— आनंद कुमार —
यह घटना पटना की है. इसी २५ दिसम्बर को हुई है. लेकिन मौका ईसा मसीह के जन्म के उत्सव का नहीं था. बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी की स्मृति में एक सम्मान समारोह का आयोजन था. अटल जी भी २५ दिसम्बर को जन्मे थे. इस समारोह में सम्मान के लिए बिहार की एक प्रसिद्ध महिला कलाकार गायिका देवी भी निमंत्रित थीं. अतिथि कलाकार ने अपना अवसर आने पर पहले एक लोकगीत गाया. फिर एक भजन गाना शुरू किया: ‘रघुपति राघव राजाराम पतीतपावन सीताराम’. पहली पंक्ति को पूरे अपनत्व के साथ सुना गया. लेकिन दूसरी पंक्ति आधी भी नहीं गायी गयी कि ६०-७० युवाओं ने एतराज का शोर शुरू कर दिया – ‘अल्लाह नहीं! अल्लाह नहीं!!’. महिला कलाकार स्तब्ध रह गयीं. भजन का गाना बीच में ही रोक दिया. क्योंकि दूसरी लाइन है – ‘ईश्वर-अल्ल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान.’.इन युवाओं को शांत करने के लिए सम्म्मानित करने के लिए बुलाई गयी महिला कलाकार ने भजन से क्षुब्ध हुए युवाओं से मंच संचालक की सलाह पर क्षमा मांगी. बात नहीं संभली. तब देशभर में गाये जानेवाले इस लोकप्रिय भजन में ‘अल्लाह’ के उल्लेख से नाराज हो उठे युवाओं के गुस्से को शांत करने के लिए ’७४ के छात्र आंदोलनकारी और आजकल भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता तथा पूर्वमंत्री श्री अश्विनी चौबे ने माइक सम्भाला और ‘जय श्री राम’ का कई बार नारा लगवाया. अतिथि महिला कलाकार भी हट चुकी थीं.
दूसरे दिन, २६ दिसम्बर को सुबह कई समाचारपत्रों ने इसका विस्तृत विवरण प्रकाशित किया. ‘प्रभात खबर’ ने प्रथम पृष्ठ का प्रथम समाचार बनाया – ‘गांधी के भजन पर हंगामा. गायिका देवी मांगनी पड़ी माफ़ी.’. लोकप्रिय टी. वी. चैनल ‘आज तक’ ने ढाई मिनट का वीडयो दिखाया. इस वीडियो में महिला कलाकार ने कहा कि, ‘ कुछ लोगों को ‘अल्लाह’ के उल्लेख पर नाराजगी हो गई. लेकिन यह तो ईश्वर का ही एक नाम है. फिर हमारे देश में सभी मानते हैं कि हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई आपस में सब भाई-भाई. मैं मानवता को सबसे बड़ा धर्म मानती हूँ. इसलिए मेरी अपील है कि हम सभी एक दूसरे का सम्मान करें और मानवता के धर्म का पालन करें….’. शाम को यू-ट्यूब पर श्री दीपक शर्मा ने इस घटना पर एक चर्चा आयोजित की जिसमें गायिका देवी ने इस समूचे प्रकरण पर अपना आश्चर्य व्यक्त किया. श्री दीपक शर्मा के अनुरोध पर गायिका देवी ने संवाद के अंत में गाँधीजी के प्रिय भजन को भी पूरा गाकर सुनाया. इस मौके पर यदि श्री अटलबिहारी वाजपेयी स्वयं उपस्थित होते तो क्या करते? सर्वधर्म सद्भाव के इस भजन पर ऐतराज करते? एक आमंत्रित महिला कलाकार से माफ़ी मंगवाते या हुडदंगियों के शर्मनाक आचरण के लिए स्वयं महिला अतिथि से क्षमा याचना करते? इसे कोई नहीं जानता. लेकिन यह सब जान गये हैं कि अब नई पीढ़ी के हिन्दुओं को उग्रता की अंधी गली में फंसा दिया गया है. जब अपने एक अतिथि का भजन में ‘अल्लाह’ के उल्लेख से इतना आक्रोश दिखाने में कोई संकोच नहीं हुआ तो पांच वक्त के नमाज़ी भारतीय मुसलमान स्त्री-पुरुषों के प्रति कितना अपनत्व, बंधुत्व या सद्भाव बचा होगा? यह भी सवाल उठता है कि जब इतनी असहिष्णुता गैर-भाजपाई श्री नितीश कुमार के मुख्यमंत्रित्व काल में दिखाई जा रही है तो भाजपा के बहुमत पाने पर क्या होगा?
यह सच है कि हिन्दू महासभा ने १९४०-४७ के दौरान भारत को ‘हिन्दू देश’ घोषित करके ‘विधर्मियों’, विशेषकर मुसलामानों और ईसाईयों को ‘भगाने’ का नारा दिया था. इसकी प्रेरणा का स्त्रोत विनायक दामोदर सावरकर की छोटी सी किताब ‘हिंदुत्व’ है. जबकि भारतीय संस्कृति कम से कम २५०० वर्षों से, सम्राट अशोक के शासनकाल से, बहुपंथी और बहुधर्मी रुझहान की रही है. भारतीय संस्कृति की मौजूदा बुनावट में कम से कम छ: धर्म धाराओं – वैदिक, बौध्द, जैन, इस्लाम, सिख और ईसाई का प्रभाव है. फिर हर धर्म में कई संप्रदाय और अनेकों जातियां हैं. लेकिन यूरोप के राष्ट्रवाद से अभिभूत ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ की इस आयातित विचारधारा ने जिन्ना के ‘पकिस्तान’ बनाने के मुस्लिम अलगाववाद की पुष्टि की थी. इससे ब्रिटिश राज की ‘बांटो और हटो!’ की नीति को बल मिला और भारत-विभाजन कर दिया गया. १९४६-४७ में १० लाख निर्दोष हिन्दू-मुसलमान-सिख मारे गए और १ करोड़ ४० लाख से अधिक लोग शरणार्थी बने.
वस्तुत: सामाजिक मनोविज्ञान के अनुसार अपने अंदर ‘दुश्मन’ की तलाश एक राष्ट्रीय कमजोरी होती है और कायर समुदाय अपनों से मजबूत की ‘जी हजूरी’ और अपने से कमज़ोर के साथ नफरत और अमानवीयता करते हैं. अंग्रेजी राज के दौरान हमारे समाज में चौतरफा कायरता और वंचित जातियों और स्त्रियों के बारे में बर्बरता फैली हुई थी. लेकिन अब आज़ादी के ७७ साल बाद भी इस दोष के बने रहने की क्या वजह है? क्या इसीलिए भारत में औरतों, दलितों और आदिवासियों के साथ सामूहिक अत्याचार के शर्मनाक काण्ड होते रहते हैं? क्या इसीलिए भारत विभाजन के आठ दशकों बाद, और पकिस्तान के टूटने के पांच दशकों बाद भी, मुस्लिम द्वेष की मानसिकता का सुबह-शाम प्रसार हो रहा है. इसके लिए महमूद गजनवी, बाबर और औरंगजेब की कट्टरता और साम्प्रदायिकता को आधार बनाया जाता है. बड़ी आसानी से मोइनुद्दीन चिश्ती, अकबर, चाँद बीबी, टीपू सुलतान और बहादुर शाह जाफर की यादें मिटा दे जाती हैं. जिन्ना और याह्या खान को याद रखा जाता है और अशफाकुल्लाह, अबुल कलाम आज़ाद, शाहनवाज़ और अब्दुल हमीद जैसे देशभक्तों को भुलाया जाता है. कट्टरतावादी हिन्दुओं की अन्य गैर-हिन्दुओं से कोई मैत्री नहीं है. इनकी सिखों से दूरी का एक वीभत्स प्रदर्शन १९८४ में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की बर्बर हत्या के बाद सामने आया था. ईसाई भारतीयों के बारे में इनका रुख ननों के साथ बलात्कार, गिरिजाघरों पर हमले और मणिपुर की अराजकता के दौरान की गयी हिंसा जैसी निंदनीय घटनाओं से झलकता है. दलितों के साथ अलगाव ग्रामीण भारत का खुला सच है. दूसरे शब्दों में, भारत विभाजन के बाद हिन्दू महासभा तो लुप्त हो गयी लेकिन क्या उसकी सांप्रदायिक अलगाव की विचारधारा ने राममंदिर बनवाने के आन्दोलन की आड़ में नया जन्म लिया है? क्या इसीलिए हर मस्जिद-मज़ार के नीचे मंदिर खोजने के लिए खुदाई करवाई जा रही है? क्या भारत-प्रेम को इस्लाम-विरोध के जरिये प्रदर्शित करने के सार्वजनिक आचरण ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों के दिल-दिमाग पर कब्ज़ा जमा लिया है? क्या उन्हें याद कराना होगा कि भारत में १४% से अधिक नागरिक यानी लगभग २० करोड़ देशवासी इस्लाम और ३% (४ करोड़) भारतीय ईसाई धर्म के अनुयायी हैं? फिर भारत के सरहदी प्रदेशों जैसे लद्दाख (बौद्ध और मुस्लिम), पंजाब (सिख बहुमत) और कश्मीर (मुस्लिम बहुमत) से लेकर नागालैंड (ईसाई बहुमत), मिजोरम (ईसाई बहुमत) और मेघालय (ईसाई बहुमत) में क्या होगा? अलगाववाद को कैसे सुलझाएंगे? २० प्रतिशत गैर-हिन्दू नागरिकों का क्या भविष्य होगा? फिर लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बने श्री नरेंद्र मोदी के ‘सबका साथ, सबका विश्वास, सबका विकास’ के नारे का क्या होगा?
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन और संविधान सभा ने खूब सोच-समझ कर सर्वधर्म सद्भाव आधारित और राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक न्याय से पोषित-पल्लवित लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण को भारत के बेहतर भविष्य का रास्ता स्वीकारा. अन्यथा हम एक अलगाववादी आंधी को बढ़ावा देंगे. अभी ही कश्मीर घाटी में अलगाववाद की आग का कोई समाधान सामने नहीं है. पंजाब में बड़ी कीमत देकर अलगाववाद काबू में आया है. नागालैंड में अलगाववाद का समाधान निकालने की असफल कोशिशों का आठ दशकों का इतिहास है. यह तो सबको मालुम ही है कि सोवियत संघ जैसा महाशक्तिवान राष्ट्र भी जब संस्कृति और धर्म से जुडी अस्मिता की अनदेखी की अति करने लगा तो उसका विखंडन हो गया और १५ छोटे-बड़े राष्ट्र बन गए. आज सोवियत संघ का हिस्सा रह चुके रूस और उक्रेन में खुला युद्ध चल रहा है. युगोस्लाविया जैसा छोटा देश धार्मिक दरारों की अनदेखी करने के कारण पांच टुकड़ों में बिखर गया. इसलिए विकल्प की दो राहें स्पष्ट हैं ; या तो हम ‘ईश्वर अल्ल्ला तेरो नाम’ जैसे भजनों का सन्देश स्वीकारें. ‘अल्ल्लाह नहीं, अल्लाह नहीं!’ की नादानी से बाज आयें. या भारत को साम्प्रदायिकता की सर्वनाशी अग्नि में धकेल दें.
आइए, कम से कम हम पटना की इस निंदनीय घटना के खिलाफ महिला कलाकार के साथ खड़े हों. भारत सरकार और बिहार सरकार को उनके संवैधानिक दायित्व की याद दिलाएं. लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण में योगदान को अपना युगधर्म घोषित करके भारत विखंडन पर उतारू समूहों का प्रतिरोध करें.