‘पुरबी’ के गायक की गाथा

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— संजय गौतम —

लोक गायकी में ‘पुरबी’ की धुन भोजपुरी इलाके में बहुत ही लोकप्रिय है। छपरा में जनमे महेन्दर मिसिर पुरबी के गायक के रूप में एक शताब्दी से ज्यादा समय से लोगों के दिलों पर राज कर रहे हैं। इनके लिखे एवं गाए गीत अविभाजित भारत के लाहौर से लेकर ढाका तक छाए हुए थे। उस समय की रंडियों, पतुरियों के स्वर में भी महेन्दर मिसिर के गीतों की लहरियां चतुर्दिक अपना प्रभाव छोड़ रही थीं और आज इतना समय गुजर जाने के बावजूद हर भोजपुरी लोक गायक उन गीतों से अपने कंठ को सजाता है।

विडंबना यह है कि लोकप्रियता के शिखर पर रहते हुए महेन्दर मिसिर अंग्रेजी शासन में नकली नोट छापने के आरोप में सात साल तक जेल में रहे। उनके जीवन के इर्दगिर्द तमाम कहानियां बुनी गईं। वह किवंदंतियों से घिर गए। ऐसे ही विरोधाभासी व्यक्तित्व पर केंद्रित है प्रख्यात कथाकार संजीव का उपन्यास पुरबी बयार। इसके पूर्व उन्होंने विदेशिया शैली के जनक, भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जानेवाले भिखारी ठाकुर को केंद्र में रखकर भी ‘सूत्रधार’ नाम से उपन्यास लिखा था, जो अपने शोध, शिल्प एवं परिवेश के रचाव के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ। कहने की जरूरत नहीं कि नौकरी और काम-धंधे के लिए भोजपुरी क्षेत्र के विस्थापित जन और उनके परिवार में रह गए पत्नियों, बच्चों के दर्द को महसूस करना हो तो उसके लिए महेन्दर मिसिर और भिखारी ठाकुर अपरिहार्य हैं। पूरी पिछली शताब्दी इन दो कलाकारों के नाम रही है। कोलकाता एक दुःस्वप्न की तरह इनके गीतों में आता रहा है।

संजीव

महेन्दर मिसिर बिहार के छपरा जिले के मिश्रवलिया गांव के रहनेवाले थे। उनके पिता शिव शंकर मिश्र स्थानीय जमींदार हलवंत सहाय का कारोबार देखते थे। ब्राह्मण परिवार का होने के नाते उनकी स्वाभाविक इच्छा थी कि महेन्दर संस्कृत सीखें, शास्त्र सीखें और ज्ञानी ब्राह्मण के रूप में नाम कमाएं, पुरखों का नाम रोशन करें। उन्हें अपने कश्यप गोत्र का कान्यकुब्ज ब्राह्मण होने का बहुत गुमान था, जिसकी याद दिला-दिलाकर वह महेन्दर मिसिर को शिक्षा के लिए फटकारते रहे लेकिन उन्हें तो लोकधुनें अपनी ओर खींच रही थीं। वह कोठों पर जाने लगे। वहीं पंडित रामनारायण मिश्र से उन्होंने गायकी की शिक्षा भी ली। उनके लिखे गीतों को पतुरिया महफिलों में गाने लगीं और उनकी लोकप्रियता बढ़ती चली गई। उस समय की तमाम मशहूर गायिकाओं से उनका परिचय बढ़ता चला गया। विद्याधरी देवी, केसर बाई इत्यादि प्रमुख थीं। पिता के द्वारा फटकारे जाने के बाद वह घर छोड़कर बनारस गए, वहां केसर बाई से मुलाकात हुई। केसर बाई पुरबी की सर्वश्रेष्ठ कलाकार बनना चाहती थीं। उन्होंने अपने साथ ही उनके रहने की व्यवस्था की। अपना सर्वस्व यानी तन, मन, धन अर्पण किया और पुरबी की श्रेष्ठ गायिका बन गईं, लेकिन परिस्थितिवश महेन्दर मिसिर का भ्रम टूटा और वह जगह छोड़कर निकल ही रहे थे कि पिता की मृत्यु की सूचना पर घर लौटे।

घर लौटकर उन्होंने परिवार की देखभाल शुरू की। परिवार में सौतेली मां, छोटे भाई, उनकी दूसरी पत्नी परेवा कुंवरि थी। बीमारी के कारण पहली पत्नी का बहुत जल्दी निधन होने के बाद इनका विवाह परेवा कुंवरि से ही हुआ था, जो उनके गोरे-चिट्टे, लंबे, मजबूत, सुंदर, कद-काठी की तुलना में दब थी। अपने मायके भी उन्हें बार-बार जाना होता था। उनसे महेन्दर मिसिर की आत्मीयता उस तरह नहीं हो सकी, जैसी पहली पत्नी से थी। महेन्दर मिसिर हलवंत सहाय के यहां उनके पूजा-पाठ में सहयोग करने लगे तथा उनका अन्य काम भी देखने लगे। हलवंत सहाय के लिए ही उन्होंने ढेला बाई का अपहरण किया, जबकि ढेला बाई उनके गीतों को गाती थी, उनसे प्रेम करती थी। महेन्दर मिसिर और ढेला के बीच की आत्मीयता को देखते हुए ही हलवंत सहाय ने कटु बात कही और महेन्दर उनका कामकाज छोड़कर हट गए। लेकिन उसी समय उनके मन में हलवंत सहाय के शिव मंदिर से बड़ा शिव मंदिर अपने दरवाजे पर बनवाने की बात धंस गई। गांव में रहकर तो इतनी कमाई हो नहीं सकती थी। वह कोलकाता के लिए निकल गए। साथ में फलफलाहट महाराज भी हो लिए।

कोलकाता रहते हुए उन्होंने गायन के कई कार्यक्रम किए। पैसे भी मिले। उसी दौरान उनकी भेंट निमाई दा से हुई। उन्हीं से उन्हें नकली नोट छापने का साधन मिला, जानकारी हुई। मंदिर बनवाने के लिए उन्हें ढेर सारे रुपए चाहिए थे। वह गांव लौटे, भाई के साथ नोट छापना शुरू किया, मंदिर बना, घर पर खूब ठाट-बाट बढ़ा। रईसी आई। हाथी से चलने लगे। गायकी की लोकप्रियता भी बढ़ती गई। गोपीचंद जासूस ने साथ रहकर उन्हें मय सबूत गिरफ्तार करवाया। भाई को  पांच साल उन्हें सात साल की जेल हुई।

बचपन के खेल-कूद, कुश्ती के जीवन से लेकर जेल से वापस आकर गायकी की महफिल सजाने तक की कथा इस उपन्यास में कही गई है। एक ओर महेन्दर मिसिर को प्यार करनेवाले लाखों लोग हैं, उन पर जान न्योछावर करनेवाली पतुरियायें हैं, जो यह मान ही नहीं सकते कि उन्होंने कुछ गलत किया होगा, दूसरी ओर उन पर नोट छापने का दोष सिद्ध हुआ। वैभव प्राप्त करने और उसे खो देने के बीच वह अकेलेपन में अपने किए-धरे पर चिंतन करते रहे।

उपन्यास में महेन्दर मिसिर के प्रेमी जीवन के कई रंग उभरते हैं। घर में परेवा कुंवरि हैं। उससे आत्मीयता भले उतनी न हो, लेकिन मन में बनी रहती है। केसर बाई को उन्होंने प्रेम किया, साथ में रहे, मन टूटा तो अलग भी हो गए, लेकिन वही केसर बाई जब कोलकाता में भीख मांगती हुई मिली तो उसे घर लाए। उनकी खूब सेवा की। डॉक्टर को दिखाया। अंततः केसर बाई ने अपनी इच्छा के अनुरूप उनकी गोद में ही प्राण त्यागे। उन्होंने केसर का अंतिम संस्कार भी किया। मानवीय प्रेम की ऊष्मा यहां प्रेम के एक नए दायरे का निर्माण करती है। ढेला बाई के प्रति उनके मन में पश्चात्ताप था। वह उन्हें टूटकर प्रेम करती थी। जब वह अपहरण करके घोड़े पर उसे ला रहे थे तब गर्दन में हाथ डाले हुए बड़े विश्वास से उन्हें चूमा था। लेकिन वह तो हलवंत सहाय की कैद में डालकर उससे अलग हो गए। ढेला बाई कभी अलग नहीं हो पाई। वह गिरफ्तार हुए तो ढेला बाई ही थी जो अपने सारे जेवरों की पोटली लेकर वकील-मुख्तार के पास दौड़ती रही, ताकि उन्हें छुड़ा सके। जेल से लौटकर आने पर भी वह उनसे मिलने के लिए बेचैन रही। उसका नाम महेन्दर मिसिर से इस तरह जुड़ गया कि मंदिर के बारे में भी यह किंवदंती कायम हुई कि मंदिर महेन्दर मिसिर का है या ढेला बाई का।

महेन्दर मिसिर का जन्म 16 मार्च 1888 को हुआ और निधन 26 अक्टूबर 1946 को। गीतों के माध्यम से ही उस समय का पूरा परिवेश और अंग्रेजों की रीति-नीति इस उपन्यास में दर्ज हुई है। सटीक तथ्यों के न मिलने के कारण उपन्यास को विकसित करना निश्चित ही एक चुनौती है। किसी निकट के व्यक्तित्व के बारे में लिखते समय तथ्यों की अनदेखी भी नहीं की जा सकती। संजीव अपने ‘निवेदन’ में लिखते हैं, “विडंबना यह कि जाली नोटों के छापने का प्रश्न उनके जीवन से जुड़ गया था। इस संदर्भ में इस उपन्यास के दूसरे सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पात्र जुड़े थे गोपीचंद जासूस, जिनका जीवन और कर्तव्य एक अलग ही किंवदंती है। बेहतर होता कि उन पर अलग से उपन्यास लिखा जाता। फूलों भरी डाल सी लचकती, छम छम बजती, कुछ खिली कुछ अधखिली आघातें सहती ढेला बाई का जीवन अपने आप में एक आख्यान है। ‘पुरबी बयार’ में यथाशक्य महेंद्र मिश्र से जुड़े प्रसंगों को समेटा गया है। “सत्य के गिर्द लताओं की तरह लिपटी अनेक कथाओं-उपकथाओं में कथा अकसर उलझती रही।”

मतलब यह कि गोपीचंद जासूस और ढेला बाई का व्यक्तित्व भी अपने आप में ऐसा रहा कि उसपर अलग से आख्यान लिखा जा सकता है। लेकिन इस उपन्यास में उनका जीवन उतना ही लाया गया है जितना महेन्दर मिसिर के जीवन से जुड़ता है। लेखक ने सत्य और किंवदंतियों के बीच संतुलन बनाते हुए महेन्दर मिसिर के विरोधाभासी व्यक्तित्व को खड़ा किया है। इसके लिए तत्कालीन ब्राह्मणी-सामंती मानसिकता, परिवेश में घुली-मिली रामचरितमानस की पंक्तियों, जनसामान्य के दुर्भिक्ष से भरे जीवन, गिरमिटिया मजदूरों के रूप में बाहर जाने-आने वालों की जीवन स्थितियों, वेश्याओं की दीन-हीनता, रंडियों-पतुरियाओं की जीवन स्थितियों, सभी का बखूबी प्रयोग किया गया है। पात्र के रूप में भिखारी ठाकुर भी हैं। जब महेन्दर मिसिर अपने शिखर पर थे, उसी समय भिखारी ठाकुर अपनी नई शैली के साथ क्षितिज पर उग रहे थे।

कथा विकसित करने के लिए संजीव रसे-रसे, धीरे-धीरे सघन रूप में आगे बढ़ते हैं। गीतों की पंक्तियों के बनने, उनके अर्थ के धीरे-धीरे खुलने, कंठ में उनके बसने एवं नृत्य के पद विन्यास में उनके ढलने के चित्र वह इस तरह खींचते हैं जैसे हम सुबह-सुबह कमल पंखुड़ी को खुलते हुए देख रहे हों। इस तरह हमारे कानों को छूती हुई स्वर लहरियां अपनी पूरी अर्थभंगिमा के साथ हमारे दिलों में धॅंसने लगती हैं। ‘अंगुरी में डसले बिया नगिनिया हो ननदी दियना जराई दा’, ‘ले ले अइहा हो पिया सिंदूरा बंगाल के’, ‘पटना से बैदा बुलाई द नजरा गईली गोइयां’ जैसे तमाम गीतों को अपने परिवेश से उपजते हुए हम देखते हैं।

संजीव ने इस कथा में परेवा कुंवरि यानी महेन्दर मिसिर की पत्नी और ढेला बाई, दोनों के प्रेम को साधा है। परेवा कुंवरि की भूमिका ज्यादा नहीं है लेकिन वह बार-बार इस तरह आती हैं जैसे कोई गृहस्थिन अपने आंचल के भीतर प्रेम का दीप छिपाए हवाओं से उसकी सुरक्षा करती हुई लगातार अपने प्रिय का इंतजार कर रही हो और उसके लिए मंगलकामनाएं कर रही हो। ढेला बाई का प्रेम भी एकनिष्ठ आतुरता से भरा हुआ है। महेन्दर मिसिर इस मामले में किसी दुविधा में नहीं दिखते। वह पूरी तरह प्रेम में हैं। अपने से जुड़े हर व्यक्ति से प्रेम में रहते हुए वे प्रेम को माननीय ऊष्मा से भरे देते हैं। उनके जीवन में प्रेम केवल संबंधों को जीना नहीं है।

संजीव के ये दोनों उपन्यास यानी भिखारी ठाकुर पर केंद्रित ‘सूत्रधार’ और महेन्दर मिसिर पर केंद्रित ‘पुरबी बयार’ भोजपुरी क्षेत्र के लोकजीवन को जीने, आत्मसात करने, क्षेत्र की समस्याओं के प्रति गहरी समझ बनाने के लिए हमें आमंत्रित करते हैं। दोनों उपन्यासों में पिछली शताब्दी के सुख-दुख, हर्ष-उल्लास, विरहियों के दर्द भरे गान और उसकी सृजन प्रक्रिया से हमारा साक्षात्कार होता है। पूरी शताब्दी का क्रूर समय, सामंती अहंकार, अंग्रेजों की कुटिलता, गरीबी, दुर्भिक्ष, गुलामी का अंधकार भरा समय हमारे सामने आता जाता है पुरबी गीतों के रूप में, विदेशिया के रूप में।

किताब – पुरबी बयार (उपन्यास)
लेखक – संजीव
प्रकाशन – सेतु प्रकाशन, सी-21, नोएडा सेक्टर-65
पिन- 201301
ईमेल – [email protected]
मूल्य- ₹240 मात्र

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