किसान के हक में एक विमर्श

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— राजेन्द्र राजन —

सितंबर 2020 में मोदी सरकार द्वारा लाये गये तीन कृषि कानूनों के विरोध ने जहां एक अपूर्व और विशाल किसान आंदोलन को जन्म दिया वहीं इस आंदोलन ने किसानों के अलावा समाज के दूसरे तबकों की भी स्वतःस्फूर्त सहानुभूति हासिल की। यहाँ तक कि देश के बाहर भी इस आंदोलन की गूँज सुनाई दी। इस आंदोलन ने किसान को जहाँ राजनीति के एजेंडे पर ला दिया, वहीं किसान बौद्धिक विमर्श और कला तथा साहित्य के स्फुरण का विषय भी बना। किसान के पक्ष में ढेरों कविताएँ लिखी गयीं, बहुत सारे लेख लिखे गये। इस सिलसिले में एक बड़े आकार की पहल प्रसिद्ध पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी ने की, उन्होंने इस किसान आंदोलन को मद्देनजर रखते हुए एक किताब की योजना बना डाली, जो अब संकट में खेती : आंदोलन पर किसान नाम से प्रकाशित है।

यह आंदोलन इतना प्रभावपूर्ण, तेजस्वी और अनुशासित था कि आखिरकार मोदी सरकार को झुकना पड़ा। तीनों कृषि कानून नवंबर 2021 में वापस ले लिये गये। जाहिर है यह किसानों की जीत थी। लेकिन इससे किसानों की हालत में कोई फर्क नहीं पड़ा, न पड़ना था। क्योंकि तीनों कृषि कानूनों की वापसी से बस यह हुआ कि सितंबर 2020 के पहले किसान जहाँ थे वहीं आ गए। किसानों की हालत में फर्क तब पड़ता जब यह सुनिश्चित किया जाता कि खेती घाटे का धंधा नहीं रहेगी, जब सभी किसानों और सभी फसलों के लिए एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग भी मान ली जाती।

अरुण कुमार त्रिपाठी

अलबत्ता तीनों कृषि कानूनों के रूप में कारपोरेट का जबरदस्त हमला किसानों ने जरूर नाकाम कर दिया, और इससे उनमें आत्मविश्वास आया होगा, लेकिन उनकी हालत तो फिर वही की वही है। खेती पहले की तरह घाटे का धंधा बनी हुई है, किसान कर्ज के जाल में फँसने और फँसे रहने को मजबूर हैं। और इस कारण किसान खुदकुशी भी करते हैं। पहले किसानों की खुदकुशी की खबरें और आँकड़े आसानी से मिल जाया करते थे, पर मौजूदा निजाम ने इन पर परदा डालने का रवैया अख्तियार कर रखा है। इस किताब में एक लेख (सुखपाल का) इसी विषय पर है- खुदकुशी के आँकड़े छिपाती सरकार।

मोटा अनुमान यह है कि देश में उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद से तीन लाख से ज्यादा किसान खुदकुशी कर चुके हैं। यह तथ्य अपने आप यह सवाल उठाता है कि आत्महत्या की इन घटनाओं के पीछे क्या वे नीतियाँ जिम्मेवार हैं जो उदारीकरण के नाम से शुरू की गयीं? विडंबना यह है कि इस सवाल पर विचार करने के बजाय, कम-से-कम शासक वर्ग की तरफ से, इन्हीं नीतियों में किसानों का हित देखा और दिखाया जाता रहा है। इस वर्ग को सिर्फ कृषि के ग्रोथ से मतलब रहा है, किसानों से नहीं। इसी दृष्टिकोण की ही उग्र परिणति तीनों कृषि कानूनों में हुई।

ये कानून किसानों की ऐतिहासिक लड़ाई और कुर्बानियों के बूते वापस हो गये लेकिन खेती और किसानों से जुड़े सारे सवाल जस के तस हैं।

‘खेती में संकट : आंदोलन पर किसान’ पुस्तक ऐसे लगभग सारे सवालों को समेटती है। यह संपादित पुस्तक है, जिसे वाणी प्रकाशन ने ‘आज के प्रश्न’शृंखला की अपनी योजना के तहत प्रकाशित किया है। यों यह शृखंला प्रसिद्ध पत्रकार-लेखक राजकिशोर ने 1993 में शुरू की थी और इसके तहत विभिन्न सामयिक मसलों और विमर्श के विषयों पर किताबें आती रहीं। यह सिलसिला 2015 तक चला। 2018 में राजकिशोर जी का निधन हो गया। यह अच्छी बात है कि ‘आज के प्रश्न’ शृंखला बहाल हो गयी है और राजकिशोर जी की इस विरासत को आगे बढ़ाने का जिम्मा वाणी प्रकाशन ने योग्य (अरुण कुमार त्रिपाठी के) हाथों में सौंपा है।

इस किताब में जहाँ देविंदर शर्मा जैसे विख्यात कृषि अर्थशास्त्री और मृणाल पांडे जैसी नामचीन पत्रकार-लेखक, समाजवादी किसान नेता डॉ सुनीलम और समाजवादी बुद्धिजीवी डॉ प्रेम सिंह के लेख हैं, वहीं अलग-अलग सभी मुद्दों को समेटने में सरोकारी पत्रकारों के लेख भी महत्त्वपूर्ण हैं। किताब को और उपयोगी बनाया है राकेश टिकैत, जोगिंदर सिंह उगराहाँ और डॉ. दर्शनपाल से की गयी बातचीत ने। इन किसान नेताओं से बातचीत खुद पुस्तक के संपादक अरुण कुमार त्रिपाठी ने की है। इस तरह यह किताब खेती के संकट और किसान की दशा पर चिंतक-विशेषज्ञ, एक्टिविस्ट, पत्रकार-लेखक से लेकर किसान नेताओं के विचार आपसे साझा करती है। किताब के आवरण पृष्ठ पर ही इनके नाम मिल जाएंगे- राकेश टिकैत, मृणाल पाण्डे, देविंदर सिंह, जोगिंदर सिंह उगराहां, सुनीलम, प्रेम सिंह, अरुण कुमार त्रिपाठी, दर्शनपाल सिंह, रवि अरोड़ा, आशुतोष, चिन्मय मिश्र, जेनिफर, सचिन कुमार जैन, सुखपाल सिंह, अनिल चौधरी, अभिषेक श्रीवास्तव, कृपाशंकर चौबे, ए.के. अरुण, कृष्ण प्रताप सिंह, अटल तिवारी, महेन्द्र मिश्र।

यह किताब जहाँ सारे तात्कालिक संदर्भों को लिये हुए हैं, वहीं तात्कालिकता से परे भी जाती है। कृषि अर्थशास्त्री देविंदर शर्मा तो मानते हैं कि ‘विश्वव्यापी है खेती का संकट’। लेकिन वह खुद भारत के किसान की जो दशा बता रहे हैं, वैसी हालत और कहाँ है-

“एक ओर भारत आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तो दूसरी ओर नये सिरे से पुनर्गठित राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन (एसएसओ) की 2018-19 के स्थितिजन्य आकलन सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट चिंताजनक है। यह रिपोर्ट बताती है कि राष्ट्र ने आजादी के साथ जो प्रतिज्ञा की थी वह अभी भी देश के 50 प्रतिशत वाले किसान समुदाय के लिए छलावा साबित हो रही है। रिपोर्ट के अनुसार फसल उत्पादन से एक किसान की औसत आय 27 रु. प्रतिदिन है जो कि हकीकत में एक मजदूर से भी खराब है। किसान की प्रतिदिन की आय मनरेगा के मजदूर से तो कम है ही, वह गाय के दूध से रोजाना होनेवाली आमदनी से भी कम है। अगर किसानों के पास खेती से बाहर की आय न होती तो उनकी स्थिति आज बहुत ही बुरी होती। एक ओर राष्ट्र हर साल रिकार्ड अन्न उत्पादन पर अपनी पीठ थपथपा रहा है तो दूसरी ओर लगातार हो रही खेती की त्रासदी को छिपाया जा रहा है।”

आंदोलन ने दो मुद्दों को चर्चा का विषय बना दिया- (कॉरपोरेटी) कृषि कानून और एमएसपी यानी न्यूतम समर्थन मूल्य। लेकिन यह किताब दशकों की पृष्ठभूमि के साथ खेती के संकट और किसान के वर्तमान व भविष्य की चर्चा करती है। इसमें पहले के आंदोलनों, जैसे कि महेन्द्र सिंह टिकैत के आंदोलन की भी जानकारी आपको मिल जाएगी, यहाँ तक कि एक लेख आजादी की लड़ाई के दिनों में चले अवध के किसान आंदोलन पर भी है। माना जाता है कि आजादी के बाद जमींदारी और जागीरदारी खात्मे के कानून बने तो उसकी जड़ें अवध के किसान आंदोलन में थीं। 

फिर, बहुत से लोगों को शायद यह याद न हो कि तीन कृषि कानूनों के विरोध से पहले, मंदसौर के गोलीकांड (जिसमें छह किसान शहीद हुए थे) के बाद से ही एमएसपी की गारंटी और संपूर्ण कर्जा मुक्ति की माँग को लेकर किसान आंदोलन शुरू हो गया था और अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के रूप में किसानों का संयुक्त मंच बना था जो आज भी सक्रिय है। संयुक्त किसान मोर्चा दरअसल अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति और पंजाब की 32 किसान जत्थेबंदियों के सम्मिलन के फलस्वरूप वजूद में आया। डॉ सुनीलम का लेख इस पूरी कहानी का एक प्रामाणिक वृत्तांत है, जो खुद इस सारी प्रक्रिया में शामिल रहे हैं।

यह किताब किसान और राजनीति के रिश्ते पर भी विचार करती है। यों तो किसानों के लिए आंसू बहाने में कोई पार्टी पीछे नहीं रहती, लेकिन क्या कारण है कि फिर भी किसान दिनोदिन और दुर्दशाग्रस्त होता गया है? पार्टियों का पाखंड इसलिए चल जाता है क्योंकि देश की आधी आबादी किसान होते हुए भी किसान वोट की निर्णायक ताकत नहीं बन पाते। वे कई तरह से बँटे रहते हैं। फिर, कृषि को उद्योग का उपनिवेश समझने और बनाए रखनेवाली विकास-नीति (या आर्थिक नीति) पर सभी पार्टियों में सर्वानुमति है। जाहिर है, किसान का भविष्य तभी हो सकता है जब वह इस सर्वानुमति को भंग करे और देश की विकास नीति या आर्थिक नीति तय करने में निर्णायक असर डाले। सच पूछा जाए तो, इसी अर्थ में कोई संजीदा किसान आंदोलन कभी भी अराजनैतिक नहीं हो सकता। गौरतलब है कि इस दृष्टिकोण की चर्चा करते हुए किसान नेता दर्शनपाल सिंह और पुस्तक के संपादक अरुण कुमार त्रिपाठी ने (स्व) किशन पटनायक को भी याद किया है।

किताब के अंत में किसान आंदोलन का घटनाक्रम और लेखकों के परिचय भी दिये गये हैं।

किताब –  संकट में खेती 

          आंदोलन पर किसान

संपादक – अरुण कुमार त्रिपाठी

प्रकाशक – वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002

ईमेल – vaniprakashan.in

फोन – +91 11 232731167

मूल्य – 325 रु.

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