स्त्री मन के अधखुले पन्नों को समझाती एक किताब

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— हिमांशु जोशी —

मूमन कई मर्द ये मानते हैं कि औरत का सिर्फ एक ही रूप है और औरत ने वो रूप सिर्फ उसके लिए ही धारण किया है। लेकिन एक औरत के कई रूप होते हैं और सिर्फ उसका रूप रंग ही उसकी पहचान नहीं है।

साठ से अधिक फिल्मों में काम कर चुकी अभिनेत्री सुष्मिता मुखर्जी की लिखी किताब बांझ एक औरत के उन्हीं ढेर सारे रंगों को हमारी आंखों के सामने लाती है।

किताब के आवरण चित्र में एक स्त्री की पेंटिंग है और इसे गौर से देखा जाए तो ऐसा लगता है मानो स्त्री में पूरी सृष्टि ही समाहित है।

सुष्मिता मुखर्जी

पिछले आवरण में आपको किताब के अनुवादक दीपक दुआ और लेखिका सुष्मिता मुखर्जी के बारे में जानकारी मिलती है। इसमें लिखा है यह किताब 11 कहानियों का संग्रह है और ये कहानियां इस बात को स्थापित करती हैं कि एक औरत का महत्त्व समाज द्वारा उस पर लगाए गए ठप्पों से कहीं अधिक है।

यह बात सत्य तो है पर किताब की कहानियां इस सत्य के साथ कितना न्याय कर सकी हैं यह आप किताब पूरी पढ़ने के बाद ही बता सकेंगे।

‘समर्पण’ के दो शब्द ‘खुरदुरी बुनाई’ ही आपके दिल के तार हिला देंगे। यहां पाठकों के मन में ‘शुरुआत ऐसी तो अंत कैसा’ विचार आने लगेगा। किताब के परिचय में सुष्मिता ने जिस तरह से अपनी जीवन यात्रा को समेटा है उसे पढ़ ऐसा लगता है मानो वह इस किताब के जरिए ऐसा कुछ कहना चाहती हैं जो वह आज तक किसी से कह न पायी हों। अनुवादक दीपक दुआ ने भी सुष्मिता के उन विचारों को भली-भांति समझ कर बड़ी खूबसूरती से हिंदी पाठकों तक पहुंचाया है।

दीपक दुआ

किताब का शीर्षक बांझ, इस किताब की पहली कहानी का नाम भी है। रुक्मिणी के चेहरे और बिछौने का वर्णन जिस तरह से किया गया है, वह उसके नीरस जीवन की तरफ इशारा कर देता है। कहानी में एक के बाद एक कई पंक्तियां आपको एक स्त्री के जीवन की सच्चाई से परिचित कराती हैं।

‘शादी के बाद माता पिता ने उसे ऐसे भुला दिया जैसे कोई हिसाब पूरा हो जाने के बाद पर्चा फाड़ दिया जाता है’ पंक्ति हमारे देश की बहुत सी औरतों की सच्चाई सामने रखती है। बांझ कहानी में लेखिका द्वारा हमारे समाज में पितृसत्ता के वर्चस्व और उसके खात्मे के समाधान को लिख दिया गया है, पितृसत्तात्मक समाज के अंत का जो तरीका इस कहानी में लिखा गया है शायद वो कई पाठकों को सही न लगे पर यह पाठकों पर है कि वह इसे कैसे रूप में लेते हैं।

किताब की दूसरी कहानी भारत के उन लोगों की सच्चाई है ,जो बड़ी-बड़ी इमारतों के पीछे छिपे रहते हैं और हम उनके बारे में कुछ भी नहीं जानते। पेट की मजबूरी इन गरीबों से क्या कुछ कर कराती है ,लेखिका अपनी कहानी के जरिए पाठकों तक उनकी कहानी बड़े ही भावुक तरीके से पहुंचाती हैं।

‘साकरी बाई’ की शुरुआत में पाठक भी साकरी बाई को पुकारने लगेंगे। इस कहानी में हम पढ़ते हैं कि हमारे समाज में एक औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन है। किताब में आपको बार-बार महिलाओं की पहचान उनकी सुंदरता (जिसमें रंग और कद काठी को मानक बना दिया जाता है) से किए जाने का अहसास होगा और हम अपने आसपास देखें तो यह वास्तविकता ही है।

‘यादें, लाल नाक की’ कहानी में ‘सफेद, शोक में डूबे रंग वाली’ पंक्ति में लेखिका सफेद रंग को शोक वाला रंग करार दे पाठकों को ऐसी शोक सभाओं की याद दिला देती हैं ,जहां सभी लोग सफेद वस्त्र धारण किए होते हैं।

रिश्तों के जटिल गणित पर लिखी गई यह कहानी अपने अंत से पाठकों को कुछ देर तक फिर से इस कहानी को सोचने पर मजबूर कर देगी।

हम सब अपनी जिंदगी में कुछ ना कुछ ढो ही रहे हैं और उससे मुक्ति चाहते हैं। रिश्तों से मुक्ति भी इसमें शामिल है और इसी मुक्ति से जुड़ी एक कहानी भी लेखिका ने बड़ी रोचकता के साथ लिख डाली है।

‘स्टारबज्ज’ कहानी में दुर्गा का ड्राइवर के सामने लगे शीशे में खुद को निहारना, पसंद करना, इस बात की निशानी है की अधिकांश महिलाएं खुद को एक सौंदर्य उत्पाद के रूप में स्वीकार कर चुकी हैं। वह खुद चाहती हैं कि लोग उनके रूप रंग को निहारे लेकिन वह अपनी असली ताकत को नहीं पहचानती।

कहानी में लेखिका ने दुर्गा के वर्तमान से शुरू होकर उसके अतीत की कहानी को बड़े ही बेहतर तरीके से लिखा है और इस कहानी का अंत भी किताब की अन्य कहानियों की तरह ही पाठकों की सोच से परे है।

बड़ी बिंदी और छोटी ड्रेस कहानी के कुछ शब्द कई पाठकों को अश्लील लग सकते हैं और हो भी सकता है कि वो इनको लेकर हो-हल्ला मचाएं। ऐसे देश में जहां महिलाओं के प्रति अपराध बढ़ते जा रहे हैं, ऐसे शब्द महिलाओं का सम्मान न करने वाले लोगों की सोच को आइना दिखाने के लिए बिल्कुल सही हैं।

औरतों का बड़ी बिंदी वाली औरत और छोटी ड्रेस वाली औरत के रूप में बॅंटवारा, भारत के घर-घर की कहानी है। महिलाओं को इस रूप में भी बॉंट दिया गया है।

किताब में कहानियों के शीर्षक बड़े ही सटीक हैं और नीचे दिए गए पृष्ठों की संख्या के चारों और की गई ग्रे शेड पाठकों का ध्यान खींचती हैं। लेखिका ने कभी खुद ही कहानी का एक पात्र बनकर कहानी लिखी है तो कभी दर्शक बनकर।

‘मुझे लगता है इस किस्म के रचनात्मक लोगों की बीच प्यार का अंकुर नहीं फूटता, सीधे फूल ही खिलता है’ पंक्ति लेखिका खुद रचनात्मक होने की वजह से ही लिख पाई हैं।

बे-पर परिंदा कहानी में एक मां बनने जा रही महिला का कबूतर के बच्चों से लगाव, इस किताब का आकर्षण है। ये कहानी सन्देश देती है कि एक औरत ही अपने परिवार को एक साथ रखती है।

‘उम्र भर के दोस्त’ कहानी ऐसे लिखी गई है मानो सुष्मिता पाठकों के सामने बैठकर उन्हें यह कहानी सुना रही हों। यह किताब की एकमात्र ऐसी कहानी है जिसमें स्त्री से ज्यादा पुरुष को महत्त्व दिया गया है।

‘शालीमार’ वो कहानी है जिसे पढ़कर लगता है कि अगर किताब का नाम बांझ न होता तो शालीमार होता। पृष्ठ संख्या 76 के अंत की कुछ पंक्तियां पढ़ एक औरत की मजबूरी समझी जा सकती है। किताब की अंतिम कहानी ‘अफेयर’ में श्रीला ने उन महिलाओं का प्रतिनिधित्व किया है जो अपना परिवार संभालने की व्यस्तता में अपना सपना भूल चुकी हैं। कहानी का अंत पढ़ आप महसूस करेंगे कि महिलाएं हमेशा से ही पुरुषों से ऊंचा उड़ सकती हैं। लेखिका भी तो यही चाहती थी कि समाज ने जो ठप्पा औरत की छवि पर लगा दिया है इस किताब को पढ़ समाज समझे कि औरत को ऐसे किसी ठप्पे की जरूरत नही है।

चलन के विपरीत इस किताब का आभार अंत में है। लेखिका ने दीपक दुआ द्वारा किए अनुवाद में जिन रूपकों के प्रयोग की बात की है, वास्तव में उनसे कहानियों की खूबसूरती बढ़ी है।

आखिरी पन्नों में लेखिका और अनुवादक का परिचय पिछले आवरण में भी दिया है इसलिए उसकी कोई आवश्यकता नहीं लगती, हां प्रकाशक के बारे में जानकारी वाला पन्ना सही है।

पुस्तक- बांझ
लेखिका- सुष्मिता मुखर्जी
अनुवाद- दीपक दुआ
प्रकाशन- रीडोमानिया
लिंक- https://amzn.eu/d/788InCO
मूल्य- 199₹

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