वन संरक्षण कानून में बदलाव का किसानों के साथ विपक्ष ने किया विरोध

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13 जुलाई। केंद्र की मोदी सरकार द्वारा वन संरक्षण कानून के नियमों में बदलाव का विरोध करते हुए छत्तीसगढ़ किसान सभा ने इन संशोधनों को कॉरपोरेटों के हाथों वन संसाधनों को सौंपने और आदिवासियों के अस्तित्व को खत्म करने की साजिश करार दिया है। हालाँकि कांग्रेस ने भी रविवार को आरोप लगाया कि केंद्र की मोदी सरकार जनजातियों के अधिकारों की रक्षा करने की अपनी जिम्मेदारी से पीछे हट रही है। हालांकि पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने इन आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि नये नियम वन अधिकार अधिनियम के प्रावधानों को ‘‘न तो कमजोर और न ही उनमें हस्तक्षेप करते हैं।”

किसान सभा का कहना है, कि संशोधित नियमों ने ग्राम सभाओं और वनों में रहनेवाले आदिवासी समुदायों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के अधिकारों को पूरी तरह से समाप्त कर दिया है क्योंकि सरकार द्वारा विकास परियोजनाओं के अनुमोदन और मंजूरी से पूर्व प्रत्येक ग्राम सभा की सहमति की अनिवार्यता को खत्म कर दिया गया है। इसलिए इन नियमों को तुरंत निरस्त किया जाना चाहिए। आज यहाँ जारी एक बयान में छत्तीसगढ़ किसान सभा के अध्यक्ष संजय पराते और महासचिव ऋषि गुप्ता ने कहा है, कि वन संरक्षण कानून के नियमों में इस प्रकार के संशोधनों से निजी और कॉरपोरेट कंपनियों का देश के वनों पर नियंत्रण स्थापित होगा। संशोधित नियमों के अनुसार प्रतिपूरक वनीकरण के लिए अन्य राज्यों की गैर-वन भूमि उपलब्ध कराई जाएगी, जिसका सीधा प्रभाव आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर तबकों के भूमि-विस्थापन के रूप में सामने आएगा और जिनके लिए पुनर्वास और मुआवजे का कोई प्रावधान नहीं किया गया है। इस प्रकार भूमिहीनों की जमीन भी कॉरपोरेट कंपनियों के हाथों चली जाएगी।

किसान सभा के नेताओं ने कहा है, कि वन कानून के नियमों में ये संशोधन पूरी तरह से आदिवासी समुदायों और कमजोर तबकों को दी गई संवैधानिक गारंटी के खिलाफ हैं तथा यह आदिवासी वनाधिकार कानून, पाँचवीं और छठी अनुसूचियों, ‘पेसा’ और संशोधित वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम का भी उल्लंघन है। ये संशोधित नियम वर्ष 2013 में नियमगिरि खनन मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी उल्लंघन है। किसान सभा ने आरोप लगाया है, कि इन नियमों को प्रभावित समुदायों से विचार-विमर्श किये बिना और जनजातीय मामलों के मंत्रालय के सुझावों को नजरअंदाज करके बनाया गया है। इसलिए इन नियमों को संसद की संबंधित स्थायी समिति के पास जाँच के लिए भेजा जाना चाहिए। देश की आम जनता के साथ सलाह-मशविरा किया जाना चाहिए और जनजातीय मामलों के मंत्रालय की राय को शामिल किया जाना चाहिए, जो वन अधिकार अधिनियम के क्रियान्वयन के लिए नोडल मंत्रालय है। तब तक के लिए इन नियमों को लागू करना स्थगित करने की माँग किसान सभा ने की है।

कांग्रेस पार्टी ने साथ ही कहा, कि नये वन संरक्षण नियम करोड़ों ‘‘जनजातियों’’ और वन क्षेत्र में रह रहे लोगों को शक्तिविहीन बना देंगे। हालांकि सरकार की तरफ से भी इसका पलटवार किया गया। हालांकि पर्यावरण मंत्री ने कहा, कि नरेंद्र मोदी सरकार जनजातियों के अधिकारों को संरक्षित करने को लेकर प्रतिबद्ध है। पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भाजपा नीत सरकार पर ‘‘वन भूमि को छीनने की प्रक्रिया आसान बनाने के लिए’’ वन रक्षा नियमों को कमजोर करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी ‘‘मजबूती से जनजातीय समुदाय के भाइयों और बहनों’’के साथ खड़ी है। राहुल गांधी ने ट्वीट किया, ‘‘ ‘मोदी-मित्र’ सरकार अपनी मित्रता में बेहतरीन! ‘जंगल की जमीन छीनने में सुगमता’ के लिए भाजपा सरकार नये वन संरक्षण नियम-2022 के साथ आई और सप्रंग राज के वन अधिकार नियम-2006 को कमजोर कर रही है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘कांग्रेस मजबूती के साथ हमारे आदिवासी भाइयों और बहनों की ‘जल-जंगल और जमीन’ बचाने की लड़ाई में खड़ी है।’’

कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने कहा, कि हाल में जारी नये नियम केंद्र सरकार द्वारा अंतिम रूप से वन मंजूरी देने के बाद ही वन अधिकार के मुद्दे को निपटाने की अनुमति देते हैं। उन्होंने एक बयान में कहा, ‘‘निश्चित तौर पर यह कुछ चुने गए लोगों के लिए ‘व्यापार सुगमता’ के नाम पर किया गया। लेकिन यह बड़ी आबादी की ‘जीविकोपार्जन सुगमता’ समाप्त करेगा।’’ पूर्व पर्यावरण मंत्री ने कहा, कि इसने वन भूमि को किसी अन्य उपयोग के लिए इस्तेमाल के प्रस्ताव पर विचार करने के लिए वन अधिकार अधिनियम-2006 के उद्देश्य और अर्थ को ही खंडित कर दिया है।

रमेश ने कहा, ‘‘एक बार वन मंजूरी दे देने के बाद बाकी सभी चीजें महज औपचारिकता रह जाएंगी और यह लगभग तय है कि किसी भी दावे को स्वीकार नहीं किया जाएगा व उनका समाधान नहीं होगा। इसके तहत राज्य सरकारों पर केंद्र की ओर से वन भूमि को अन्य उपयोग के लिए बदलने की प्रक्रिया को तेज करने के लिए अधिक दबाव बनाया जाएगा।’’ रमेश ने कहा, कि ‘अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006’ जिसे वन अधिकार अधिनियम, 2006 के रूप में जाना जाता है, एक ऐतिहासिक और प्रगतिशील कानून है जिसे संसद द्वारा व्यापक बहस और चर्चा के बाद सर्वसम्मति से और उत्साहपूर्वक पारित किया गया है। और यह देश के वन क्षेत्रों में रहने वाले जनजातीय, दलित और अन्य परिवारों को, व्यक्तिगत और समुदाय दोनों को भूमि और आजीविका के अधिकार प्रदान करता है।

अगस्त 2009 में इस कानून के पूर्ण कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए, तत्कालीन पर्यावरण और वन मंत्रालय ने निर्धारित किया कि वन संरक्षण अधिनियम, 1980 के तहत वन भूमि के अन्य किसी इस्तेमाल के लिए किसी भी मंजूरी पर तब तक विचार नहीं किया जाएगा जब तक कि वन अधिकार अधिनियम 2006 के पहले उनका निपटारा नहीं कर दिया जाता। उन्होंने कहा, ‘‘यह पारंपरिक रूप से वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी और अन्य समुदायों के हितों की रक्षा और बढ़ावा देने के लिए किया गया था।’’

उन्होंने दावा किया, ‘‘अब हाल ही में जारी नये नियमों में मोदी सरकार ने केंद्र सरकार द्वारा वन मंजूरी के लिए अंतिम मंजूरी मिलने के बाद वन अधिकारों के निपटान की अनुमति दी है।’’ कांग्रेस के आरोपों का जवाब देने के लिए यादव ने ट्विटर का सहारा लिया। उन्होंने कहा, कि वन (संरक्षण) नियम-2022 सुधारात्मक हैं, जिसका उद्देश्य अधिनियम के तहत मंजूरी की प्रक्रिया को सुचारु बनाना है और वन अधिकार अधिनियम-2006 सहित कानूनों और नियमों के तहत समानांतर प्रक्रिया को सक्षम बनाना है।

यादव ने कहा, ‘‘आरोप यह दुष्प्रचार करने की कोशिश है कि नियम कानून के अन्य प्रावधानों पर ध्यान नहीं देते।’’ उन्होंने कहा, ‘‘श्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में सरकार जनजातियों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध है।’’ जयराम रमेश के आरोपों का जवाब देते हुए मंत्री ने कहा कि, “जयराम जी आप उस समस्या की ओर संकेत करने की कोशिश कर रहे हैं, जो मौजूद ही नहीं है। वन अधिकार अधिनियम के प्रावधानों को कमजोर नहीं किया गया है, जैसा कि गलत तरीके से व्याख्या की जा रही है क्योंकि वन अधिकार अधिनियम-2006 को पूरा करने और प्रतिबद्धता का विशेष तौर पर उल्लेख नियमों में किया गया है, इससे पहले की राज्य भूमि उपयोग के बदलाव का आदेश जारी करता।’’

हालांकि, जयराम रमेश ने पलटवार करते हुए कहा, ‘‘मंत्री जी, कृपाकर मुख्य मुद्दे से नहीं बचें। मुद्दा यह है, कि क्या आप ग्राम सभा को अप्रासंगिक नहीं बना रहे? आपको संभवत: सही तरीके से जानकारी नहीं दी गई है। आपके नये नियम मोदी सरकार के जनजातीय मंत्रालय के 2015 के नोट के खिलाफ जाते हैं।’’ कांग्रेस ने कहा, कि नये नियमों की घोषणा संसद की विज्ञान, प्रौद्योगिक, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन पर स्थायी समितियों सहित हितधारकों से चर्चा किए बना कर दी गई और संसद के आगामी सत्र में इसको चुनौती दी जाएगी।

रमेश ने हैशटैग आदिवासी विरोधी नरेंद्रमोदी के साथ ट्वीट किया, ‘‘अगर मोदी सरकार द्वारा जनजातियों के हितों की रक्षा करने और उन्हें प्रोत्साहित करने की वास्तविक मंशा दिखाई गई है तो यह फैसला है, जो करोड़ों जनजातियों और वन क्षेत्र में रहने वाले लोगों को शक्तिविहीन बनाएगा।’’ उन्होंने एक समाचार रिपोर्ट साझा करते हुए कहा कि सरकार जनजातियों और वनवासियों की सहमति के बिना जंगलों को काटने की मंजूरी दे रही है। माकपा पोलित ब्यूरो सदस्य और पूर्व राज्यसभा सांसद बृंदा करात ने वनमंत्री को इन नए संशोधनों का विरोध करते हुए एक पत्र लिखा था। बृंदा ने इन नए संशोधनों को आदिवासी समुदायों को दी गई संवैधानिक गारंटी के खिलाफ बताया और कहा कि यह 2013 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन है।

(News Click से साभार)

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