31जुलाई। संयुक्त किसान मोर्चा के आह्वान पर आज तमाम किसान संगठन 11 बजे से 3 बजे तक चक्का जाम करेंगे। अलबत्ता हरियाणा में तीज के त्योहार और विद्यार्थियों की परीक्षा को देखते हुए, कार्यक्रम का स्वरूप धरना प्रदर्शन और पुतला दहन का कर दिया गया है।
ऐसा लगता है कि किसान आंदोलन का एक नया दौर शुरू हो रहा है। और इसके लिए खुद सरकार जिम्मेवार है। उसने हरेक मुद्दे पर किसानों को धोखा दिया है। पिछले साल 19 नवंबर को तीनों काले कृषि कानून वापस लेते समय सरकार ने भरोसा दिलाया था कि एमएसपी और अन्य मांगों पर विचार करने के लिए एक कमेटी गठित की जाएगी। सरकार ने अब जाकर कमेटी तो गठित कर दी है लेकिन इससे किसानों में कोई उम्मीद जगने के बजाय उलटे संयुक्त किसान मोर्चा ने जो आशंकाएं जताई थीं वे सब सच साबित हुई हैं। कमेटी अध्यक्ष से लेकर सदस्यों तक, चुन चुनकर ऐसे लोगों को रखा गया है जो तीनों काले कानूनों का खुलकर समर्थन करते रहे हैं। यहां तक कि ऐसे लोग भी इस कमेटी में हैं जो आंदोलनकारी किसानों को गुंडा करार देते हुए उनके साथ हिंसा के लिए उकसा रहे थे।
इस सब को देखते हुए संयुक्त किसान मोर्चा ने उचित ही कमेटी में शामिल न होने का निर्णय किया है। जब संयुक्त किसान मोर्चा ने सरकार से यह स्पष्टीकरण मांगा था कि कमेटी में किन विशेषज्ञों को शामिल किया जाएगा, किन संगठनों के प्रतिनिधि लिये जाएंगे, कमेटी किन मुद्दों पर विचार करेगी, कमेटी की समय सीमा क्या होगी, क्या उसकी रिपोर्ट सरकार के लिए बाध्यकारी होगी, तो सरकार ने इनमें से एक भी बात का जवाब नहीं दिया था। बाद में भी नहीं दिया। आखिर हार मानकर संयुक्त किसान मोर्चा ने कमेटी में अपना कोई प्रतिनिधि न भेजने का निर्णय किया।
सरकार का रवैया एमएसपी की गारंटी के अलावा दूसरे मुद्दों पर भी वादाखिलाफी का ही रहा है। आंदोलनकारी किसानों को डराने के लिए उन पर थोपे गए केस वापस नहीं लिये गये हैं। आश्वासन के अनुरूप बिजली बिल को वापस लेने के बजाय सरकार उसे फिर से संसद से पास कराने की फिराक में है। लखीमपुर खीरी हत्याकांड के ग्यारह महीने बाद भी अजय मिश्रा टेनी को प्रधानमंत्री ने मंत्रिमंडल में बनाए रखा है। हो सकता है कृषि कानूनों को भी, परोक्ष रूप से, अलग अलग राज्य के स्तर पर वापस लाया जाए, जैसा भूमि अधिग्रहण कानून के मामले में हुआ।
सरकार की वादाखिलाफियों ने साफ कर दिया है कि उसे सिर्फ अपने कुछ चहेते पूंजीपतियों की फिक्र है जो कृषि क्षेत्र को लीलने के लिए तैयार बैठे हैं। क्या किसान आंदोलन का नया दौर फिर उतना ही प्रभावशाली हो पाएगा? इस सवाल का जवाब भविष्य के गर्भ में है। पर यह गौरतलब है कि सरकारी कमेटी में अपना प्रतिनिधि न भेजने, 31जुलाई को सरदार ऊधम सिंह के शहादत दिवस पर चक्का जाम करने, 7 अगस्त से 14 अगस्त तक देशभर में जय जवान जय किसान सम्मेलन आयोजित करने, आजादी की 75वीं जयंती पर 18,19, 20 अगस्त को लखीमपुर खीरी में 75 घंटे का मोर्चा लगाने, ये सारे निर्णय संयुक्त किसान मोर्चा ने सर्वसम्मति से किये हैं।
यह भी उल्लेखनीय है कि पंजाब चुनाव के समय पंजाब के जिन किसान संगठनों का संयुक्त किसान मोर्चा से नाता टूट गया था उनमें से अधिकांश की संयुक्त किसान मोर्चा में वापसी हो गयी है। इसके अलावा, मंदसौर गोलीकांड के बाद अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के नाम से किसान संगठनों के जिस बड़े समन्वय ने आकार लिया था उसने भी अपने घटक संगठनों से संयुक्त किसान मोर्चा के कार्यक्रमों को सफल बनाने का आह्वान किया है। फिर, नागरिक अधिकारों के दमन और व्यापक बेरोजगारी तथा नए श्रम कानूनों, निजीकरण आदि को लेकर जो असंतोष पनप रहे हैं वे भी आज नहीं तो कल किसान आंदोलन से जुड़ जा सकते हैं।
– राजेन्द्र राजन