क्या बिहार फिर से नयी राजनीतिक दिशा दे सकता है?

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— डॉ अनिल ठाकुर —

बिहार की राजनीति में कुछ समय से राजनीतिक उथल-पुथल मची हुई है। नीतीश कुमार सोलह-सत्रह वर्षों से बिहार के मुख्यमंत्री रहे हैं। अभी हाल में यानी 9 अगस्त को उन्होंने फिर से भाजपा से अपना नाता समाप्त कर राजद से रिश्ता बना लिया है। नीतीश कुमार ने राजद के समर्थन से सरकार गठन कर लिया। वे आठवीं बार मुख्यमंत्री बने हैं। उन्होंने बिहार के सभी मुख्यमंत्रियों का रेकार्ड तोड़ दिया। वे सबसे लंबे समय तक बिहार के मुख्यमंत्री जाने जाते हैं। नीतीश कुमार पर कोई भ्रष्टाचार या परिवारवाद का आरोप नहीं लगता है। लेकिन उनके कुछ विरोधी उन्हें पलटूराम के नाम से आरोपित करते हैं। आजकल भाजपा पानी पी-पीकर कोस रही है। हालांकि यही भाजपा 2107 में नीतीश कुमार के खिलाफ कुछ नहीं बोल रही थी। तब वो सुशासन बाबू थे।

बिहार में नीतीश कुमार को सुशासन बाबू के नाम से जाना जाता रहा है। ये शब्द नीतीश कुमार के लिए सही भी है। खासकर 2005 से पहले बिहार की स्थिति सही भी नहीं थी।आमलोग बहुत परेशान थे जिसे जंगलराज कहा जाता था। नीतीश कुमार ने उससे निजात दिलाई।

कानून व्यवस्था ठीक की। लड़कियों को साइकिल देकर उन्हें शिक्षित करने का प्रयास किया। महिलाओं को पंचायत चुनाव में पचास फीसदी आरक्षण दिया। उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत की। नौकरी में महिलाओं को पैंतीस फीसदी आरक्षण दिया। गांव सहित पूरे बिहार में बिजली एवं सड़क सुविधा का जाल फैलाया। नल जल योजना आरंभ किया। गांवों में सोलर लाइट लगवाया। कानून व्यवस्था को चुस्त दुरुस्त किया। बिहार को नयी दिशा देने का प्रयास किया। शराबबंदी की। हालांकि शराबबंदी को लेकर सत्ता पक्ष के सहयोगी से लेकर विपक्ष ने उन्हें बहुत कोसा लेकिन वे अपने इरादे से टस से मस नहीं हुए।

लेकिन बिहार की सबसे बड़ी समस्या जनसंख्या एवं जाति व्यवस्था से लेकर आर्थिक बदहाली की रही है। हालांकि ये समस्या कुछ वर्षों की नहीं है। ये दशकों की समस्या है। उससे निजात दिलाना इतना आसान नहीं है। इसलिए देश के पहले आम चुनाव से ही बिहार समाजवादियों का गढ़ रहा है। डॉ लोहिया, जेपी से लेकर किशन पटनायक की कर्मभूमि रहा है। कर्पूरी ठाकुर की जन्मभूमि एवं कर्मभूमि दोनों रहा है। नीतीश कुमार खुद अपने को इनका शिष्य मानते हैं। लेकिन बिहार में जितना बदलाव चाहिए था वो संभव नहीं हो पाया। उसके कुछ विशेष कारण हैं जिसमें नीतीश कुमार को किसी और के समर्थन से सरकार बनानी पड़ी, जिसकी वजह से कुछ ठोस निर्णय नहीं ले पाए। ये गठबंधन सरकार की मजबूरी भी होती है।

नीतीश कुमार ने महिलाओं एवं अति पिछड़ा वर्ग को आगे लाने का प्रयास किया है। नब्बे के दशक में लालू प्रसाद ने भी पिछड़ों को आगे लाने का प्रयास किया लेकिन उनपर एक जाति का ठप्पा लग गया। जिसके कारण खुद नीतीश कुमार सहित रामविलास पासवान ने उनका साथ छोड़ दिया। बिहार की राजनीति पर परिवारवाद का प्रकोप इतना बढ़ा कि समाजवाद बहुत पीछे रह गया। नहीं तो निश्चित रूप से बिहार की धरती समाजवाद की बड़ी प्रयोगशाला हो सकती थी। इसी का परिणाम था कि बिहार में भाजपा जदयू का गठबंधन हुआ। जो बिहार क्या देश के लिए सही साबित नहीं हुआ।

आज जिस तरह से देश सांप्रदायिकता से परेशान है वो किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए सही नहीं है। देश में हिंदू मुसलमान की राजनीति की जा रही है। देश में विकास कम हिंदू मुसलमान की राजनीति ज्यादा हो रही है। आज देश एक नये नेतृत्व की तलाश कर रहा है।

आज कोई राष्ट्रीय दल या क्षेत्रीय दल नहीं दिख रहा है जो देश को सही दिशा दे सके। जबकि देश की राजनीति को इसकी जरूरत है। लोकतंत्र खतरे में है। जबकि भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहा जाता है। ये मानने वाले देश के बुद्धिजीवी से लेकर ईमानदार पत्रकार तथा विपक्षी नेता लोग भी मानने लगे हैं। ऐसा क्या हो गया?

कुछ पत्रकार एवं बुद्धिजीवी इसे अघोषित आपातकाल मानने लगे हैं। इतनी निराशा का दौर कभी नहीं देखा गया। सुना जरूर है कि आपातकाल में ऐसा होता था। हर तरफ से वर्तमान केन्द्रीय सत्ता को बहुत मजबूत देखा जा रहा है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को पिछले साठ साल का उदाहरण देकर उसे नकारा जा रहा। अन्य विपक्षी दल अपने अपने राज्य को बचाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने को तैयार नहीं हैं। वामपंथी दल भी बहुत कमजोर स्थिति में हैं। निश्चित रूप से राजनीतिक संकट तो है। सब बदलाव तो चाहते हैं लेकिन उसके लिए उन्हें कोई रास्ता नहीं दिखता। जैसा कि आपातकाल के दौरान जेपी का नेतृत्व था। 1988 में वीपी सिंह जोड़ने में लगे थे। इसके अलावा कुछ समाजवादी वामपंथी के साथ साथ कुछ क्षेत्रीय नेता भी शामिल थे। जिन्होंने बदलाव का बिगुल बजाया था। जिसका अभाव आज देखने को मिलता है।

लेकिन इस राजनीतिक संकट एवं खाली जगह को नीतीश कुमार के महागठबंधन में आने से कुछ उम्मीद बनी है। यह कितना संभव होगा यह तो 2024 का लोकसभा चुनाव का परिणाम ही बताएगा। लेकिन इस परिवर्तन ने भारतीय राजनीति में एक अलग उम्मीद जगायी है। हालांकि सरकारी मीडिया इसे नकारने में लगा है। लेकिन इस राजनीतिक संकट के दौर में एक उम्मीद की किरण तो दिखनी शुरू हो गई है। शायद क्रांति की धरती बिहार फिर से एक बड़ा बदलाव लाने में सफल हो। प्रधानमंत्री कौन हो ये मुद्दा महत्त्वपूर्ण नहीं है लेकिन लोकतंत्र एवं समाजवादी विचार का बिगुल कैसे बजे ये महत्त्वपूर्ण है। बिहार फिर से समाजवाद की प्रयोगशाला कैसे बने ये महत्त्वपूर्ण है। शायद बिहार ने यह उम्मीद पैदा कर दी है।

परिपक्व राजनेता नीतीश कुमार का नेतृत्व एवं तेजस्वी का युवा नेतृत्व सिर्फ बिहार को ही नहीं देश में एक नयी शुरुआत कर सकता है। नीतीश कुमार का सुशासन एवं राजद का माई का नारा से हटकर तेजस्वी का ए टू जेड की राजनीति शायद कुछ अच्छा परिणाम दे सके। यह समय की मांग एवं जरूरत है।

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