स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा – मधु लिमये : 44वीं किस्त

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)

1944 में गांधीजी की सेहत अचानक खराब हो गई थी। सरकार को ऐसा प्रतीत हुआ कि वे ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहेंगे। वायसराय वेवल नहीं चाहते थे कि गांधीजी की मृत्यु अंग्रेजों के कारावास में हो। ऐसा होने से इन दोनों राष्ट्रों के बीच असह्य कटुता उत्पन्न हो जाने का खतरा था इसलिए वायसराय वेवल की पहल पर गांधीजी को जेल से रिहा कर दिया गया। गांधीजी बाहर तो आए। लेकिन बाहर सभी प्रकार की जन स्वतंत्रताएं समाप्त हो चुकी थीं। कांग्रेस संगठनों पर पाबंदी लगी हुई थी, हजारों कार्यकर्ता और वर्किंग कमेटी के नेता गिरफ्तार थे। धीरे-धीरे गांधीजी के रचनात्मक कार्य में लगने का उनका प्रयास था। साथ ही साथ अंग्रेजी हुकूमत के साथ, नई परिस्थिति में- जापानी आक्रमण की आशंका समाप्त हो चुकने के कारण- समझौता करने की बात भी उन्होंने चालू की।

गांधीजी को इस बात का जरूर अहसास था कि 1942 के आंदोलन में साधारण लोगों द्वारा त्याग और वीरता के जो कार्य किए गए थे, उनसे लोगों में राजनीतिक चेतना बढ़ी है। जनता में उत्साह का नया संचार हुआ है। गांधीजी 1942 के क्रांतिकारी नेताओं की बहादुरी की हमेशा तारीफ करते थे, लेकिन वे कहते थे कि शूरों की अहिंसा हिंसा से श्रेष्ठ है, अगस्त 1942 में कार्यकर्ता और जनता अहिंसा को नहीं छोड़ते तो देश ज्यादा प्रगति करता। बहादुरों का अहिंसात्मक प्रतिकार देश में कई गुना अधिक चेतना पैदा करता और जन-समर्थन भी कई गुना बढ़ जाता। इस राय से गांधीजी कभी नहीं हटे।

जब हम अगस्त क्रांति का समग्र मूल्यांकन करते हैं तो पाते हैं कि अगस्त क्रांति के आंदोलन में एक किस्म की विडंबना और अन्तर्विरोध भी हैं। आंदोलन के लिए जनमानस तैयार करने का काम मुख्यतः गांधीजी ने किया था। संघर्ष का समां बांधना किसी अन्य नेता के वश की बात नहीं थी। परंतु उनकी गिरफ्तारी के बाद आंदोलन उनके द्वारा निश्चित की गई सीमाओं के अंदर नहीं चल पाया। एक माने में अगस्त क्रांति का आंदोलन गांधीजी के प्रभाव की परिसीमा भी थी और साथ ही साथ गांधीजी के अहिंसात्मक प्रतिकार के सिद्धांत का अंत भी। 1942 की क्रांति कितनी प्रभावशाली रही, उसका मूल्यांकन मात्र चुनाव परिणामों से हो जाता है। 1945 और 1946 में केंद्रीय असेंबली और प्रांतीय असेंबलियों के चुनावों में कांग्रेस सौ प्रतिशत सफल हुई।

लेकिन इस आंदोलन में एक जबरदस्त कमी भी थी। इसमें सरहदी प्रांत को छोड़कर अन्य मुस्लिम बहुल इलाकों के मुसलमानों की शिरकत लगभग नहीं के बराबर थी। इस समय मुस्लिम समाज पर पूर्णतः मुस्लिम लीग और जिन्ना के नेतृत्व का असर जम चुका था। इसका भी सबूत उपरोक्त चुनावों में मिला। सरहदी प्रांत छोड़कर बाकी प्रायः सभी जगह आरक्षित मुस्लिम सीटों पर मुस्लिम लीग को सफलता प्राप्त हुई। चुनावों के नताजों ने एक माने में देश को विभाजित कर दिया। अंग्रेजों ने अपनी 3 जून 1947 की योजना के अनुसार एक माने में चुनाव के नतीजों के आधार पर ही मोहर लगाई थी। बेचारे सरहदी प्रांत और ख़ान अब्दुल गफ्फार ख़ां (सीमांत गांधी) को इस बंटवारे का शिकार बनना पड़ा। स्वतंत्रता आई, लेकिन पाकिस्तान में बादशाह ख़ान की व्यक्तिगत स्वतंत्रता छीन ली गई और उन्हें वर्षों पाकिस्तान की जेलों में अपना जीवन बिताना पड़ा।

1942 में एक ओर अगस्त क्रांति हुई तो दूसरी ओर नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने दक्षिण-पूर्वी एशिया में भारतीय लोगों में अद्भुत् किस्म का संगठन कायम किया। 1941 में सुभाष बाबू गुप्त रूप से भागकर अफगानिस्तान के रास्ते जर्मनी चले गए थे। एक सबमेरीन पर बैठकर वे उसके बाद जापान पहुंचे। जापान की हिरासत में जो भारतीय सेना के अफसर और सिपाही थे, उनमें से एक बड़े हिस्से को नेताजी ने आजाद हिंद फौज के नाम से संगठित किया। आरजी हुकूमते आजाद हिंद कायम कर भारतीय स्वतंत्रता के लिए जापान की मान्यता उन्होंने प्राप्त की। अंग्रेजी हुकूमत को पराजित करने तथा उनमें नया राष्ट्रीयता का भाव जगाने के लिए नेताजी ने दिल्ली चलो और जयहिंदजैसे नारे प्रचलित किए, अपूर्व त्याग के लिए उन्हें प्रेरित किया। आजाद हिंद फौज ने पूर्वी भारत के इलाके (आज का मणिपुर) पर हमला किया था। लेकिन 1944 तक जापान की शक्ति तुलनात्मक दृष्टि से काफी कम हो गई थी और अमरीका की अतुलनीय सामर्थ्य की वजह से मित्र-राष्ट्रों का पलड़ा भारी हो गया था। आजाद हिंद फौज ने अनेक काम किए, मणिपुर की भूमि पर शहादत भी दी, लेकिन अब विश्व परिस्थिति उसके लिए प्रतिकूल हो गई थी।

आजाद हिंद फौज के अफसरों की कानूनी रक्षा के लिए गांधीजी ने भूलाभाई को नियुक्त किया था। उन्होंने बहुत ही कुशलता और जोश-खरोश के साथ इन अफसरों की वकालत की। इस मुकदमे की वजह से आजाद हिंद फौज की पूरी साहस भरी तथा रोमांचकारी कहानी देश के सामने आई। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के बारे में बाद में जो जानकारी प्राप्त हुई उससे पता चला कि हालांकि उन्होंने आजादी की लड़ाई के लिए जापानियों की मदद लेने का निर्णय किया था, लेकिन वे किसी भी अर्थ में जापानियों के एजेण्ट के रूप में कार्य नहीं करते थे। उन्होंने आत्मसम्मान के आधार पर ही जापानियों के साथ रिश्ता बनाया था और आजाद हिंद सरकार के लिए उऩकी मान्यता प्राप्त की थी। इतना ही नहीं, दक्षिण-पूर्वी एशिया स्थित भारतीय जनता को अपने पैरों पर खड़ा होकर मातृभूमि की मुक्ति के लिए अतुल त्याग करने के लिए भी उन्हें प्रेरित किया था। द्वितीय महायुद्ध के अंतिम चरण में, यानी जापानियों के आत्मसमर्पण के पश्चात् सायगांव से नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने प्रस्थान किया। कहा जाता है कि उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और उसमें नेताजी की मृत्यु हो गई। इस दुर्घटना के तथ्यों के बारे में बाद में काफी आशंकाएं प्रकट की गईं। 1945 के बाद नेताजी जिंदा नहीं रहे। यदि वे जिंदा होते तो कम से कम आजादी के बाद भारत में आकर जरूर प्रकट होते।

नेताजी ने अक्सर कहा था कि मैं भारत छोड़कर जर्मनी और जापान जाकर उनकी मदद हासिल करने के लिए इतना उद्यत इसलिए हूं क्योंकि मेरे मन में जो आग है वह मुझे चैन से बैठने नहीं देती। अपनी मातृभूमि को मैं जल्द से जल्द आजाद कराना चाहता हूं। उन्होंने कहा था कि मुझे सत्ता की कोई लालसा नहीं है, भारत को मुक्त कराने के बाद भारतीय आजादी को राष्ट्रपिता के चरणों में समर्पित कर मैं राजनीति से हट जाऊंगा।

नेताजी के अद्वितीय कार्य की वजह से भारत की स्थल, वायु और नौसेनाएं राष्ट्रीय विचारों से ओतप्रोत हो गईं। 1946 के प्रारंभ में बंबई में नौसैनिकों ने जो विद्रोह किया था, वह इसी बात का सबूत हैं। 1947 में भारत को विभाजित कर सत्ता का हस्तांतरण करके यहां से प्रस्थान करने का अंग्रेजों ने जो निर्णय किया, उसमें एक प्रमुख कारण यह था कि अब भारतीय सेनाओं पर से उनका विश्वास उठ चुका था।

अंत में मैं इतना ही कहूंगा स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए कई तरीकों और तकनीकों का इस्तेमाल किया गया। जिस तरह प्रारंभिक काल में नरमपंथियों ने वैध आंदोलन किया, तिलक जी ने स्वराज्य के लिए जेल की यातनाएं भोगीं, जिस तरह आतंकवादियों ने अपने ढंग से स्वतंत्रता आंदोलन को आगे बढ़ाने का प्रयास किया, उसी तरह स्वतंत्रता के अंतिम चरण में अगस्त के क्रांतिकारियों ने, जिनमें समाजवादी अग्रगण्य थे, और नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज ने भी जबरदस्त योगदान दिया।

सभी आंदोलनों और तौर-तरीकों का अध्ययन करने के बाद हम इसी निर्णय पर पहुंचते हैं कि आजादी की, स्वतंत्रता आंदोलन की यह जो गंगा थी उसमें दूसरे प्रवाहों और नदियों से भी पानी आया। लेकिन यह बात अकाट्य है कि स्वतंत्रता आंदोलन की मुख्य धारा गांधीजी की धारा थी। स्वयं अनेक अंग्रेज प्रशासकों ने गांधीजी को ब्रिटिश साम्राज्य का सबसे बड़ा दुश्मन माना था, वायसराय वेवल ने अपने जर्नल में स्वीकारा है कि अंत में गांधीजी ब्रिटिश साम्राज्य को समाप्त करने के अपने कार्य में सफल हुए।

गांधीजी भारत को अविभाजित रूप में स्वतंत्र देखना चाहते थे न कि विभाजित रूप में। भारत विभाजन के समय भाइयों-भाइयों में जो कटु संघर्ष हुआ, जो खून की नदियां बहीं, उससे गांधीजी बहुत व्यथित हुए थे और देश की एकता तथा भाईचारे को बनाए रखने के लिए उन्होंने सर्वोच्च कुर्बानी 30 जनवरी, 1948 को दी। उन्हें जो राष्ट्रपिता की संज्ञा दी गई है वह सर्वथा उपयुक्त है, यही इस समालोचना का निचोड़ है।

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