27 जुलाई। 26 जुलाई 2022 को छत्तीसगढ़ विधानसभा की कार्यवाही कई मायनों में उल्लेखनीय रही। इस दिन जिस सक्रियता से राज्य के जंगलों, आदिवासी समुदायों, प्रकृति और उनके संरक्षण पर पक्ष और विपक्ष के सभी सदस्यों ने बहस में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, उसकी सराहना की जानी चाहिए। केवल हसदेव अरण्य से जुड़े हुए करीब 20 प्रश्नों पर चर्चा हुई।
इसी दिन विधानसभा ने दो महत्त्वपूर्ण संकल्प भी लिये। पहला, एक शासकीय संकल्प है जो भारत सरकार के वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन के मंत्रालय द्वारा वन संरक्षण कानून, 1980 के नियमों में किए गए संशोधनों को रद्द करने के संबंध में है। यह संकल्प छत्तीसगढ़ सरकार वन मंत्री मोहम्मद अकबर ने पेश किया, जिसे सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया।
दूसरा महत्वपूर्ण लेकिन अ-शासकीय संकल्प जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ पार्टी के विधायक धरमजीत सिंह ठाकुर ने पेश किया, जिसमें हसदेव अरण्य क्षेत्र में आवंटित सभी कोयला खदानें निरस्त करने का अनुरोध केंद्र सरकार से करने का प्रस्ताव रखा गया। इसे भी सभी सदस्यों ने सर्वसम्मति से पारित कर दिया।
इन दोनों महत्त्वपूर्ण प्रस्तावों के जरिये जहां एक तरफ राज्यों और संघीय सरकार के अधिकार क्षेत्रों पर चल रही बहस को सतह पर ला दिया है वहीं राज्यों को अपने संसाधनों के संरक्षण और जन आकांक्षाओं को लेकर जबावदेह बनाने की दिशा में एक ठोस पहलकदमी की है।
पहला संकल्प
28 जून 2022 को वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने वन संरक्षण कानून के संशोधित नियम अधिसूचित किए हैं। जिसकी आलोचना हो रही है। कहा जा रहा है कि ये संशोधन न केवल गैर कानूनी हैं बल्कि वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की स्थापना के बुनियादी तर्क के खिलाफ हैं। वन संरक्षण कानून, 1980 में धारा 5 में यह स्पष्ट किया गया है कि ‘अगर केंद्र सरकार इस कानून के क्रियान्वयन के लिए कोई नियमावली बनाती भी है तो वो केवल और केवल वन संरक्षण की दिशा में ही बनाए जाना चाहिए न कि वनों के क्षरण या विनाश की दिशा में।’
छत्तीसगढ़ विधानसभा में इस संशोधन को वापस लेने कर संकल्प पारित किया गया। दिलचस्प पहलू यह है कि छत्तीसगढ़ सरकार वन भूमि के डायवर्सन में ग्राम सभाओं की निर्णयात्मक भागीदारी को लेकर आशंकाएं व्यक्त कर रही है और उनके सांवैधानिक व कानूनी अधिकारों व शक्तियों को लेकर सरोकार प्रदर्शित कर रही है, लेकिन इससे उलट हसदेव अरण्य और नंदराज पहाड़ के मामलों में इन्हीं ग्राम सभाओं की शक्तियों व अधिकारों को सिरे से नकार रही है। यह दोहरापन राज्य सरकार की अच्छी मंशा को भी कटघरे में खड़ा करता है।
दूसरा संकल्प
हालांकि यह एक अशासकीय संकल्प है लेकिन इसे सर्वसम्मति से पारित किया गया है जिसका आशय यह है राज्य के सत्तारूढ़ दल और प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी की भी इस संकल्प के साथ सम्पूर्ण सहमति है। ऐसे में केंद्र सरकार की जबावदेही के साथ-साथ राज्य सरकार का भी दायित्व बनता है कि वो इस संकल्प को तत्काल धरातल पर उतारे। कोयला मूलत: राज्य का विषय है लेकिन इसके आबंटन या नीलामी का अधिकार केंद्र सरकार के पास है। छत्तीसगढ़ विधानसभा ने अपने राज्य के चुनिन्दा समृद्ध जंगलों में शुमार हसदेव अरण्य के संरक्षण को लेकर प्रतिबद्धत्ता इस संकल्प के जरिये दिखलाई है और केंद्र सरकार से यह अनुरोध किया है कि इस प्राकृतिक जंगल में आबंटित किए गए तमाम कोल ब्लॉक्स को निरस्त किया जाए।
एक दशक से चल रहे आंदोलन में जहां एक समय भारतीय जनता पार्टी हसदेव अरण्य में कोयला खनन की प्रक्रिया को आगे बढ़ा रही थी तो बीते 3 साल से कांग्रेस नीत सरकार और तेज़ गति से यहाँ खनन के लिए आतुर है। एक समय कांग्रेस इसके विरोध में थी तो आज राज्य की भारतीय जनता पार्टी जनमत को देखते हुए इन खदानों का विरोध कर रही है।
दिलचस्प पहलू यह भी है कि जब राज्य में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी तब केंद्र में कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गांठबंधन की सरकार थी और अब जब राज्य में कांग्रेस में सरकार है तब केंद्र में भारतीय जनता पार्टी नीत राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन की सरकार है। महज़ हसदेव अरण्य के संदर्भ में देश के दो मुख्य राजनैतिक दलों की नीति और नीयत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि दोनों ही राजनैतिक दल न केवल नीति और नीयत में हमख्याल हैं बल्कि दोनों ही नव-उदारवाद और क्रोनी कैपिटलिज्म को समर्पित हैं।
अब, दोनों राजनीतिक दल एक राज्य में जनभावनाओं को देखते हुए हसदेव अरण्य को बचाने और उसे अक्षुण्ण रखने के लिए संकल्पित हो रहे हैं तो यह देखना दिलचस्प है कि अपने अपने हिस्से आयीं जिम्मेदारियों को लेकर इनका रवैया क्या होगा?
दोनों संकल्पों में कितना है दम?
हालांकि इस संकल्प को लेकर हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समति और छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन से जुड़े सामाजिक व पर्यावरण कार्यकर्ता बहुत संतुष्ट नहीं हैं।
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक सदस्य आलोक शुक्ला कहते हैं कि – “अव्वल तो ऐसे संकल्पों की बहुत अहमियत हमारे मौजूदा लोकतन्त्र में बची नहीं है। हर सत्र में ऐसे कितने ही संकल्प पारित होते हैं लेकिन उन्हें न तो राज्य सरकार और न ही केंद्र सरकार कभी गंभीरता से लेते हैं।
इस संकल्प पर सवाल उठाते हुए वह कहते हैं कि यह संकल्प अशासकीय क्यों है? यानी इसे किसी गैर-सरकारी सदस्य ने क्यों पेश किया? अगर राज्य सरकार वाकई इस संकल्प के साथ है तो यह संकल्प सत्तारूढ़ दल के किसी सदस्य को पेश करना चाहिए था।
दूसरी बात है कि अगर राज्य सरकार वाकई हसदेव अरण्य के संरक्षण को लेकर इतना गंभीर है तो वह बहुत पहले ही अपनी शक्तियों के अधीन ऐसे कई कदम उठा सकती थी जिनसे इस समृद्ध जंगल में कोयला खदानों के लिए रास्ता बंद किया जा सकता था। यह संकल्प पारित करके राज्य सरकार ने अपने दोहरे रवैये का ही इजहार किया है। लेकिन अब जब हसदेव अरण्य को बचाने का संकल्प पारित हो ही गया है तो कम से कम राज्य सरकार को केंद्र की तरफ देखे बिना उस पर आरोप लगाए बिना तत्काल प्रभाव से फर्जी ग्रामसभाओं की पारदर्शिता से जांच करवाना चाहिए और उनके आधार पर पूर्व में दी गईं तमाम स्वीकृतियों को रद्द कर देना चाहिए। यह पूर्ण रूप से राज्य सरकार के शक्ति-क्षेत्र में आता है”।
उलेखनीय है कि हसदेव अरण्य में मौजूद कोयला खदानों में 5 में से 4 कोयला खदानें राजस्थान राज्य विद्युत निगम को आबंटित हैं जो प्रकारांतर से अंतत: अडानी के हाथों में हैं। इस समय राजस्थान में भी कांग्रेस सत्ता में है। इसलिए कांग्रेस को यह सहूलियत भी है एक राज्य अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए दूसरे राज्य को आबंटित खदानों को स्वीकृतियाँ न दे तो वहीं राजस्थान इन खदानों को केंद्र को लौटा दे।
– सत्यम श्रीवास्तव
(डाउन टु अर्थ से साभार)