— विमल कुमार —
पंद्रह अगस्त को पांच करोड़ सेल्फी हर घर तिरंगा योजना में अपलोड किया गया। यह डिजिटल युग और सोशल मीडिया के जमाने की आजादी है। मोदी 2022 तक हर व्यक्ति को घर देने और किसानों की आय दोगुनी करने का वादा तो कर नहीं पाए पर 5 करोड़ सेल्फी जरूर अपलोड किया लेकिन जरूरत 5 करोड़ युवा को रोजगार देने की है।
कल जब 15 अगस्त को किसी को फोन करने पर यह सन्देश बार बार मोबाइल पर प्रचारित किया जा रहा था कि आप अपने घर में लगे तिरंगे के साथ एक सेल्फी लेकर उसे तिरंगा डॉट कॉम पर जरूर पोस्ट करें। आजादी के 75 साल बाद यह एक नए तरह की आजादी का जश्न था। दरअसल यह आजादी एक इवेंट में बदल गयी है और सब कुछ अब सोशल मीडिया में प्रदर्शन हो गया है।
आजादी को बेचने और खरीदने तथा उसे ब्रांड बनाने का खेल शुरू हो गया है।
कल जब देश भर में आजादी का जो 75वां दिवस धूमधाम से मनाया गया तो वह किसका उत्सव था? क्या वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह का राजनीतिक और चुनावी उत्सव था या सड़क के किनारे झंडे बेचनेवाले गरीब लड़के का उत्सव था? क्या इस उत्सव के पीछे अनिल अंबानी और अडानी का कोई उत्सव छुपा हुआ था?
लाल किले की प्राचीर से जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कल राष्ट्र संबोधित किया तो इस देश से प्यार करनेवाले लोगों के मन में यही सवाल उठ रहा था कि आखिर पिछले एक साल से आजादी का जो महोत्सव मनाया जा रहा है, वह आजादी किसकी है? यह उत्सव किसका है?
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से लेकर भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद और सुखदेव की कुर्बानियों से जो हमें आजादी मिली है, वह अब क्या एक सेल्फी में सिमट कर रह जाएगी, क्या वह लच्छेदार भाषण में समा जाएगी?
आखिर 21वीं सदी में नवउदारवाद के दौर में यह आजादी कितने काम लायक रह गई है या वह आजादी के नाम पर केवल एक अलंकरण है या धूमिल के शब्दों में “तीन थके हुए रंगों का नाम” है। आजादी के 75 साल बाद हमारा तिरंगा भी यह सवाल हुक्मरानों से पूछ रहा है कि आखिर हम लाल किले की प्राचीर से जब फहराए जाते हैं तो हम किनकी आकांक्षाओं और किनके सपनों को पूरा करने का संदेश लिये रहते हैं ?
लाल किले की प्राचीर से पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी ने 75 बार भाषण दिए और हर भाषण में इस देश की जनता के दुख दर्द को दूर करने का आह्वान किया गया तथा भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता से लड़ने का भी संकल्प किया गया लेकिन क्या इन 75 सालों में यह संभव हुआ या यूं कहें कि और भ्रष्टाचार की जड़ें और गहरी होती गईं। हमारा राज्य भी पहले से अधिक क्रूर होता गया और उसकी उदारता और सहिष्णुता भी धीरे धीरे कम होती गई। जिस संविधान को बनाने में राष्ट्र निर्माताओं ने दिन रात का समय लगाया था उस संविधान के मूल्यों की धज्जियां उड़ाई जाने लगी हैं।
आज से 75 वर्ष पहले देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लाल किले की प्राचीर से 15 अगस्त 1947 को देशवासियों को संबोधित करते हुए खुद को जनता का ‘प्रथम सेवक’ बताया था और कहा था कि वह अपनी पीड़ित जनता के हितों का ध्यान सबसे पहले रखेंगे और आंतरिक झगड़ों तथा हिंसा पर अंकुश लगाएंगे।
पिछले 8 साल से नरेंद्र मोदी खुद को भी एक सेवक बताते हैं लेकिन वह नेहरू की राह पर नहीं चलते बल्कि वह नेहरू की आलोचना करते हैं उन्हें इतिहास से मिटाने का प्रयास करते हैं।गोदी मीडिया इस काम में उनका हाथ बॅंटा रहा है। लेकिन मोदी ने कल यह भी कहा कि उन्होंने गांधी के अंतिम जन के लिए खुद को समर्पित कर दिया है पर प्रधानमंत्री सावरकर का नाम जरूर लेते हैं। शुक्र है उन्होंने गोडसे का नाम नहीं लिया।लेकिन मोदी और संघ परिवार गांधी के साथ सावरकर का नाम जरूर लेते हैं। वह मौलाना आज़ाद, हशरत मोहानी या रफी अहमद किदवई का कभी नाम लेते। खैर।
क्या आजादी के 75 साल के सफर को इन दो “सेवकों” के व्यक्तिव, विचारों, दृष्टियों और कार्यशैली के अंतर के रूप में देखा जा सकता है और तब इसका विश्लेषण किया जा सकता है कि इन 75 सालों में हमने दरअसल क्या खोया क्या पाया।
आज जब हम आजादी के 75 साल मना रहे हैं तो हमें आज यह स्वीकार करना पड़ेगा कि 75 सालों में देश ने “अभूतपूर्व विकास” भी किया है और दुनिया में अपना नाम भी “रोशन” किया है लेकिन हर साल की तरह आजादी के दिन यह सवाल भी हमारे सामने खड़ा होता है कि यह विकास किसके लिए और स्वतंत्र भारत में हमने आखिर क्या खोया क्या पाया।
हमारे स्वतंत्रता सेनानियों और राष्ट्र निर्माताओं ने जिस राष्ट्र की कल्पना की थी और जो संकल्प व्यक्त किया था, क्या हमने उसे पूरा कर लिया या अभी वह बाकी है या हम अब पहले से कहीं बदतर स्थिति में तो नहीं चले गए हैं और यह मुल्क अब वह मुल्क नहीं रहा जिसकी हमने कभी कल्पना की थी।
पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री, गुलजारी लाल नंदा, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, राजीव गांधी, चन्द्रशेखर, नरसिंह राव, विश्वनाथ प्रताप सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, देवेगौड़ा, गुजराल, मनमोहन सिंह और अब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में इस देश ने कितना विकास कर लिया कि क्या अब यह कहा जा सकता है कि आजादी का सपना अब पूरा हो गया है।
आज देश एक बार फिर आजादी के जश्न में डूबा है और शहरों गलियों में तिरंगे की भीड़ पहले से बढ़ गयी है। देश में 24 करोड़ तिरंगा फहराने का रिकार्ड बनाया जा रहा है तो क्या यह मान लिया जाए कि आज आजादी पहले से अधिक सार्थक हो गयी है और हमने सारी उपलब्धियां हासिल कर ली हैं। मीडिया और प्रचार तंत्र के युग में तथा आईटी सेल के दौर में अब वह नेहरू देश के लोकप्रिय नेताओं में नहीं रहे जिन्होंने आधुनिक भारत का निर्माण किया था।
पंचवर्षीय योजना से लेकर हरित क्रांति तथा देश में कल कारखाने खोलने और उद्योग धंधे शुरू करने से लेकर संस्थाओं के निर्माण में जिस व्यक्ति ने अभूतपूर्व योगदान दिया वह व्यक्ति आज हाशिये पर धकेला जा रहा है। आईआईटी से लेकर एम्स और सेंट्रल स्कूल से लेकर सैनिक स्कूल तथा वैज्ञानिक प्रयोगशालाएं और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन तक नेहरू जी के कार्यकाल में बने और रेल व जल मार्ग का जाल भी उनके समय मजबूत हुआ। इस तरह हमने इन 75 सालों में बहुत कुछ पाया पर यह भी सच है कि इन 75 सालों में राजनीतिक मूल्यों में ह्रास हुआ, साम्प्रदायिक सौहार्द कम हुआ, भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ा, दंगे फसाद बढ़े, नफरत की राजनीति बढ़ी और लोकतंत्र कमजोर हुआ। तानाशाही की प्रवृत्तियां बढ़ी हैं।
75 सालों में स्कूल कालेजों की संख्या, साक्षरता दर, दाखिला दर में काफी वृद्धि हुई पर देश की आबादी में भी इतनी वृद्धि हुई कि आज चारों तरफ भीड़ ही भीड़ दिखाई दे रही है। जिस रफ्तार से जनसंख्या बढ़ रही है उस रफ्तार से रोजगार के अवसर नहीं बढ़े और अब तो कम ही हो गए। देश पर विदेशी कर्ज बढ़ता ही जा रहा है। विदेशी मुद्रा का भंडार और सकल घरेलू उत्पाद बढ़ा है फिर भी अर्थव्यस्था की हालत खस्ता है।
अब हम मिश्रित अर्थव्यवस्था से नई आर्थिक नीति के दौर में पहुंच गए हैं। अब योजना आयोग नीति आयोग में बदल चुका है। निजीकरण और कारपोरेटीकरण तेजी से हो रहा है। बैंकों के राष्ट्रीयकरण से अब हम बैंकों के निजीकरण की तरफ बढ़ रहे हैं। एक तरफ हम आजादी मना रहे हैं, दूसरी अपने सार्वजनिक उपक्रमों को बेच रहे हैं। देश में अपसंस्कृति फैल रही है। जाति और धर्म के नाम पर संघर्ष बढ़ते जा रहे हैं।
समाज में असहिष्णुता इतनी बढ़ती जा रही है कि बात बात में लोगों की जान ली जा रही है और जातिगत विद्वेष इतना बढ़ता जा रहा है कि पानी छूने पर दलितों की हत्या हो जा रही है। सत्ता पाने के लिए विधायकों, सांसदों को खरीदा जा रहा है। सरकारें पैसे की ताकत से गिरायी जा रही हैं। देश में नक्सलवाद फैलता जा रहा है और आदिवासी अपनी जमीनों से बेदखल किए जाते रहे हैं। विस्थापन की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है और गांव खाली होते जा रहे हैं तथा किसान परेशान होते जा रहे हैं।
आज जेपी, लोहिया, नरेंद्रदेव, कृपलानी, विनोबा भावे, लालबहादुर शास्त्री जैसे त्यागी नेता भी नहीं रहे। पुराने कांग्रेसियों की जगह मैनेजर कांग्रेसी पार्टी पर काबिज हैं। इन 75 सालों में हमने एक बार आपातकाल का दृश्य भी देखा फिर लोकतंत्र की जीत भी हुई। लेकिन अघोषित आपातकाल की तरफ भी कदम बढ़ रहे हैं।
75 सालों में कईं जनांदोलन भी हुए पर पिछले दिनों की तरह ऐसा किसान आंदोलन कभी नहीं हुआ और मंदिर मस्जिद के झगड़े भी इस तरह कभी नहीं हुए कि पूरी राजनीति सांप्रदायिक हाथों में चली जाए और देश में एक ऐसा शासन आया जो अभी बहुल सांस्कृतिक राष्ट्र को हिंदू राष्ट्र बनाने पर तुला हुआ है। इन 75 वर्षों में राजीव गांधी के जमाने में जबरदस्त संचार क्रांति हुई और कंप्यूटर का युग शुरू हुआ तो मोदी के शासनकाल में डिजिटल युग परवान पर चढ़ा और कैशलेस अर्थव्यवस्था की शुरुआत हुई। यह देश का नया विकास था। चुनाव भी अब डिजिटल मोड में हो रहे। इसके अलावा अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में सड़कों के निर्माण में काफी प्रगति हुई और देश में सड़कों का जाल काफी मजबूत हुआ। शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग इन 75 वर्षों में खूब हुए लेकिन शिक्षा के नाम पर राजनीति और भगवाकरण भी इन्हीं सालों में हुआ और अब शिक्षा व्यवस्था भी ठेके पर चली जा रही है और निजीकरण का बोलबाला है।
सूचना का कानून, मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून इसी आजाद भारत की उपलब्धियां हैं। लेकिन यह भी सच है कि 17 सालों से महिला आरक्षण बिल लटका है। बाजार और भूमंडलीकरण का असर भारतीय समाज में खूब हुआ और अब यह भारत 1947 का आजाद भारत नहीं है जहां पत्रकार नेहरू जी के बगल में बैठकर सवाल पूछते थे और संसद के मुख्य द्वार के सामने से डीटीसी की बस भी चलती थी। इन 75 सालों में मुल्क काफी बदल गया पर वह “इंडिया” और “भारत” में विभक्त हो गया और हिंदुस्तान पीछे छूट गया।
अब आजाद भारत की यही कहानी है। आनेवाले साल कितने जद्दोजहद से भरे होंगे इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। यह लोकतंत्र अब खुद खतरे में हैं तो आजादी भी खतरे में होगी।
75वें साल में हमें अपनी आजादी बचाने की लड़ाई लड़नी पड़ेगी। यह तभी सम्भव है जब हम जागें और आगे बढ़ें। तिरंगा फहराने और सेल्फी लेने से कम महत्त्वपूर्ण यह काम नहीं है।