सन 1906 में हुए कलकत्ता अधिवेशन में पहली बार बंगाल में विभाजन के विरोध में जो बहिष्कार आंदोलन चल रहा था, उसकी खुलकर ताईद हो गयी। साथ ही साथ पहली बार स्वदेशी वस्तुओं को प्रोत्साहन देने के कार्यक्रम को भी इस अधिवेशन में मुखरित किया गया। प्रस्ताव में कहा गया था कि विदेशी वस्तुओं की जगह हिंदुस्तान की जनता को चाहिए कि वह स्वदेशी वस्तुओं को प्रयोग कर उन्हें प्रश्रय दे।
1907 में सूरत में कांग्रेस का जो अधिवेशन हुआ, वह इसलिए मशहूर नहीं है कि उसमें कोई बढ़िया प्रस्ताव पारित हुआ, बल्कि उसकी ख्याति सिर्फ इसलिए हुई क्योंकि इस अधिवेशन में नरमपंथ और गरमपंथ के बीच जो मतभेद बढ़ते चले जा रहे थे, उनका विस्फोट होकर राष्ट्रीय आंदोलन की एकता भंग हुई।
उसके बाद कई वर्षों तक कांग्रेस का नेतृत्व सर्वथा नरमपंथियों के हाथों में रहा और राष्ट्रीय आंदोलन का एक प्रवाह कांग्रेस के दायरों के बाहर बहता रहा। अतः अगले कुछ वर्षों में पुराने प्रस्तावों को दोहराने के अलावा कांग्रेस अधिवेशनों में कोई सृजनात्मक कार्य नहीं हुआ।
1908 में हुए पहले नरमपंथी कांग्रेस अधिवेशन में स्वदेशी चीजों के प्रयोग पर प्रस्ताव तो पारित हुआ मगर स्वदेशी के आंदोलनकारी स्वरूप पर जोर देने की बजाए इसमें उसके रचनात्मक पहलुओं की ओर ध्यान दिया गया था।
कांग्रेस के मद्रास में हुए इस अधिवेशन में अनाज के दामों में हुई असाधारण वृद्धि की गहरी जांच करने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया। जिसमें कहा गया कि इस दाम वृद्धि से गरीब वर्ग को अत्यधिक तकलीफ हो रही है।
1909 का अधिवेशन लाहौर में हुआ था। पंजाब की रैयत को राहत देने के लिए पंजाब में ‘लैण्ड एलिएनेशन एक्ट’ बना था जिससे जमीनों को कर्ज के बदले छीन लिये जाने पर प्रतिबंध लगाया गया था। चूंकि कांग्रेस पर उन दिनों धनी काश्तकारों और महाजनों का प्रभाव था, अतः इस कानून के अमल से होनेवाली तकलीफों का जिक्र करते हुए इस कानून के कार्यान्वयन की जाँच करने की माँग एक प्रस्ताव के द्वारा की गयी थी। चूंकि इस कानून का खुलकर विरोध संभव नहीं था, अतः यह अप्रत्यक्ष विरोध का तरीका अपनाया गया था, कांग्रेस के वर्गचरित्र का यह एक और सबूत था।
1910 का कांग्रेस का अधिवेशन इलाहाबाद में हुआ था। इस अधिवेशन में दो प्रस्ताव अल्पसंख्यकों को स्वतंत्र प्रतिनिधित्व देने के सिद्धांत के बारे में पारित हुए थे। एक प्रस्ताव में कहा गया था कि विगत वर्ष के संवैधानिक सुधारों (मार्ले-मिंटो सुधार कानून) में मुसलमानों तथा अन्य समुदायों के प्रतिनिधित्व के लिए स्वतंत्र मतदाता सूची और आरक्षित स्थानों की जो व्यवस्था है, उसे समाप्त किया जाए। साथ ही साथ दूसरे एक प्रस्ताव में यह माँग की गयी थी कि स्वतंत्र प्रतिनिधित्व के सिद्धांत को नगरपालिका, जिला बोर्ड तथा अन्य स्थानीय निकायों पर लागू न किया जाए। पाठकों को यह जानकर शायद आश्चर्य होगा कि ये दोनों प्रस्ताव मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा रखे गए थे और बिहार के एक राष्ट्रीय मुस्लिम नेता मजरूल हक द्वारा उनका अनुमोदन किया गया था।
1911 के अधिवेशन में प्लेग, मलेरिया आदि रोगों के बारे में गहरी और वैज्ञानिक ढंग से जाँच करने के बारे में सरकारी निर्णय का स्वागत किया गया था और सरकार से यह अनुरोध किया गया कि वह रुके हुए जलमार्गों की सफाई, लोगों को नयी जमीनों पर बसाना, जलमग्न इलाकों में से पानी का निकास आदि कार्यों को अपने हाथ में ले। इस प्रस्ताव की यह विशेषता थी कि इसमें पेयजल की गंभीर समस्या का पहली बार उल्लेख करते हुए सरकार से माँग की गयी कि समूचे देश में साफ-सुथरे पीने के पानी का प्रबंध करना सरकार का प्राथमिक कर्तव्य है। यह विडंबना ही है कि इस तरह का प्रबंध आजादी के छत्तीस साल बाद भी आज तक नहीं हो पाया है।
1912 के कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस ने गोपालकृष्ण गोखले के प्राथमिक शिक्षा विधेयक के इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल में अस्वीकृत हो जाने पर अफसोस प्रकट किया और माँग की कि सरकार मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की ओर पग उठाये। साथ ही साथ इस प्रस्ताव में नए किस्म के आवासीय विश्वविद्यालयों की स्थापना की ताईद की गयी जहाँ छात्रों को पढ़ाने का काम भी किया जाए। प्रारंभ में बंबई, कलकत्ता, मद्रास तीन महानगरों में जो विश्वविद्यालय स्थापित हुए थे वे पढ़ाई का कार्य नहीं करते थे, बल्कि इम्तिहान मात्र लेकर छात्रों को पदवियाँ प्रदान करते थे।
1913 का अधिवेशन कराची में हुआ। इसकी यह विशेषता रही कि इसमें एक प्रस्ताव द्वारा अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के उद्देश्यों में हुए परिवर्तन की चर्चा की गयी और इस बात का स्वागत किया गया कि मुस्लिम लीग ने ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत स्वराज्य के आदर्श को अपनाया है। मुस्लिम लीग के पिछले अधिवेशनों में अभिव्यक्त इस विश्वास का इस प्रस्ताव में समर्थन किया गया कि देश का राजनैतिक भविष्य मुल्क के विभिन्न समुदायों के बीच समन्वय और सहयोग पर आधारित होगा। प्रस्ताव में कहा गया था कि कांग्रेस का यह हमेशा आदर्श रहा है। प्रस्ताव के अंत में आशा व्यक्त की गयी कि मुस्लिम लीग द्वारा जो इच्छा प्रकट की गयी है उस पर विभिन्न समुदायों के नेता राष्ट्रीय हित से सोचेंगे और संयुक्त प्रयास करेंगे ताकि समान उद्देश्यों की प्राप्ति जल्दी हो सके।
1915 में हुए अधिवेशन में औद्योगिक उन्नति पर एक प्रस्ताव पारित किया गया था। भारत में पूँजीवाद के बढ़ते प्रभाव का यह परिचालक था। अतः इस प्रस्ताव की तफसील देना अनुचित नहीं होगा। इसमें यांत्रिक शिक्षण, शोध संबंधी माँगों को दुहराया गया था और राज्यों में स्थापित उद्योग-व्यापार प्रतिष्ठानों के साथ सहयोग करने के लिए सलाहकार समितियों के निर्माण की आवश्यकता प्रतिपादित की गयी थी। जिससे कि नए उद्योगों के निर्माण को गति दी जा सके। इन दो सुझावों में यह था कि भारत को वित्तीय स्वायत्तता के अधिकार बहाल किए जाएं ताकि अपनी इच्छा के अनुसार भारत आयात-निर्यात व्यापार पर शुल्क लगाने के लिए स्वतंत्र बन जाए।
एक चौथे सुझाव में कहा गया था कि रेलवे के द्वारा विदेशी कपड़ा ढोने के लिए जो विदेशी छूट दी जाती है, उसको रद्द किया जाए और रेल के द्वारा स्वदेशी कपड़ा और अन्य औद्योगिक माल की ढुलाई और उनकी दरों आदि के बारे में किसी तरह का विषम व्यवहार न किया जाए। वित्तीय स्वायत्तता के बारे में 1915 में जो माँग की गयी थी, उसको बाद के अधिवेशनों में भी दोहराया गया था।