बिहार में सुखाड़ के साथ खाद की कमी और कालाबाजारी से भी जूझ रहे किसान

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बिहार के सुपौल में यूरिया के लिए लगी लाइन। फोटो : राहुल कुमार गौरव।

22 अगस्त। बिहार में लगातार तपिश और कड़ाके की गर्मी से किसान मायूस हैं। मौसम विभाग के अनुसार 17 अगस्त 2022 तक राज्य में केवल 389.8 मिलीमीटर बारिश दर्ज की गयी, जो कि सामान्य से बहुत कम है। इस समय तक सामान्य तौर पर 657.6 मिलीमीटर बारिश होती है।

इस सुखाड़ से नुकसान झेलने के बाद किसान अब यूरिया और खाद की किल्लत से भारी मुसीबतों का सामना कर रहे हैं। कृषि विभाग के मुताबिक 2022-2023 तक बिहार को 4800 मीट्रिक टन अकार्बनिक उर्वरक देने का लक्ष्य है। जबकि 31 जुलाई तक 1316 मीट्रिक टन दिया गया है।

सुपौल जिला के तीन पंचायत वीणा बभनगामा, एकमा और लौढ के सभी किसान वीणा बभनगामा पंचायत में स्थित तीन खुदरा दुकानों से खाद खरीदते थे। इस बार तीनों दुकानों में कोई यूरिया नहीं लाया है। तीनों पंचायत के किसान शहर की तीन चार दुकानों से यूरिया खरीदने को मजबूर हैं।

वीणा बभनगामा पंचायत के बारा टोल के सुखदेव यादव बताते हैं कि सुबह लगभग 3 बजे हम अपने दोनों बेटों के साथ सुपौल शहर में दुकान पर लाइन में लगे हुए थे। दिन के 12 बजे हमें सिर्फ 3 बोरा यूरिया उपलब्ध हुआ। जबकि हमलोग लगभग 2 बीघा जमीन पर खेती करते हैं। हमें कम से कम धान के सीजन में औसतन 23-25 बोरी यूरिया की जरूरत होती है। इसलिए हमने 500-550 रुपए प्रति बोरा यूरिया भी इस सीजन में खरीदा है। जबकि सरकारी कीमत 266 रुपए प्रति बोरी है।

गांव में तीनों खुदरा दुकानदारों के पास एक बोरा यूरिया नहीं है। सुखदेव यादव बताते हैं कि अभी लगभग सुपौल प्रखंड के 15-17 पंचायत के किसान शहर के थोक दुकानदारों से ही यूरिया खरीद रहे हैं।

यह कहानी अकेले सुखदेव यादव की नहीं है, बल्कि बिहार में कमोबेश हर जिले में हर प्रखंड में ऐसा देखने को मिल रहा है।

बरौनी खाद कारखाने में काम कर रहे सुपौल के पंकज झा बताते हैं कि यूरिया का रेट और कमीशन भी केंद्र सरकार तय करती है, लेकिन रैक पॉइंट (ट्रेन से जहां माल उतरता है) से सेल पॉइंट (विक्रय केन्द्र) तक अच्छा खासा भाड़ा लगता है। इसके बाद कोई दुकानदार एमआरपी पर सामान कैसे बेचेगा। हमारे सुपौल शहर में रैक पॉइंट नहीं है। मधेपुरा रैक पॉइंट से सुपौल लाने में भाड़ा करीब 800 प्रति टन लगता हैं। इसके बाद खुदरा व्यापारी को थोक व्यापारी से गांव तक सामान लाने में और भाड़ा लगता है। इसलिए कोई खुदरा दुकानदार सरकार द्वारा निर्धारित रेट पर यूरिया नहीं बेच सकता है। इसलिए पूरे बिहार में यूरिया की कालाबाजारी हो रही है।

एक खुदरा दुकानदार नाम न बताने की शर्त पर बताता है कि किसान को भी पता है कि ऊपर से खाद महंगी आ रही है। वहीं धान और गेहूं के सीजन के समय कुछ अधिकारी सक्रिय हो जाते हैं जो दुकानदारों पर दबाव बनाते हैं। इसलिए डर से हम लोग मंगाते ही नहीं हैं। बिहार के पूर्णिया जिला में खुदरा विक्रेता संघ ने जिला कृषि पदाधिकारी को बाकायदा थोक विक्रेता के विरोध में पत्र लिखा है। इस पत्र की प्रति डाउन टू अर्थ के पास है।

पैक्स में यूरिया सस्ती लेकिन मिलती ही नहीं

सुपौल मुख्य शहर के आसपास छह-सात पंचायतों को देखा जाए तो सिर्फ एक से दो पंचायत में पैक्स (प्राथमिक कृषि ऋण समिति) सक्रिय हैं। उस पंचायत में हरदी और कढियों शामिल हैं।

हरदी पंचायत के 57 वर्षीय किसान मंटू यादव बताते हैं कि हरदी पंचायत में आस-पड़ोस के तीन-चार पंचायत के लोग आते हैं। इस वजह से हमारे पंचायत के किसानों को दिक्कत होती है। सप्ताह भर में कभी-कभी खबर आती है कि पैक्स में यूरिया आया। उसके लिए लंबी-लंबी लाइन लग जाती हैं। यूरिया सरकारी दर पर मिलता है। एक आधार कार्ड पर सिर्फ एक बोरी। बताइए दो-तीन कट्ठा से ज्यादा खेती करने वाले किसानों की क्या स्थिति होगी। उसमें भी लगभग एक चौथाई पंचायत के लोगों को ही मुश्किल से यूरिया मिल पाता होगा। बाकी दुकान से ही खरीदते हैं।

वहीं वीणा बभनगामा पंचायत के 13 नंबर वार्ड प्रमुख अमर झा बताते हैं कि, “हमारे गांव में जब पैक्स चुनाव होता है तो लगता है एक पर्व मन रहा है। लेकिन पैक्स के नाम पर सिर्फ 50-60 किसानों से धान और गेहूं खरीदा जाता है और कुछ नहीं। अगर पैक्स के माध्यम से किसानों को यूरिया मिले तो बहुत सूलभ होगा”

नैनो यूरिया पर भरोसा नहीं

रसायन खाद की किल्लत को देखते हुए इफ्को ने किसानों के लिए नैनो यूरिया की खोज की। कृषि विशेषज्ञ के मुताबिक दानेदार 50 किलो यूरिया खाद की जगह महज 500 मिलीलीटर नैनो यूरिया का प्रयोग किया जा सकता है। लेकिन, बिहार के अधिकांश ग्रामीण इलाकों में नैनो यूरिया के प्रति किसानों में कम रुचि देखी जा रही है, लोग इसे लेने से कतराते नजर आ रहे हैं।

सहरसा जिला के बनगांव पंचायत के रमन झा बताते हैं कि, “नैनो यूरिया को लेकर सरकार ने टीवी और अखबार में तो खूब प्रचार किया। इसके बावजूद गांवों में इसको लेकर कोई जागरूकता नहीं है।”

उसी गांव के ललन मिश्र बताते हैं कि हमारा घर खेती से चलता है। हम सिर्फ प्रयोग के लिए नैनो यूरिया कैसे उपयोग करें। अगर घाटा हुआ तो घर कैसे चलेगा। जब तक सरकार गांव-गांव में इसको प्रयोग करके हमें नहीं बताएगी, हम कैसे विश्वास कर सकते हैं।”

वीना बभनगामा गांव के खुदरा विक्रेता चंद्र नाथ झा बताते हैं कि, “पिछले साल 20 पैकेट नैनो यूरिया लाया था। अभी भी 06 पैकेट बचा हुआ है। जो किसान उपयोग किए, वो भी दोबारा लेने नहीं आए। रसायन खाद ही खोज रहे हैं।”

– राहुल कुमार गौरव

(डाउन टु अर्थ से साभार)

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