राधा-रस तो निराला है ही। राधा-कृष्ण एक हैं, राधा कृष्ण का स्त्री रूप और कृष्ण राधा का पुरुष रूप। भारतीय साहित्य में राधा का जिक्र बहुत पुराना नहीं है, क्योंकि सबसे पहली बार पुराण में आता है “अनुराधा” के नाम से। नाम ही बताता है प्रेम और भक्ति का वह स्वरूप, जो आत्म विभोर है, जिससे सीमा बाँधने वाली चमड़ी रह नहीं जाती। आधुनिक समय में मीरा ने भी उस आत्मविभोरता को पाने की कोशिश की। बहुत दूर तक गयी मीरा, शायद उतनी दूर गयी जितना किसी सजीव देह को किसी याद के लिए जाना संभव हो। फिर भी, मीरा की आत्मविभोरता में कुछ गर्मी थी। कृष्ण को तो कौन जला सकता है, सुलझा भी नहीं सकता, लेकिन मीरा के पास बैठने में उसे जरूर कुछ पसीना आए, कम से कम गर्मी तो लगे। राधा न गरम है, न ठंडी, राधा पूर्ण है।
मीरा की कहानी एक और अर्थ में बेजोड़ है। पद्मिनी मीरा की पुरखिन थी। दोनों चित्तौड़ की नायिकाएँ हैं। करीब ढाई सौ वर्ष का अंतर है। कौन बड़ी है, वह पद्मिनी जो जौहर करती है या वह मीरा जिसे कृष्ण के लिए नाचने से कोई मना न कर सका। पुराने देश की यही प्रतिभा है। बड़ा जमाना देखा है इस हिंदुस्तान ने। क्या पद्मिनी थकती-थकती सैकड़ों बरस में मीरा बन जाती है? या मीरा ही पद्मिनी का श्रेष्ठ स्वरूप है? अथवा जब प्रताप आता है, तब मीरा फिर पद्मिनी बनती है। हे त्रिकालदर्शी कृष्ण! क्या तुम एक ही में मीरा और पद्मिनी नहीं बना सकते?
राधा-रस का पूरा मजा तो ब्रज-रज में मिलता है। मैं सरयू और अयोध्या का बेटा हूँ। ब्रज-रज में शायद कभी न लोट सकूँगा। लेकिन मन से तो लोट चुका हूँ। श्री राधा की नगरी बरसाने के पास एक रात रहकर मैंने राधारानी के गीत सुने हैं।
कृष्ण बड़ा छलिया था। कभी श्यामा मालिन बनकर, राधा को फूल बेचने आता था। कभी वैद्य बनकर आता था, प्रमाण देने कि राधा अभी ससुराल जाने लायक नहीं है। कभी राधा प्यारी को गोदाने का न्योता देने के लिए गोदनहारिन बनकर आता था। कभी वृन्दा की साड़ी पहनकर आता था और जब राधा उससे एक बार चिपटकर अलग होती थी, शायद झुँझलाकर, शायद इतराकर, तब श्री कृष्ण मुरारी को ही छट्ठी का दूध याद आता था, बैठकर समझाओ राधारानी को कि वृन्दा से आँखें नहीं लड़ायीं।
मैं समझता हूँ कि नारी अगर कहीं नर के बराबर हुई है, तो सिर्फ ब्रज में और कान्हा के पास। शायद इसीलिए आज भी हिंदुस्तान की औरतें वृंदावन में जमुना के किनारे एक पेड़ में रूमाल जितनी चुनड़ी बाँधने का अभिनय करती हैं। कौन औरत नहीं चाहेगी कन्हैया से अपनी चुनड़ी हरवाना, क्योंकि कौन औरत नहीं जानती कि दुष्ट जनों द्वारा चीरहरण के समय कृष्ण ही उऩकी चुनड़ी अनन्त करेगा। शायद जो औरतें पेड़ में चीर बाँधती हैं, उन्हें यह सब बताने पर वह लजाएँगी, लेकिन उनके पुत्र पुण्य आदि की कामना के पीछे भी कौन-सी सुषुप्त याद है।
ब्रज की मुरली लोगों को इतना विह्वल कैसे बना देती है कि वे कुरुक्षेत्र के कृष्ण को भूल जाएँ और फिर मुझे तो लगता है कि अयोध्या का राम मणिपुर से द्वारका के कृष्ण को कभी भुलाने न देगा। जहाँ मैंने चीर बाँधने का अभिनय देखा उसी के नीचे वृंदावन के गंदे पानी का नाला बहते देखा, जो जमुना से मिलता है और राधा रानी के बरसाने की रँगीली गली में पैर बचा-बचाकर रखना पड़ता है कि कहीं किसी गंदगी में सन न जाए। यह वही रँगीली गली है, जहाँ से बरसाने की औरतें हर होली पर लाठी लेकर निकलती हैं और जिनके नुक्कड़ पर नन्द गाँव में मर्द मोटे साफे बाँध और बड़ी ढालों से अपनी रक्षा करते हैं। राधा रानी अगर कहीं आ जाए, तो वह इन नालों और गंदगियों को तो खतम करे ही, बरसाने की औरतों के हाथ में इत्र, गुलाल और हल्के, भीनी महक वाले, रंग की पिचकारी थमाये और नन्द गाँव के मरदों को होली खेलने के लिए न्योता दे। ब्रज में महक और नहीं है, कुंज नहीं है, केवल करोल रह गये हैं। शीतलता खतम है। बरसाने में मैंने राधारानी की अहीरिनों को बहुत ढूँढा। पाँच-दस घर होंगे। वहाँ बनियाइनों और ब्रह्मणियों का जमाव हो गया है, जब किसी जात में कोई बड़ा आदमी या बड़ी औरत हुई, तीर्थ-स्थान बना और मंदिर और दुकानें देखते-देखते आयीं, तब इन द्विज नारियों के चेहरे भी म्लान थे, गरीब, कृश और रोगी। कुछ लोग मुझे मूर्खतावश द्विज-शत्रु समझने लगे हैं। मैं तो द्विज-मित्र हूँ, इसलिए देख रहा हूँ कि राधारानी की गोपियों, मल्लाहिनों और चमाइनों को हटाकर द्विजनारियों ने भी अपनी कांति खो दी है। मिलाओ ब्रज की रज में पुष्पों की महक, दो हिंदुस्तान को कृष्ण की बहुरूपी एकता, हटाओ राम का एक रूपी द्विज-शूद्र धर्म, लेकिन चलो राम के मर्यादा वाले रास्ते पर, सच और नियम पालन कर।
सरयू और गंगा कर्तव्य की नदियाँ हैं। कर्तव्य कभी-कभी कठोर होकर अन्यायी हो जाता है और नुकसान कर बैठता है। जमुना और चंबल, केन तथा दूसरी जमुना-मुखी नदियाँ रस की नदियाँ हैं। रस में मिलन है, कलह मिटाता है। लेकिन लास्य भी है, जो गिरावट में मनुष्य को निकम्मा बना देता है। इसी रसभरी इतराती जमुना के किनारे कृष्ण ने अपनी लीला की, लेकिन कुरु-धुरी का केंद्र उसने गंगा के किनारे ही बसाया। बाद में, हिंदुस्तान के कुछ राज्य जमुना के किनारे बने और एक अब भी चल रहा है। जमुना क्या तुम कभी बदलोगी, आखिर गंगा में ही तो गिरती हो। क्या कभी इस भूमि पर रसमय कर्तव्य का उदय होगा। कृष्ण! कौन जाने तुम थे या नहीं। कैसे तुमने राधा- लीला को कुरु लीला से निभाया।
लोग कहते हैं कि युवा कृष्ण का प्रौढ़ कृष्ण से कोई संबंध नहीं। बताते हैं कि महाभारत में राधा का नाम तक नहीं। बात इतनी सच नहीं, क्योंकि शिशुपाल ने क्रोध में कृष्ण की पुरानी बातें साधारण तौर पर बिना नामकरण के बतायी हैं। सभ्य लोग ऐसे जिक्र असमय नहीं किया करते, जो समझते हैं वे, और जो नहीं समझते वे भी। महाभारत में राधा का जिक्र हो कैसे सकता है। राधा का वर्णन तो वहीं होगा जहाँ तीन लोक का स्वामी उसका दास है। रास का कृष्ण और गीता का कृष्ण एक हैं। न जाने हजारों वर्ष से अभी तक पलड़ा इधर या उधर क्यों भारी हो जाता है? बताओ कृष्ण!