वैकल्पिक शिक्षा-पद्धति का सवाल

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— नन्दकिशोर आचार्य —

भारत में शिक्षा-प्रणाली की समीक्षा के लिए बनाये गये सभी आयोगों और समितियों द्वारा यह बात एक स्वर से स्वीकार की जाती रही है कि ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा प्रवर्तित शिक्षा-प्रणाली को त्यागे बिना समाज की गति को ठीक रास्ते पर नहीं लाया जा सकता। मैकाले की शिक्षा-नीति पर जब भी चर्चा होती है तो उसमें दो बिंदु ही अधिक उभर पाते हैं। एक तो यह कि यह शिक्षा ज्ञान की वास्तविक उपलब्धि के बजाय परीक्षा में सफलता पर आधारित है, और दूसरा यह कि यह शिक्षार्थी को बाबू-क्लर्क बना देती है। मैकाले का प्रयोजन क्योंकि अंग्रेजी साम्राज्य को चलाये रखने वाले बाबू तैयार करना था, इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं लगता कि हमारा सारा प्रशासन और विकास-प्रक्रिया उस बाबू मानसिकता से ग्रस्त है जो हर किसी के प्रति आशंका से त्रस्त रहती है।

लेकिन मैकाले-नीति का इससे भी बड़ा प्रयोजन इस समाज की अपनी ज्ञान-धारा को नष्ट कर के उसकी जगह औपनिवेशिक ज्ञान-धारा की प्रतिष्ठा करना था। उन्नीसवीं सदी के आरंभ में विभिन्न ब्रिटिश अधिकारियों के पत्राचार में यह स्पष्ट कहा गया है कि भारतीयों को केवल अंग्रेजी साहित्य आदि पढ़ाने से काम नहीं चलेगा– क्योंकि जब तक भारतीय विज्ञान और शास्त्र को पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान के सम्मुख हीन नहीं सिद्ध किया जाता तब तक उनको औपनिवेशिक शासन का स्थायी अनुगामी बना सकना संभव नहीं होगा।

लेकिन, दुर्भाग्य यह है कि हमारी अधिकांश शिक्षा-समीक्षाएँ सही सरोकारों के बावजूद इस औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त नहीं हैं और इसीलिए इस मान्यता को स्वीकार कर लेती हैं कि हमारे देश के अधिकांश जन अभी भी शिक्षा से वंचित हैं। यदि वर्तमान शिक्षा ही एकमात्र सही शिक्षा नहीं है तो इस देश के अधिकांश निवासियों को शिक्षा से वंचित मानने का कोई औचित्य नहीं है– क्योंकि किसी-न-किसी व्यवसाय या मजदूरी में लगे अधिकांश लोगों को अपने धंधे का आवश्यक प्रशिक्षण प्राप्त है- निरक्षर लोगों को भी– और अपने-अपने व्यवसाय में उनकी कुशलता का स्तर किसी आधुनिक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति से कम नहीं है।

दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि देश की अधिकांश जनता कमोबेश अपनी जिस ज्ञान-धारा में प्रशिक्षित है, उसे ही राज्य की मान्यता प्राप्त नहीं है क्योंकि राज्य का वर्तमान ढाँचा और नेतृत्व उसी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त है, जो मैकाले का प्रयोजन था। देश के संकटों की अधिकांश बौद्धिक जिम्मेदारी कथित शिक्षा से वंचित वर्ग पर नहीं, बल्कि उस वर्ग पर है जिसे हम फिलहाल शिक्षित मानते हैं, लेकिन जो देश की वास्तविक मुख्यधारा से कटा हुआ है।

यदि हम इस स्थिति से सचमुच छुटकारा पाना चाहते हैं तो हमें अपना बल-बिंदु बदलना होगा और यह स्वीकार करना होगा कि इस देश का कथित शिक्षित वर्ग ही वास्तविक शिक्षा से वंचित है– बल्कि इसे कुशिक्षित वर्ग कहना शायद ज्यादा सही होगा- और जरूरत इस बात की है कि इस वर्ग को कुशिक्षा से मुक्त किया जाए। दूसरे शब्दों में, इसका मतलब होगा समाज  की अपनी ज्ञान-धारा को राज्य द्वारा पूर्ण मान्यता और उसके विच्छिन्न और लुप्त स्रोतों की खोज और पुनर्प्रतिष्ठा का निष्ठापूर्ण प्रयास।

अंग्रेजी शासन की शुरुआत से ही औपनिवेशिक ज्ञान-धारा को हम मुख्यधारा मानने के मुगालते में रहे हैं– चाहे अपने पर उसे थोपे जाने के सारे राजकीय और गैर-राजकीय औपनिवेशिकतावादी प्रयत्नों के बावजूद अधिकांश समाज ने उसे स्वीकार नहीं किया हो।

यह आश्चर्यजनक है कि लगभग दो सौ वर्षों की अनवरत कोशिश के बावजूद देश का अधिसंख्य जन इस कथित मुख्यधारा से अलग अपनी विरल होती जा रही ज्ञान-परंपरा से कमोबेश जुड़ा रह सका– जब कि इस परंपरा के पीछे राज्य या पूँजी जैसे किसी संगठित और साधन-संपन्न प्रतिष्ठान का कोई समर्थन नहीं बचा रह सका है। सच तो यह है कि साक्षरता के कम हो जाने की अधिकांश जिम्मेदारी भी इसी शिक्षा-पद्धति की है क्योंकि उसके द्वारा दी जानेवाली साक्षरता जिस ज्ञान-विज्ञान से जुड़ी थी, उसे भारत का अधिकांश जन अपनी आवश्यकता के अनुरूप नहीं पाता था और दुर्भाग्य से एक ही प्रकार की ज्ञान-धारा की संस्थागत मान्यता के कारण अन्य कोई संगठन नहीं बचा था, जो साक्षरता और पारंपरिक श्रुतिपरक और व्यवहारिक ज्ञान-धारा के बीच सर्जनात्मक रिश्ता कायम करते हुए उसे व्यापक समाज तक पहुँचा पाता।

सामान्य नियम है कि जिस चीज की जरूरत नहीं होती, उसका प्रचलन नहीं हो पाता। साक्षरता के साथ भी अंग्रेजीपरस्त शासन में यही हुआ। आधुनिक राज्य और पूँजी-संस्थान यदि साक्षरता के प्रसार पर इतना अधिक जोर देने लगे हैं तो इसका वास्तविक कारण यही है कि समाज जितना अधिक इस औपनिवेशिक ज्ञान-धारा से जुड़ी साक्षरता प्राप्त कर लेगा, उतना ही वह आधुनिकतावादी बाजार और राज्य के अधिक अनुकूल होता जाएगा।

अक्सर हमारे शिक्षाशास्त्री वर्तमान शिक्षा के विकल्प के नाम पर उसी में यत्र-तत्र कुछ प्रक्रियागत या प्रशासनगत सुधार करते रहे हैं। वे इस बात को लगभग भूल जाते हैं कि समाज की अपनी एक अलग शिक्षण-प्रक्रिया है और उसी में विकल्प खोजा जा सकता है।

आधुनिकतावादी शिक्षा के लोग अक्सर हमारे निरक्षर माने जानेवाले संतों या कुछ आधुनिक लेखकों आदि के ज्ञान पर इसलिए आश्चर्य प्रकट करते रहे हैं कि स्कूली या विश्वविद्यालयी शिक्षा में से गुजरे बिना उन्होंने कैसे इतना पांडित्य प्राप्त कर लिया! लेकिन तब वे इस बात की अनदेखी कर रहे होते हैं कि आधुनिक शिक्षा-प्रणाली में से गुजरे बिना उनके अपने विषय में निष्णात होने की प्रक्रिया में ही तो मैकालेवादी शिक्षा का विकल्प मुखरित हो रहा है। क्या इस प्रक्रिया का कोई संस्थागत स्वरूप संभव नहीं हैं?

ऐसा नहीं है कि शिक्षाशास्त्रियों ने पारंपरिक ज्ञान को अनदेखा किये जाने पर चिंता न प्रकट की हो या स्वदेशी प्रौद्योगिकी आदि के विकास के प्रस्ताव न किये हों। यह भी स्पष्ट है कि जिस प्रौद्योगिकी ने बेरोजगारी पैदा की है, उससे मुक्ति के बिना सभी के लिए रोजगार संभव नहीं है। लेकिन, तब यह केवल शिक्षा-प्रक्रिया का सवाल नहीं, बल्कि समूची जीवनदृष्टि और विकास की एक समान्तर अवधारणा का सवाल होगा।

कई बार शिक्षा व्यवस्था के विकेंद्रीकरण पर भी बल दिया जाता रहा है। लेकिन, क्या वह राजसत्ता और अर्थसत्ता के विकेंद्रीकरण के बिना संभव है?और क्या वह विकेंद्रीकरण तब, फरेब नहीं होगा यदि उसमें स्थानीय समाज की निर्णायात्मक पहल और विशिष्टता न बची रह सके? इसलिए यह केवल शिक्षा-नीति का ही नहीं, राजनीति और अर्थनीति से भी जुड़ा सवाल है। क्या राजसत्ता और अर्थसत्ता के वर्तमान संस्थान अपनी हैसियत को कम करने और एक वास्तविक लोकतांत्रिक समाज बनाने में सचमुच प्रयत्नशील हो सकेंगे?

राजसत्ता और अर्थसत्ता की वर्तमान संस्थाओं की नीयत और उनकी कार्य-प्रक्रिया इन प्रश्नों का उत्तर नकार में ही देती लगती है। वर्तमान सत्ता-संस्थान विकास की औपनिवेशिक या आधुनिकवादी अवधारणा की ही गिरफ्त में हैं।

कई बार मातृभाषा और क्षेत्रीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने और समाजविज्ञानों में नयी शोध आदि के लिए साधन जुटाने पर भी बल दिया जाता है। यह कहना सही है कि असमानता को कम करने के लिए क्षेत्रीय भाषाओं में सीखने के संसाधनों के विकास का विशेष प्रयास किया जाना चाहिए और समाज-विज्ञान का क्षेत्र विकसित करने से नयी विचार-प्रक्रियाओं और सर्जनात्मक चिन्तन को प्रोत्साहन मिलता है। इसके कारण विकास के स्वरूप व दिशा के अध्ययन में सहायता मिलती है जो कि नयी नीतियों की खोज में आवश्यक चिंतन के नये दायरे बनाने के लिए महत्त्वपूर्ण है।

लेकिन, क्षेत्रीय भाषाओं को ज्ञान का माध्यम बनाने का काम यदि आज तक सफल नहीं हो सका है तो इसके पीछे भी मुख्य कारण यही है कि हमारा जोर ज्ञान और चिंतन के माध्यम को अनुवाद और अनुकरणगामी भाषा बनाने पर रहा है। जब तक समाजविज्ञानों के क्षेत्र में देसी ज्ञान की प्रतिष्ठा नहीं होती तब तक न तो अपने देश के बारे में कोई सर्जनात्मक चिंतन संभव है और न प्रादेशिक भाषाओं के सीखने के वास्तविक माध्यम के रूप में कोई संस्थागत मान्यता मिल सकती है।

वस्तुतः, देशज ज्ञान-विज्ञान में ऐसी कोई चीज नहीं है जो मातृभाषा या प्रादेशिक भाषा में व्यक्त न की जा सकती हो। कठिनाई तब आती है जब हम एक स्वाधीन भाषा को औपनिवेशिक ज्ञान-विज्ञान और ज्ञानमीमांसा का माध्यम बनने पर मजबूर करते हैं। इस प्रक्रिया में वह यदि चिंतन की नहीं, अनुवाद की बोझिल भाषा बनने पर विवश होकर असम्प्रेषणीय-सी लगे तो यह उसकी असमर्थता नहीं बल्कि ताकत है– यह ताकत कि वह केवल मूल्यनिरपेक्ष संकेतात्मक ध्वनि नहीं, बल्कि एक जीवन्त परंपरा है।

यदि शिक्षा में हम पारंपरिक ज्ञान-धारा को मान्यता देते हैं तो भारतीय भाषाओं को अपनाने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं बचता क्योंकि उनके बिना उस ज्ञान या प्रशिक्षण का सर्जनात्मक विकास संभव नहीं है।

इसलिए वर्तमान शिक्षा-नीति का विकल्प केवल परीक्षागत या प्रशासनगत सुधारों में नहीं बल्कि ज्ञान–विज्ञान की देशी पद्धति और उसकी कारक उस मूल्य-दृष्टि और तत्त्व–दृष्टि में है, जो अब भी इस देश के बहुसंख्यक मगर असंगठित जन के मनों में, राख में दबे अंगार–सी ही सही, सुलग तो रही है। क्या वह अंगार यज्ञ–ज्वाल बन सकेगा?

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