— कश्मीर उप्पल —
हमारे लिए यह गौरव की बात है कि भारत दुनिया के देशों में सबसे अधिक युवा देश है। यहाँ कामकाजी आयु वर्ग (15-59) का 62 प्रतिशत से अधिक और 25 वर्ष से कम आयु की कुल आबादी का 54 प्रतिशत रहता है। इसके चलते वर्तमान परिदृश्य में यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण बन गया है कि इस ‘युवा पूँजी’का देश की उन्नति में किस तरह निवेश हो?
विगत कुछ वर्षों का अनुभव बताता है कि कई गतिविधियों में अशिक्षित युवाओं की तुलना में शिक्षित युवाओं की भागीदारी अधिक रही है। भारत की युवा शक्ति विश्व के कई विकसित देशों की कुल जनसंख्या से अधिक है, लेकिन अनेक सामाजिक समस्याओं का मूल कारण भी यह है कि हम विकास कार्यों में अपनी युवा शक्ति का उपयोग करने में असमर्थ सिद्ध हुए हैं।
विश्व बैंक ने अपनी हाल की एक रिपोर्ट में बताया है कि भारत में हर महीने 13 लाख लोग काम करने की उम्र में प्रवेश करते हैं। इनके लिए भारत को सालाना 81 लाख रोजगार के अवसर पैदा करने होंगे। विश्व बैंक के दक्षिण एशिया क्षेत्र के प्रमुख अर्थशास्त्री मार्टिन रामा के अनुसार सन 2025 तक हर महीने 18 लाख लोग भारत में काम करने की उम्र में पहुँचेंगे। ऐसे में यह विषय और भी अधिक चिंतनीय हो जाता है।
हमारे देश में पश्चिम की तकनीक के आधार पर औद्योगिक विकास किया जा रहा है। पश्चिम के देशों ने, अपने आर्थिक विकास के प्रारंभिक चरण में, देहात से उजड़ते किसानों और खेत मजदूरों को कारखानों में खपाया था। कई देशों ने इन किसानों और मजदूरों को अपने उपनिवेशों में बसा लिया था, लेकिन वर्तमान मशीनीकरण और स्वचालन (आटोमेशन) के कारण भारतीय श्रमशक्ति का पूर्ण उपयोग नहीं हो पा रहा है।
यूरोप, अमेरिका और आजकल चीन के विकास मॉडल से भारत चमत्कृत तो हो रहा है, परंतु देश के लोगों को आत्मनिर्भर नहीं बना पा रहा। देश में 80 करोड़ लोगों को सबसिडी के भोजन का वितरण किसी तरह से भी ‘कल्याणकारी राज्य’ की अवधारणा नहीं कहा जा सकता है।
लेखिका शोभा डे ने अपनी पुस्तक ‘सुपर स्टार इंडिया’ में लिखा है- ‘जिस भारत का हम महिमागान कर रहे हैं वह इस विशाल देश का बेहद सूक्ष्म हिस्सा है। यह कुलीनों, विशेषाधिकार प्राप्त धनी-मानी लोगों का इंडिया है। हम चाहते हैं कि दुनिया केवल इसी इंडिया को देखे, क्योंकि हम दूसरे भारत को लेकर बुरी तरह शर्मिदा हैं,शर्मिदा और अनजान।’
उत्पादक कार्यों में उपयोग नहीं होने के कारण भारत के युवा बड़ी संख्या में बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। वे इन सुविधाओं की खोज में बहुत कुछ समझकर भी राजनीतिक दलों के एजेंडे के अनुगामी बनने को बाध्य हो रहे हैं। देश के आम लोगों, विशेषकर शिक्षित युवाओं को बुनियादी सुविधाओं की कमी और अभावग्रस्त जीवन निरंतर दिग्भ्रमित करता रहता है।
इस संबंध में अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज और नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन अपनी पुस्तक ‘भारत और उसके विरोधाभास’ की भूमिका में कहते हैं- ‘देश में स्कूली शिक्षा तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा की निर्लज्ज उपेक्षा दर्शाती है कि भारतीय समाज वर्गों, जातियों, समुदायों आदि में किस कदर बँटा हुआ है। हाल ही के दिनों में शासन जिस तरह पहचान-केंद्रित राजनीति को बढ़ावा देता रहा है उसके चलते इन विभाजनों को और अधिक मजबूती मिली है। इसका नतीजा यह हुआ है कि बुनियादी कमजोरियों को दूर करना आसान होने की बजाय और कठिन हो गया है।’
भारतीय युवा बुनियादी सुविधाओं को पूरा करने के लिए राजनीतिक दलों के एजेंडे से जुड़ने को बाध्य हैं, क्योंकि इस माध्यम से उन्हें कुछ लाभ प्राप्त हो जाता है। इसी कारण देश के युवाओं की अधिकांश शक्ति अनुत्पादक कार्यों में लगी देखी जाती है जिसके फलस्वरूप समाज में कई विघटनकारी कार्रवाइयाँ होती रहती हैं। शोभा डे ने भी स्पष्ट किया है कि भारतीय कुलीन तबका और मीडिया देश के वंचित तबकों की समस्याओं से कटा हुआ है।
देश के विकास के लिए सत्ताधारी राजनीतिक दल के आदर्श और सिद्धांत कितने भी अच्छे हों, लेकिन उनके अनुकूल वातावरण बनाना होता है। आर्थिक विकास के महत्त्वपूर्ण सिद्धांतकार आर्थर डब्ल्यू. लुईस के अनुसार ‘सरकार आज्ञापालन पर निर्भर होती है और यदि एक बार जनता में आज्ञा-भंग करने की भावना पैदा हो जाए तो देश में शांति स्थापित करना बहुत कठिन और खर्चीला हो जाता है।’ यानी केवल समुचित सरकारी तंत्र स्थापित करने की ही समस्या नहीं है, बल्कि ऐसे ढंग से काम करने की भी है जिससे लोगों को ‘आज्ञापालन के अधिकार’ का बोध हो और वे हृदय से आज्ञापालन भी करें।
हमारे देश के संदर्भ में यह स्पष्ट करना बहुत जरूरी है कि राजनीतिक दल और सरकार दो अलग-अलग संस्थाएं हैं। यदि किसी राजनीतिक दल का आज्ञापालन या एजेंडा देश के संविधान के अनुकूल न हो तो देश में विभ्रम और संकट की स्थिति बन जाती है। सत्ताधारी राजनीतिक दल और देश की सरकार के ‘आज्ञापालन के सिद्धांत’ के मध्य खिंची रेखा बहुत ही संवेदनशील होती है।
राजनीतिक दल के सदस्य यदि दल की आज्ञा को संविधान की आज्ञा मानने लगें तो कई ऐसे प्रकरण घटित होते हैं जो कानून के राज्य को चुनौती देने लगते हैं। यह अनुभव किया जा रहा है कि राजनीतिक दल के कार्यकर्ता अपने दल और देश के संवैधानिक ‘आज्ञापालन के सिद्धांतों’ में भेद नहीं कर पाते और इस कारण निरंतर कानून-व्यवस्था की समस्याएँ खड़ी होती रहती हैं।
इस परिप्रेक्ष्य में यह समझना जरूरी है कि कानून-व्यवस्था की समस्याएँ देश के लिए कितना महँगा सौदा सिद्ध होती हैं। यह समझना भी जरूरी है कि देश की सेना, पुलिस और सुरक्षाबल जब तक अपने बैरक या कैंपस में रहते हैं, उनका अतिरिक्त आर्थिक बोझ देश की व्यवस्था पर नहीं पड़ता। देश में कानून-व्यवस्था की समस्या पैदा होने पर इनके मैदानी प्रबंध और रखरखाव पर शासकीय मशीनरी के व्यय बहुत अधिक बढ़ जाते हैं जो स्वभावतः अनुत्पादक होते हैं।
इसका प्रभाव देश की विकास परियोजनाओं पर विपरीत रूप से पड़ता है। इससे कई बार जरूरी परियोजनाओं के व्यय में कटौती करने की स्थिति बनती है और निर्माणकार्य धीमा पड़ जाता है। परियोजनाओं की लागत बढ़ने से देश का ‘वित्तीय घाटा’ भी बढ़ता है। इसलिए देश में शांति व्यवस्था का रहना देश के विकास की एक जरूरी शर्त माना गया है। विश्व के अनेक देश शांति व्यवस्था की समस्याओं के कारण विकास की पटरी से नीचे उतर गये हैं। इसका प्रभाव धीरे-धीरे, युद्ध की तरह, अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। ऐसे अशांत देश में ‘विदेशी पूंजी निवेश’ की दर भी बहुत घट जाती है।
किसी भी देश के आर्थिक विकास के कार्यक्रमों का एक बड़ा हिस्सा उस देश के प्रशासनिक सुधार भी होते हैं। देश के लोग अपने कल्याण के स्वप्न देखते हैं, परंतु अकुशल तथा पूर्वाग्रह से ग्रस्त प्रशासन कल्याण-कार्यों को जमीन पर नहीं उतार पाता। नतीजे में देश के विकास कार्यों को गति देनेवाली युवा शक्ति निष्क्रिय हो जाती है। यह निष्क्रियता ही विभिन्न सामाजिक संकटों को जन्म देती है। यह लगभग वैसा ही है जैसे बिजली कारखानों में उत्पन्न होनेवाली अतिरिक्त बिजली को भूमि के नीचे उतार दिया जाता है, क्योंकि यह अतिरिक्त बिजली कारखानों और समाज के उपकरणों को नष्ट कर सकती है।
आजकल आज्ञापालन के विरोधाभासों ने एक नया स्वरूप ग्रहण कर लिया है। इससे सरकारी और राजनीतिक कामकाज में जबावदेही की सीमा मिटती जा रही है। नतीजे में अधिकांश युवा और सामान्यजन धार्मिक मामलों में बहुत अधिक आग्रही होते जा रहे हैं। इस तरह के वातावरण को देखते हुए लगता है, जैसे सामाजिक-आर्थिक असमानता से पैदा हुआ लोगों का निजी आक्रोश धर्म संस्कृति के सवालों पर सामूहिक रूप से प्रगट हो रहा है। राजनीतिक दलों द्वारा अपने विरोधियों के विरुद्ध कठोर और दमनात्मक कार्रवाइयाँ करने के परिणामस्वरूप कई बार समाज का यह आक्रोश धर्म और संस्कृति के सवालों के रूप में निकलने को बाध्य होता है।
हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि किसी भी देश की विदेश नीति का आधार उस देश के आर्थिक विकास के अनुकूल ही होता है। ऐसे में लोगों के विकास का आधार केवल धर्म ही कैसे हो सकता है? इसका उत्तर हमें कभी कट्टर शत्रु रहे खाड़ी देशों और इजराइल के मधुर होते संबंधों में मिल सकता है।