सन 1918 में औदयोगिक कमीशन की सिफारिशें प्रकाश में आयीं। इस कमीशन ने औद्योगीकरण की प्रक्रिया में सरकारी भूमिका पर विशेष जोर दिया गया था। 1918 में दिल्ली में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में इसका स्वागत किया गया और साथ ही साथ यह कहा गया कि हिंदुस्तानी पूँजी और उद्योगों को प्रोत्साहित किया जाए ताकि हिंदुस्तानी औद्योगिक और आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हो सके। प्रस्ताव में याद दिलाया गया कि वित्तीय स्वायत्तता के बिना औद्योगिक विकास असंभव हैं।
अधिवेशन ने माँग रखी कि केंद्रीय सरकार की कार्यकारिणी में उद्योग विभाग एक अलग विभाग के रूप मे होना चाहिए। कमीशन की सिफारिशों के अनुसार प्रांतों में भी प्रांतीय औद्योगिक विभाग खोलने की आवश्यकता पर बल दिया, साथ ही साथ औद्योगिक और रासायनिक सेवाओं को गठित करने का एक अभिनव सुझाव भी इस अधिवेशन की मार्फत दिया गया और कहा गया कि इस विभाग में सिर्फ भारतीय लोग हों और यदि कुछ यूरोपियन विशेषज्ञ को बुलाना भी पड़े तो उन्हें अल्पकालीन अनुबंध के आधार पर ही रखा जाए और जल्द से जल्द उनकी जगह भारतीय विशेषज्ञों को तैयार किया जाए।
औद्योगिक विकास के बारे में जगी नयी चेतना का यह भी एक सबूत था कि इस प्रस्ताव में विश्वविद्यालयों से अपील की गयी थी कि वे वाणिज्य कॉलेजों का निर्माण करें। कल्पना यह थी कि आर्थिक एवं उद्योग-नीति आदि विषयों में छात्रों को प्रशिक्षित किया जा सके। नए उद्योगों के लिए ऋण का प्रबंध करने के लिए सरकार से अनुरोध किया गया कि वह उद्योग बैंकों का आवश्यक अनुपात में निर्माण करें। अंत में इस प्रस्ताव ने मदनमोहन मालवीय को प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की क्योंकि औद्योगिक कमीशन की रपट में उन्होंने अपना विस्तृत असहमति पत्र जोड़कर हिंदुस्तान के औद्योगिक विकास के पक्ष को अकाट्य ढंग से पेश किया था।
1919 का अमृतसर अधिवेशन जलियांवाला बाग कांड, पंजाब में हुए अत्याचार और रौलेट नजरबंदी कानून के खिलाफ महात्मा गांधी के द्वारा किए गए आंदोलन की पृष्ठभूमि में हुआ था। इस वर्ष भारतीय जनता में एक नयी चेतना का संचार हुआ था और अब इस अधिवेशन के द्वारा पारित प्रस्ताव पर कुछ गांधीजी की छाया पड़ी। फिलहाल गांधीजी का असर अधिवेशन के द्वारा पारित प्रस्ताव मे आंशिक रूप में ही अभिव्यक्त हो सका। फलतः भारत के प्राचीन सूत कताई और हथकरघा उद्योग के पुनर्जीवन की माँग पहली बार अमृतसर कांग्रेस के मंच से की गयी।
रौलेट कानून की वापसी की माँग अधिवेशन की प्रमुख माँग थी। मगर उल्लेखनीय बात तो यह है कि कांग्रेस ने पहली बार श्रमिक संगठनों (ट्रेड यूनियन) की स्थापना करने के कार्य का समर्थन किया। गांधीजी अहमदाबाद में पहले ही टैक्सटाइल लेबर एसोसिएशन (मजूर-महाजन) की स्थापना कर चुके थे। आगे लाला लाजपतराय आदि नेता ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना के लिए प्रयत्नशील हो गये।
खिलाफत के बारे में भी इस अधिवेशन में एक छोटा सा प्रस्ताव पास हो गया जिसमें अंग्रेजी हुकूमत से माँग की गयी थी कि तुर्की के खलीफा को दिए गए वायदों को वे पूरा करे। इस अधिवेशन में भाग लेने के लिए लोकमान्य तिलक, इंग्लैण्ड की अपनी प्रदीर्घ यात्रा समाप्त कर आये हुए थे। इसके पूर्व उन्होंने और लाला लाजपतराय ने इंग्लैण्ड की नवोदित लेबर पार्टी के साथ मित्रता के रिश्ते बनाए थे। शायद इन्हीं नेताओं की प्रेरणा से लेबर पार्टी द्वारा भारत की आकांक्षाओं का जो समर्थन किया गया था, उसके लिए उनके प्रति आभार प्रकट करने का प्रस्ताव भी इस अधिवेशन में पास हुआ।
1920 में कांग्रेस के दो अधिवेशन हुए– एक कलकत्ता में विशेष अधिवेशन और दूसरा नागपुर में साधारण अधिवेशन। इन अधिवेशनों की विशेषता यह थी कि इसमें गांधीजी के असहयोग के कार्यक्रम की पुष्टि की गयी और विदेशी माल के बहिष्कार के कार्यक्रम को आगे बढ़ाया गया। प्रस्ताव में कहा गया था कि चूंकि भारतीय उद्योगपतियों के द्वारा संचालित कपड़ा मिलें पर्याप्त देसी सूत और कपड़ा उत्पादन करने में आज असमर्थ हैं और आनेवाले कई वर्षों में असमर्थ रहेंगी, अतः कपड़े की कमी को पूरा करने के लिए समूचे देश में सूत कताई और हथकरघों को पुनः जीवित करने के कार्यक्रम को व्यापक पैमाने पर अपनाया जाए।
1919 तक कांग्रेस का नेतृत्व वर्ग अपने वर्ग चरित्र के अनुरूप शिक्षित उच्च मध्यमवर्गीय, जमींदारों और नवोदित उद्योगपतियों, व्यापारियों की आशा-आकांक्षाओं को मुख्यतः अभिव्यक्त करता था। हाँ, दादाभाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले, आदि भारतमाता के सच्चे सेवकों के अनुरोध पर गरीबी, प्राथमिक शिक्षा, नमक कर तथा पेयजल आदि की चर्चा कांग्रेस के प्रस्तावों में यदाकदा होती थी। लेकिन मुख्यतः कांग्रेस वरिष्ठ वर्गों की ही संरक्षक थी। चूंकि स्वायत्तता और स्वराज्य के अधिकारों को वह प्राप्त करना चाहती थी, इसलिए वह अपनी वर्गीय मांगों पर राष्ट्रीय रंग चढ़ा देती थी। ऐसा न समझा जाए कि इस विश्लेषण से उनके सद्हेतुपर मैं कोई संदेह प्रकट कर रहा हूं। वास्तविकता तो यह थी कि अपने वर्गीय हित को वे राष्ट्रीय हित से अलग नहीं समझते थे। वर्गीय हित राष्ट्रीय हित हैं और राष्ट्रीय हित ही वर्गीय हित हैं, यह उनकी भावना थी और उसी के अनुसार इसके प्रस्ताव और भाषण हुआ करते थे।