1. किसी सुबह
ऐसा लगता है
मैं उस इतिहास में पहुंच गयी हूं
जहां मैं
कभी तुमसे मिली ही नहीं थी
न तुमने
मुझे देखा था
न मैंने
तुम्हें
बस
यह पता था
अतीत, वर्तमान या फिर
भविष्य की किसी सुबह
तुम्हें मेरे लिए
मुझे तुम्हारे लिए
हमें एक-दूसरे के लिए
उदय होना है
धरती के कण-कण को
प्रेम-संस्पर्श से जगा
कण-कण में
स्वयं को उदघाटित कर
हमें गहन अंधकार को चीर कर
एक-दूसरे के लिए
प्रगट होना है।
2. एकत्व
बारूद के ढेर पर
बैठ
हमने किया प्रेम
जल जाने के लिए
जला देने के लिए
उस ‘मैं’ और
उस ‘तुम’ को
जिसने
सारी असमानता को खड़ा किया
परंपरा के नाम पर
समाज के नाम पर
वर्ग के नाम पर
जाति और धर्म के नाम पर
स्त्री और पुरुष के नाम पर
विभेद के विभिन्न रूपों में
हां
बारूद के ढेर पर
हम प्रेम में
एकसाथ जले
‘मैं’ और ‘तुम’ को
जला देने के लिए।
3. बाबा
बाबा,
तुम अक्सर कहते हो
कुछ न कर पाए हमारे लिए
कुछ न दे पाए अपने बच्चों को
सारा जीवन औरों को दे दिया
बाबा,
तुम अक्सर अपने खयालों में
अकेले-उदास निकल पड़ते हो
बीसियों बार सिलवाई
उसी टूटी चप्पल को पहने
उस चप्पल की एक एक सिलाई
तुम्हारे तलुवों से घिस कर
काली हो गयी है
तुम्हारी चप्पल के पीछे पीछे
बीसियों पैबंद लगी
मां की साड़ी और साया भी
चल पड़ते हैं
अपने बड़े-विस्थापित हुए
बच्चों के पैरों को
पंख देने के लिए
बाबा,
तुम अक्सर सोचते हो
कुछ न दे पाए
कुछ न कर पाए
हमारे लिए
बाबा,
सच की तुम्हारी अनवरत लड़ाई
हमारी चेतना का करती रही विस्तार
तुम्हारे ललाट की एक एक शिकन
हमें बनाती रही चेतना संपन्न
तुम्हारी फटी एड़ियां
हमारी अक्षय ऊर्जा का स्रोत बनीं
तुम्हारी सहज मुस्कान
हमारे सहज-आनंद की
राह के मार्गदर्शी बने
बाबा,
तुम्हारा हर भाषण, तुम्हारी हर कविता
जीवन-सूत्र बन
हमारा क्रांतिकारी अभिनंदन करती
तुमने जो कुछ औरों के लिए किया
वह सब हमारे लिए ही तो था
जो उनके लिए न जीते तो
हम बस
डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर बनकर रह जाते
तुम्हारा पसीना
हमारी रगों में
क्रांतिकारी चेतना बन
कभी नहीं बहता
4. मानव
मैंने
तुम्हें कभी किसी रूप में नहीं देखा
बस
एक श्वेत पंछी
जो उड़ना चाहता है
जो उड़ना जानता है
5. अग्नि
मैं नहीं जानती
मैं कहाँ हूँ
मगर
इतना पता है
कि एक रोज खुद को
ढूंढ़ लाऊँगी
मुझे नहीं पता
मैं किसी के हृदय में
या किसी की ऑंखों में बसी
किसी की वंशी की धुनों में समाई
या किसी के प्रेम छल में भुलाई गई
मगर
मुझे पता है
एक रोज खुद को
जरूर ढूंढ़ लाऊँगी
मुझे नहीं पता
मैं किसी धर्मशास्त्र या पुराण में
खो गई हूँ
या किसी अधर्मी की
अंधेरी रातों में
या किसी लता पर
सर्प बन हवा में झूल रही हूँ
मगर
इतना पता है
भटकते-भटकते
एक रोज खुद को
जरूर ढूंढ़ लाऊँगी
असत्य के तमाम
विरोधाभासों के बीच
आत्मा में प्रज्वलित अग्नि,
क्रांति मशाल को
एक रोज
मैं जरूर ढूंढ़ लाऊंगी
चाहे कुछ भी हो
हां!
खुद को मैं
जरूर ढूंढ़ लाऊंगी ।