अमृत काल में विषपान की लालसा

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— अरुण कुमार त्रिपाठी —

जादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर भारत का विचार गहरे मंथन से गुजर रहा है। एक ओर तो वह विचार है जिसे फिराक साहब ने कुछ इस तरह व्यक्त किया है –
सर जमीन-ए-हिंद पर अक्वामे आलम के फिराक
काफिले आते रहे और हिन्दुस्तां बनता गया

यानी भारत ने किसी को पराया माना ही नहीं। जो भी यहां आया यहां का होकर रह गया। न तो बाहर से आनेवालों ने यहां पहले से रह रहे लोगों का सफाया किया और न ही यहां पहले से बसे लोगों ने बाहर से आए लोगों को लंबे समय तक परदेसी माना। परदेसी उन्हें जरूर माना गया जो शासन यहां करते थे और तिजोरी किसी और देश की भरते थे। चाहे वे विदेशी लुटेरे रहे हों या फिर विदेशी फरमानों और सेनाओं के बल पर यहां शासन कर रहे अंग्रेज और दूसरे यूरोपीय लोग हों। यही कारण है कि भारत ने मुट्ठी भर (60 हजार से एक लाख तक की संख्या वाले) अंग्रेजों को परदेसी माना और उन्हें यह देश छोड़कर जाने को मजबूर कर दिया। लेकिन एक बात ध्यान रहे कि भारत की आजादी की लड़ाई के अग्रणी नेता राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अंग्रेजों से घृणा के कतई हिमायती नहीं थे।

जब उन्होंने 8 अगस्त 1942 की रात को बंबई के गोवालिया टैंक मैदान में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ और `करेंगे या मरेंगे’ का नारा दिया तो यह भी कहा कि वे लोग इस आंदोलन से अलग रहें जो सांप्रदायिक तरीके से सोचते हैं और जो अंग्रेजों से नफरत करते हैं। वे नौ अगस्त को गिरफ्तार हुए और आगा खां पैलेस में नजरबंद किए गए। पांच दिन बाद ही उनके निजी सचिव महादेव देसाई का निधन हो गया। वे महज 50 वर्ष के थे और महात्मा गांधी और कस्तूरबा उन्हें बेटे की तरह मानते थे। उनके निधन से कस्तूरबा हिल गईं। उन्होंने गांधी से कहा कि मैं मना कर रही थी कि ऐसा आंदोलन न छेड़िए। देख लिया क्या हो रहा है? भारत बहुत बड़ा देश है, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि अंग्रेज इसी देश में रह जाएं जहां तमाम तरह के लोग रहते हैं? गांधी ने कहा हो सकता है, हमें उनके यहां रहने से कोई दिक्कत नहीं है पर वे हमारे शासक बनकर न रहें।

गांधी भारत के इसी विचार के हिमायती थे और यही प्रादेशिक राष्ट्रवाद है। इसीलिए वे कहते थे कि अगर मेरा बड़ा बेटा हरिलाल मुसलमान हो गया तो क्या वह दूसरे देश का नागरिक हो जाएगा? ऐसे ही इस देश के तमाम मुसलमान पहले तो हिंदू ही थे।

इसी के तहत स्वंतत्र भारत में समाज के विभिन्न तबकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय देने का वादा किया गया है और व्यक्ति को गरिमा प्रदान करने के साथ राष्ट्र की एकता और अखंडता का वादा किया गया है। ध्यान रहे कि यह सब हम भारत के लोगों ने किया है और उसी ने भारत को एक संप्रभु राष्ट्र भी बनाया है।

इसके ठीक विपरीत एक ऐसे भारत का विचार आज तैर रहा है जिसके तहत इस देश के बहुसंख्यक समाज के कुछ धार्मिक संगठन अलग संविधान तैयार कर रहे हैं। उन्हें भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित कराने की जल्दी है। उनके उस संविधान में अल्पसंख्यक समाज को वोट का अधिकार नहीं होगा। कभी कभी इससे अलग तो कभी इसी के साथ एक और धारा जुड़ जाती है कि आज भारत को इस्लाम और ईसाइयत के प्रभाव से मुक्त करके सनातन धर्म की परंपरा से व्याख्यायित करने की जरूरत है।

भारत का एक तीसरा विचार भी है जो यहां अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और वैश्विक पूंजी के सहयोग से तीव्र गति से आर्थिक सुधार चाहता है और भारत को दुनिया के समृद्ध देशों की कतार में खड़ा करना चाहता है। लेकिन वह इन सामाजिक सद्भाव के मुद्दों पर चुप ही रहता है। हालांकि कई बार उसके भीतर से भी नफरत के विरुद्ध आवाजें उठती हैं पर अपने व्यावसायिक हितों के कारण दब भी जाती हैं।

आजादी के अमृत महोत्सव के इस मौके पर भारत में बसे विभिन्न काफिलों की परतों में हलचल हो रही है। यह हलचलें थोड़ी बहुत तो हमेशा होती हैं। वजह यह है कि वे अपने ऊपर पड़ने वाले दबावों को अदलते बदलते हैं। लेकिन जब दबाव ज्यादा बढ़ जाता है तो हलचल तीव्र हो जाती है। वही भूकम्प है। वह भूकम्प जो 1947 में आया था और अगर आज की स्थितियों में संतुलन न लाया गया तो फिर किसी रूप में प्रकट हो सकता है। उसी भूकम्प के बारे में राजमोहन गांधी अपनी पुस्तक ‘कान्फ्लिक्ट एंड रिकान्सिलिएशन्स’ में लिखते हैं कि इस उपमहाद्वीप के आसमान में दस लाख अतृप्त आत्माएं मॅंडरा रही हैं, जब तक उन्हें शांति नहीं मिलेगी तब तक यह उपमहाद्वीप शांत नहीं होगा।

भारत का विभाजन दुर्भाग्यपूर्ण था और देश का धर्म के आधार पर बंटना भारत के विचार को गहरा जख्म दे गया है। लेकिन 1971 में पाकिस्तान के विभाजन के साथ हम देख चुके हैं कि वह कितना कृत्रिम था।

संभव है कि अगर विभाजन न होता तो हम आपस में टकराते रहते लेकिन जब भी हम शांत होते तो भारत के वास्तविक विचार के साथ खड़े होते। वही विचार जहां हिंदुस्तान की सरजमीन पर पूरी दुनिया से काफिले आते रहे बसते रहे और विविध धर्मों, आस्थाओं, भाषाओं और संस्कृतियों का एक सुंदर गुलदस्ता उसी तरह बन गया जिस तरह तमाम नदियां हिंद महासागर में मिलती हैं।

सन 1947 में खंडित हुए भारत में भी उस विचार को गांधी, नेहरू, मौलाना आजाद और सरदार पटेल ने भी बचाकर रखने की कोशिश की। उसी का नतीजा था डा आंबेडकर की मेधा से भारत को दिया गया एक संविधान।

आंबेडकर ने संविधान को अंगीकार किए जाते समय कहा था कि आज से भारत राजनीतिक समता के एक नए युग में प्रवेश करने जा रहा है जो इससे पहले भारत में कभी नहीं थी। लेकिन उसी के साथ देश में सामाजिक और आर्थिक स्तर पर भारी असमानता है। अगर उसे नहीं मिटाया गया तो यह राजनीतिक समता भी खतरे में रहेगी।

डा आंबेडकर ने यह भी कहा था कि भारत कभी कभी साम्राज्य के रूप में एक रहा है लेकिन अधिकतर समय वह छोटे छोटे राज्यों में विभक्त भी रहा है। इतनी भाषाओं, इतनी संस्कृतियों और इतने धर्मों को लेकर बनाया जाने वाला राष्ट्र तभी चल सकता है जब उसके पास एक संविधान हो और लोग अपनी धार्मिक पुस्तकों से ज्यादा उसका आदर करें। यानी वह राष्ट्र के सवाल पर अन्य तमाम ग्रंथों से ऊपर हो। वे यह जरूर मानते थे कि मुसलमान तो एक राष्ट्र हो सकते हैं लेकिन हिंदू एक राष्ट्र के रूप में व्यवस्थित नहीं हैं। वे भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के विरुद्ध चेतावनी भी देते हैं। उनका कहना था –  “अगर हिंदू राज एक वास्तविकता बना तो निस्संदेह वह इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा के रूप में सामने आएगा। हिंदू राज को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।”
(पाकिस्तान आर पार्टीशन आफ इंडिया 1946, पृ.354-5)

भारत को संविधान दिए जाते समय उन्हें इस बात का अहसास था कि उसका बहुत सारा स्वरूप दुनिया के दूसरे देशों से लिया गया है। कुछ हिस्सा ब्रिटेन, कुछ आस्ट्रेलिया, तो कुछ कनाडा से। लेकिन उसके पीछे नब्बे साल तक चले स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा है। उसके पीछे क्रांतिकारियों का बलिदान है तो सत्याग्रहियों का त्याग है। उसके पीछे लाखों स्त्री पुरुषों का संघर्ष है तो करोड़ों लोगों के सपने हैं। उसके भीतर भारत की आत्मा है और उसके भीतर महात्मा गांधी का अंतःकरण है। इसीलिए उन्होंने यह दर्शाने का प्रयास भी किया था कि इसके कई महान मूल्यों की प्रेरणा भारत के अपने इतिहास से ली गई है। उन्होंने भारत के बौद्धकालीन गणतंत्र का स्मरण दिलाया था तो यह भी कहा था कि बंधुत्व का मूल्य हमने फ्रांस की राज्य क्रांति की फ्रैटर्निटी से नहीं बल्कि बुद्ध की मैत्री से लिया है।

यह देखना अपने आप में विचित्र लगता है कि कुछ विद्वान भारत के संविधान को आजादी के आंदोलन के संदर्भ से काटकर उसे कुछ लोगों की विशेष रचना मानते हैं। जबकि वास्तव में वह स्वतंत्रता संघर्ष के महामंथन का प्रतिफल है। अगर राष्ट्र का विभाजन भारत के स्वाधीनता संग्राम से निकला विष है तो संविधान उससे निकला अमृत है। यह स्मरण दिलाना बहुत जरूरी है कि आज भारत अमृत छोड़कर विषपान की ओर लालायित है।

स्वतंत्रता की लड़ाई किसी राज्य ने नहीं इस देश की जनता ने लड़ी थी। निश्चित तौर पर जनता की लड़ाई एक ओर अंग्रेजी राज से अलग अपना स्वतंत्र राज्य बनाने के लिए थी तो दूसरी ओर अपनी स्वतंत्रता के लिए भी थी। जिस स्वराज को तमाम नेता अब सुराज बनाने पर तुले हैं वे स्वराज का वास्तविक अर्थ ही नहीं जानते। उसके अर्थ को एक हद तक महात्मा गांधी ने `हिंद स्वराज’ में परिभाषित किया है। लेकिन 1909 में लिखी गई इस महान पुस्तक के अलावा भी उन्होंने समय समय पर स्वराज को परिभाषित किया है। वे भारत को एक स्वतंत्र राष्ट्र राज्य के साथ उदित होते देखना चाहते थे लेकिन उससे कम चिंता अपने नागरिकों को स्वतंत्र देखने की नहीं थी।

इसीलिए उनकी स्वराज और रामराज्य की परिभाषाएं गौर करने लायक हैं। स्वराज का उनके लिए यही अर्थ था कि ‘आप का अपने ऊपर अपना नियंत्रण हो।’ किसी सरकारी मशीनरी के नियंत्रण को वे स्वराज के विरुद्ध मानते थे। उनका स्पष्ट कहना था कि स्वराज का अर्थ यह कतई नहीं है कि अंग्रेज पूंजीपति और अंग्रेजी फौजें भारत से चली जाएं और उनकी जगह पर भारतीय पूंजीपति और फौजें लोगों पर शासन करने लगें। ऐसा हुआ तो यह स्वराज नहीं होगा। लेकिन क्या आज वैसा ही नहीं हो रहा है?

इसी तरह रामराज्य के बारे में उनका साफ कहना था कि रामराज्य का जिक्र मैं जब भी करता हूं तो उसका मतलब यह नहीं होता कि अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र भगवान राम का शासन। मैं इस प्रत्यय का प्रयोग इसलिए करता हूं कि इसे जनता आसानी से एक अच्छी शासन प्रणाली के रूप में समझ जाती है। लेकिन मेरे लिए उसका व्यापक अर्थ है। उसका मतलब तालस्ताय के ‘किंगडम आफ गाड’ से है, रैदास के ‘बेगमपुरा’ से है और इस्लाम में वर्णित ‘खलीफा के उस शासन से है जहां लाखों दीनार कर के रूप में इकट्ठा होने के बावजूद खलीफा एक फकीर की तरह रहते थे।’

भारत की संविधान सभा में जो संस्थाएं बनाई गईं और नागरिकों को जो अधिकार दिए गए उनके बीच एक किस्म का संतुलन बनाया गया। केंद्र और राज्य में मजबूत संस्थाएं इसलिए बनाई गईं क्योंकि लंबे संघर्ष और विभाजन की भयानक त्रासदी के बाद भारतीय जनता को अपना राष्ट्र मिला था इसलिए उसकी रक्षा मजबूत राज्य के माध्यम से ही की जा सकती थी। लेकिन उसी के साथ यह भी सोचा गया था कि मजबूत राज्य कहीं आम आदमी के अधिकार को कुचल न दे इसलिए मौलिक अधिकारों की पुख्ता व्यवस्था की गई और न्यायपालिका को उसका रक्षक बनाया गया।

भारतीय संविधान के दो घोषित उद्देश्य थे। एक तो राष्ट्र की एकता और अखंडता और दूसरा सामाजिक क्रांति। एकता अखंडता के लिए मजबूत संस्थाएं दी गईं और सामाजिक क्रांति के लिए मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्व दिए गए।

लेकिन आज जब हम मौजूदा स्थितियों को देखते हैं तो पाते हैं कि भारत उन मानकों पर घिसट रहा है जिनके आधार पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता और लोकतंत्र का मूल्यांकन किया जाता है। विश्व प्रेस सूचकांक में भारत की स्थिति 142वीं है। एक इतिहासकार तो कहते हैं कि आज संभव है वह उससे भी नीचे चली गई हो। आज देश में एक प्रतिशत अमीर लोगों के पास राष्ट्रीय आय का 22 प्रतिशत है। जबकि 50 प्रतिशत गरीबों के पास राष्ट्रीय आय का महज 13 प्रतिशत है। मुकेश अंबानी जो कि भारत के सबसे बड़े और दुनिया के महत्त्वपूर्ण पूंजीपति हैं उनकी संपत्ति में कोरोना काल में 2020 से 2021 के बीच 15 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। यानी उनकी संपत्ति 80 अरब डालर से आगे चली गई है।

असमानता का यह सूचकांक ज्यादा बढ़ेगा तो देश में आंतरिक तनाव बढ़ेगा ही। उसे दूर करने के लिए सरकारें कल्याणकारी योजनाएं चलाएंगी और लोगों को मुफ्त भोजन, दवा और शिक्षा देंगी। लेकिन जब उससे घाटा बढ़ने लगेगा तो वे रेवड़ी बनाम वास्तविक कल्याण योजनाओं की बहस छेड़ेंगी। जबकि पूंजीपतियों के कर और ऋण माफ करती रहेंगी।

डॉ. आंबेडकर ने यह बात बार बार कही थी कि संविधान कितना भी अच्छा हो अगर उसे चलाने वाले लोग अच्छे नहीं हैं तो वह प्रभावहीन हो जाएगा। गांधी और आंबेडकर के बीच टकराव रहे हैं लेकिन इस बात से कोई नहीं इनकार कर सकता कि दोनों में नैतिक आग्रह जबरदस्त रहा है।

कोई भी देश अनैतिकता और अन्याय करते हुए आगे नहीं बढ़ सकता। वह आंतरिक रूप से बेचैन रहेगा और बाहरी दुनिया में अपनी छवि को खोएगा। गांधी आंबेडकर और स्वतंत्रता आंदोलन के तमाम नेताओं से हमें यही सीख मिलती है कि कथनी और करनी में अंतर नहीं होना चाहिए। न्याय का अर्थ भी यही है कि जो व्यवहार आप अपने साथ चाहते हैं वही दूसरों के साथ करें तब तो न्याय है और जो आप अपने साथ नहीं चाहते हैं वैसा दूसरों के साथ करते हैं तो वह अन्याय है।

आज हम एक ऐसे राष्ट्र के रूप में उभर रहे हैं जहां एक ओर तो प्रधानमंत्री भारत के मुख्य न्यायाधीश से कहते हैं कि विचाराधीन कैदियों की संख्या हमारे लिए चिंताजनक है। उन्हें कम किया जाना चाहिए तो दूसरी ओर मुख्य न्यायाधीश उनसे कहते हैं कि हमारी विधायिका बिना विचारे हुए तेजी से कानून बना देती है जिसके कारण न्यायापालिका को कठिनाई पेश आती है। उधर 2016 से लेकर 2020 के बीच यूएपीए कानून के तहत 24,000 लोग गिरफ्तार किए जाते हैं। उन्हें महीनों क्या सालों से जमानत नसीब नहीं हो रही है।

न्यायपालिकाएं बार-बार कहती हैं कि जमानत नियम होना चाहिए और गिरफ्तारी अपवाद। लेकिन गिरफ्तारी नियम बन रही है और जमानत अपवाद। एक ओर थानों में पिटाई सामान्य चलन होता जा रहा है तो दूसरी ओर बुलडोजर न्याय की परंपरा स्थापित होती जा रही है। कभी मुगलकाल में हाथियों से लोगों के घर गिरवाए जाते थे और उन्हें कुचला जाता था आज आंदोलन करने पर बुलडोजर लोगों के घर गिराने पहुंच जाता है और कहता है कि उसे तो अवैध होने की नोटिस कब की मिल चुकी है। प्रदर्शन और आंदोलन करने पर संपत्ति की कुर्की की नोटिसें वैसी ही दी जा रही हैं जैसे ब्रिटिश राज के दौरान दी जाती थीं।

यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं प्रिवेंशन आफ मनी लांडरिंग एक्ट की ऐसी व्याख्या की है जिससे मौलिक अधिकार का अनुच्छेद 21 और 22 शर्मा जाए। ईडी और सीबीआई के हौंसले बुलंद हैं। वे विपक्षी दलों के नेताओं को चुन चुन कर परेशान कर रहे हैं। राहुल गांधी और सोनिया गांधी को जिस तरह से जलील किया गया और उनकी गिरफ्तारी की तलवार जिस तरह से लटक रही है वह अपने में लोकतंत्र का मखौल ही है।

लेकिन सबसे बड़ा खतरा धार्मिक कट्टरता और धर्म के प्रतिस्पर्धी आख्यान से है। आज भारत की स्थिति यह होती जा रही है कि आने वाले दिनों में यहां न तो किसी कालिदास के पैदा होने की संभावना बचती है और न ही जयदेव की। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भारत में आज जितने खतरे हैं उतने स्वतंत्र भारत में तो कभी नहीं रहे। वह खतरे मध्ययुग में भी इतने नहीं थे और प्राचीन भारत में तो शायद और भी कम थे। अगर होते तो इतना विपुल सांस्कृतिक भंडार उत्पादित न होता।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख कहते हैं कि ‘बिना मुस्लिमों के हिंदू राष्ट्र की कल्पना नहीं की जा सकती।’ वे यह भी कहते हैं कि ‘हर मस्जिद के नीचे मंदिर ढूंढना बंद किया जाना चाहिए।’ लेकिन काम इस कथन के ठीक उल्टा हो रहा है। विभिन्न राज्य सरकारें धर्म परिवर्तन के बहाने, खान पान के बहाने, पहनावे के बहाने और राष्ट्रीय प्रतीकों के नाम पर ऐसे कानून बना रही हैं कि अल्पसंख्यक समुदाय अपनी स्वतंत्रता को खोता हुआ पा रहा है। किसी भी लोकतंत्र की कसौटी उसके बहुसंख्यक समुदायों के अधिकार नहीं होते बल्कि अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकार होते हैं। अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकारों की गारंटी तुष्टीकरण नहीं है, वह लोकतंत्र होने की गारंटी है।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने इस बार अपना डीपी बदल कर तिरंगे का डीपी लगा दिया है। प्रधानमंत्री की ओर से तिरंगा फहराने और तिरंगा यात्रा निकालने के आह्वान पर विपक्षी दलों ने उसे घेरा था कि उसे तिरंगे की बजाय भगवा ध्वज से ज्यादा प्यार है। यह एक शुभ संकेत है। लोकतांत्रिक भावना का आदर करना और स्वतंत्रता संग्राम के श्रेष्ठ मूल्यों को स्थापित करना हमारा संवैधानिक लक्ष्य है। लेकिन आरएसएस में आते तमाम बदलावों को देखते हुए भी लोग आश्वस्त नहीं हैं वे इसे क्षणिक मानते हैं। वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को एक ऐसे शक्तिशाली संगठन के रूप देखते हैं जो अपने संविधान और अतीत दोनों से युद्ध कर रहा है। जो भारत के तीन महान शासकों अशोक, अकबर और नेहरू का आदर नहीं करता। अशोक बौद्ध था, अकबर उदार मुस्लिम तो नेहरू एक जागृत सभ्य हिंदू शासक थे।

सवाल उठता है कि अगर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ समावेशी है तो उससे जुड़े तमाम संगठन नफरत और हिंसा का प्रसार क्यों करते हैं।

अच्छा है वह अपने को बदल रहा है लेकिन उसके चरित्र पर जो शंका पंडित नेहरू ने जताई थी उसी को आज भी तमाम लोग जताते हैं। पंडित नेहरू ने 10 नवंबर 1948 को संघ प्रमुख एमएस गोलवलकर को लिखे पत्र में कहा था,  “ऐसा लगता है कि (आरएसएस का) घोषित उद्देश्य का वास्तविक उद्देश्य और संघ से जुड़े तमाम लोगों की गतिविधियों से कोई लेना देना नहीं है। लगता है कि वास्तविक उद्देश्य भारतीय संसद और संविधान के प्रावधानों से पूरी तरह विपरीत है। हमारी सूचनाओं के अनुसार जो गतिविधियां हैं वे राष्ट्रद्रोही हैं और अक्सर विध्वंसकारी और हिंसक हैं।’’

इसलिए स्वतंत्रता का यह अमृत महोत्सव हम सभी को तभी मुबारक हो सकता है जब हम भारत की उस आत्मछवि को प्राप्त करें जिसे महात्मा गांधी और भारत के तमाम मनीषियों ने अपने आचरण से दुनिया के सामने प्रस्तुत करने की कोशिश की है। भारत की इसी आत्मछवि के माध्यम से ही उसके नागरिक आत्मसिद्धि कर सकेंगे और तभी आजादी का अमृत बरसेगा।

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