्मू-कश्मीर में लम्बे कर्फ्यू और‘खालिस्तान’ समर्थकों द्वारा घोषित 2020 जनमतसंग्रह का भी योगदान था।
इसी प्रकार यदि ‘इन्टरनेट बंदी’ को स्वतंत्रता में बाधा माना जाए तो जहाँ मनमोहन सिंह सरकार के अंतिम काल में 2012 में 3 बार और 2013 में 5 बार ‘इन्टरनेट बंदी’ लागू की गयी थी वहीं मोदी सरकार के राज में 2017, ‘’18, ‘19 और ’20 में क्रमश: 79, 134, 121 और 109 बार ऐसा हुआ। इस प्रकार दोनों में कोई तुलना ही नहीं की जा सकती। इस इन्टरनेट बंदी से 2012 और 2017 के बीच 200 अरब रुपये से जादा आर्थिक क्षति भी हुई। इन्टरनेट बंदी से जम्मू-कश्मीर, नगालैंड और मणिपुर के भारतीयों का बहुत नुकसान हुआ। 2011 में एक कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी के कार्टूनों की वेबसाइट बंद करायी गयी थी लेकिन 2021 में किसान आन्दोलन पर काबू पाने के लिए ट्विटर, फेसबुक आदि समेत 100 से अधिक वेबसाइट को बंद कराया गया।
लेकिन देश के अवकाशप्राप्त न्यायाधीशों, अफसरों, राजदूतों, सेना अधिकारियों और पुलिस अधिकारियों की राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के नाम भेजी गयी अनेकों चिट्ठियों के जरिये हमारी आजादी में फैल रही बीमारियों की जादा चिंताजनक तस्वीर सामने आयी है। इस अभियान का आयोजक ‘कांस्टीट्यूशनल कंडक्ट ग्रुप’ (संवैधानिक आचरण समिति) रहा है। इस सिलसिले में 2019 से शुरू किया जाना उपयोगी रहेगा। पहले 2019 में चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता और वोटर की चुनने के अधिकार की पवित्रता के बारे में चुनाव आयोग की सरकारपरस्ती को लेकर प्रशासन, पुलिस, न्यायपालिका, और विदेश सेवा के वरिष्ठ पदों से अवकाशप्राप्त 66 सरोकारी व्यक्तियों ने 24 फरवरी, 26 मार्च और 17 अप्रैल को एक के बाद एक लगातार तीन सार्वजनिक पत्र भेजकर हस्तक्षेप की अपील की। इसमें से 17 अप्रैल के ज्ञापन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केन्द्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी और उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के भड़काऊ भाषणों के सबूत दिए गए थे।
देश में कानून के राज, नागरिक समाज और नागरिकों के अधिकारों पर हो रही चोट के बारे में 2021 में ऐसे ही सरोकारी नागरिकों ने 16 जनवरी और 5 जून को राष्ट्रपति को पत्र भेजे। फिर एक अभूतपूर्व कदम के रूप में देश की जनता के नाम 29 नवम्बर, ’21 को समूचे देश में नागरिक समाज को राज्यसत्ता के दुश्मन के रूप में प्रस्तुत करने में निहित खतरों के बारे में एक खुली अपील जारी हुई। इस असाधारण अपील पर 102 लोगों ने हस्ताक्षर किये थे।
2021 के अंतिम दिनों में (31 दिसम्बर ’21 को) जारी अपील से सत्ता प्रतिष्ठान नाखुश लगा क्योंकि इसका विषय 17-19 दिसम्बर,’21 को हरिद्वार (उत्तराखंड) में आयोजित ‘धर्मसंसद’ द्वारा जारी मुस्लिम समुदाय के कत्ले-आम का ऐलान था। इन निर्दलीय अनुभवी और चिंतित वरिष्ठ नागरिकों ने ‘हिन्दू राष्ट्र’ की स्थापना के लिए हथियारबंद होने को उकसाने वाले इस सम्मेलन के निशाने पर मुस्लिम, दलित, ईसाई और सिख भारतीयों को चिह्नित करने पर गहरा आक्रोश व्यक्त किया। सभी दोषी व्यक्तियों के खिलाफ तत्काल कार्रवाई की माँग की गयी। इसके चार महीने बाद 108 अवकाश प्राप्त नागरिकों ने‘नफरत की राजनीति’ के खिलाफ पत्र जारी किया। इसमें भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों– उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, असम, गुजरात, कर्नाटक, और हरियाणा- का स्पष्ट नाम लिखा गया। इससे संविधान और मुस्लिम भारतीयों को होनेवाले नुकसानों पर चिंता प्रकट की गयी और प्रधानमंत्री की चुप्पी पर एतराज किया गया। यह चिट्ठी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को संयुक्त रूप से संबोधित थी।
अभिव्यक्ति की आजादी से खिलवाड़ के खतरे
अभिव्यक्ति की आजादी से खिलवाड़ का खतरा कोई लोकतंत्र नहीं उठा सकता। सबके सामने द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी और इटली का उदाहरण सामने है। भारत में तो लोकतंत्र की नींव बहुत कमजोर और दीवालें बहुत कच्ची हैं। यह समाज अपने गौरवशाली अतीत के बावजूद ‘चुप्पी की संस्कृति’ का क्षेत्र रहा है। इसमें जातिप्रथा, जेंडर भेद, शिक्षित-अशिक्षित की खाई, भाषा भेद, धर्म की दीवारों और अमीर-गरीब की अलग अलग दुनिया जैसे 6 कारक मिलकर अभिव्यक्ति को एक खतरा बनाते आए हैं। इससे सत्ताधीशों को अल्पकालीन लाभ लेकिन दीर्घकालीन नुकसान मिलेगा। आलोचना बंद हो जाएगी। लेकिन चापलूसी छा जाएगी। निंदक नहीं बचेंगे। हर तरफ‘राग-दरबारी’ सुनाई पड़ेगा।
अभिव्यक्ति की आजादी खत्म करने पर हम एक देश के रूप में मौन की अबूझ दुनिया में गुम हो जाएंगे। न्याय की माँग और समता की भूख दोनों कमजोर पड़ जाएगी। एक बेहतर जिंदगी, प्रगति पथ पर अग्रसर राष्ट्र और परस्पर निर्भरता से सजी दुनिया का सपना नहीं बचेगा।
दूसरे, बोलने के साहस से भारत जैसा गुलाम देश भय से अभय की तरफ बढ़ रहा है। हमारी कायरता के किस्सों से पैदा हीन भावना ख़तम हो रही है। स्त्री, वंचित भारत, दलित समुदाय, निर्धन श्रमशक्ति और न्याय के लिए बेचैन किसान बोलना भूल गए तो उनकी कौई कैसे सुनेगा? अभिव्यक्ति की आजादी खतम होने पर फिर से भय का ताना-बाना मजबूत हो जाएगा।
तीसरे, चुप रहने से होनेवाले लाभ का लोभ और बोलने से जुड़े खतरों के दुहरे दबाव में हम सत्य से मुँह मोड़ लेंगे। असत्य और अफवाहों की दलदली संस्कृति में फिर फँस जाएंगे। ‘सत्यमेव जयते’ सिर्फ सरकारी भवनों की दीवारों की शोभा बढ़ाएगा। सच को बगावत समझने के दिन लौट आएंगे। देश के सार्वजनिक जीवन में असत्य की कीमत बेहद बढ़ जाएगी।
इस हानि-लाभ के विमर्श को आगे बढ़ाने की बजाय अपना कर्तव्य पथ पहचानने का समय सामने है। क्योंकि अभिव्यक्ति की आजादी के प्रकाश को सुरक्षित रखना ही आज का युगधर्म है।