— अशोक वर्मा —
ऋषि तुल्य राजनेता, प्रख्यात एवं मौलिक मार्क्सवादी चिंतक, अलग झारखंड राज्य के शिल्पकार तथा माफिया के चंगुल में कराहते कोयला मजदूरों के उद्धारक कॉमरेड एके राय की पुण्यतिथि पर उन्हें दिल की गहराइयों से नमन, सलाम और हूल जोहार।
राय दा से मेरी पहली मुलाकात 1976 में आपातकाल के दौरान हजारीबाग जेल में हुई थी। मीसाबंदी होने के नाते हम सभी बी क्लास की सुविधा के अधिकारी थे। यानी सोने को चौकी, गद्दा, तकिया, चादर, कंबल, मच्छरदानी और खाने को आटा, चावल, दाल, सब्जी के अलावा घी, दूध, मक्खन, चिकन, मच्छी, मटन सभी उपलब्ध थे। चार जोड़ी कपड़ा और गर्म ऊनी कोट के भी अधिकारी थे।
लेकिन राय दा ने तो इन सुविधाओं की ओर कभी देखा तक नहीं। फर्श पर जेल में निर्मित बेहद रफ एक कंबल को बिछा कर सोते थे। सर्दियों में ऐसे ही कंबल को ओढ़ लेते थे। तकिया और चादर भी नहीं लिया था। कोयले की एक छोटी सी अंगीठी पर खुद खाना पकाते थे। खाना भी क्या? छोटी सी पतीली में चावल और आलू उबालकर माड़-भात तथा आलू का भरता खाकर तृप्त हो जाते थे। उनके मेन्यू में बदलाव के रूप में सिर्फ खिचड़ी होती थी। हम अपनी रसोई में बने पकवानों को लेकर उनके पास जाते थे तो बड़ी विनम्रता से ठुकरा देते थे।
राय दा ने जेल से मिलनेवाला एक भी वस्त्र नहीं लिया था। बाहर से लेकर आए दो जोड़ी साधारण कपड़े में ही 18 महीने का पूरा जेल जीवन काट दिया। चाय भी बगैर शक्कर-दूध की पीते थे। सभी बंदियों को सहायक (अन्य मुकदमों के विचाराधीन बंदी) की सुविधा भी मिली हुई थी। सहायक हम राजबंदियों का खाना पकाने, कपड़े धोने सहित तमाम काम करते थे। परंतु राय दा ने कोई सहायक नहीं लिया था। खाना पकाने, बर्तन और कपड़े धोने से लेकर तमाम काम खुद करते थे। जेल में आने के पूर्व राय दा विधायक थे। जेपी के आह्वान पर उन्होंने सबसे पहले विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया था।
राय दा के साथ गुजारे जेल जीवन को जब भी याद करता हूॅं, अपने ठाट वाले बंदी-काल को लेकर अपराध बोध होता है। शर्म तथा ग्लानि में डूब जाता हूॅं। अभी भी सोचता हूॅं कि काश मैं राय दा का सहस्रांश भी बन पाता।