— विनोद कोचर —
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी को भगवान शंकर की लीलाभूमि के रूप में, विश्व की सबसे प्राचीन नगरी कहलाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था लेकिन अपने संसदीय क्षेत्र की इस गौरवशाली उपलब्धि को बर्बाद करने वाले मोदीजी के अनेक कारनामों में से एक कारनामा तो ये रहा कि वाराणसी की तमाम ऐतिहासिक पहचानों में से, प्राचीनतम नगरी वाली पहचान को मिटाकर मोदीजी ने वाराणसी को एक विदेशी शहर क्योटो बनाने का सपना देखा और इस सपने को साकार करने की दिशा में आगे बढ़ते हुए, अनगिनत प्राचीन शिव मंदिरों को, शिवलिंगों को ध्वस्त कर डाला, हजारों वर्षों से वाराणसी की पहचान बनीं, गंगा किनारे की संकरी गलियों को, इन गलियों की दुकानों के जरिये अपने परिवार की आजीविका चलाने वाले कारोबारियों को तबाह कर डाला। क्योटो बनाने के अपने विदेशी सपने की बलिवेदी पर, बनारस की आत्मा पर ही ऐसा क्रूर प्रहार करने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री भी बनने का बदनामी भरा श्रेय लूटकर मोदीजी गदगद भी हो गए।
काशी को क्योटो बनाने का कारनामा, मोदीजी का मौलिक कारनामा था जिसके लिए, उन्हें मिले आरएसएस के प्रशिक्षण को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
बाद में, जिस मां गंगा ने उन्हें इसलिए वाराणसी बुलाया था कि वे मैली गंगा को शुद्ध करने का पुण्योपार्जन करें, वाराणसी के सांसद और प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने गंगा की उम्मीदों पर भी पानी फेर दिया। इसके लिए भी आरएसएस से उन्हें मिले प्रशिक्षण को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
लेकिन अब, तमाम कायदे-कानूनों और आला अदालतों के निर्देशों की धज्जियां उड़ाते हुए, उनके संसदीय क्षेत्र में पचासों सालों से गांधी-जेपी-लोहिया के विचारों, कामों और संबंधित लेखों आदि का प्रचार प्रसार कर रहे सर्व सेवा संघ के स्वामित्व वाली इमारतों को ध्वस्त करने का जो पाप मोदी सरकार के इशारे पर हुआ है, उसके लिए जरूर आरएसएस की गांधी-जेपी-विनोबा विरोधी विचारधारा का ही मुख्य दोष है।
आरएसएस की विचारधारा ने सबसे पहले गोडसे के जरिये गांधी के जिस्म की हत्या की। जिस्म जल गया गांधी का, लेकिन विचार और भी जादा तेजस्विता से जब जगमगाते लगे तो गांधी की प्रतिमाओं को खंडित और अपमानित करने का अभियान चलाया गया। फिर भी संघी विचारधारा का मन नहीं भरा। तो अब गांधी के विचारों के प्रचार-प्रसार में लगे सर्व सेवा संघ की इमारतों को ध्वस्त करने का काम हो गया है।
गांधी के दो प्रमुख अनुयायियों जयप्रकाश नारायण और विनोबा भावे के साथ भी संघी हिन्दूराष्ट्रवादी विचार ने जो किया, उस पर भी एक नजर –
75-77 के आपातकाल में आरएसएस पर प्रतिबंध लगाकर, गांधी-जेपी के अनुयायियों के साथ-साथ आरएसएस/जनसंघ के सक्रिय नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी, जब जेलों में बंद कर दिया गया था तो, सत्ता की बैसाखी के जरिये खुद को शूरमा समझने का गुमान पाल रही इस विचारधारा का आलम ये था कि ये लोग, गिड़गिड़ाते हुए, पत्रों के जरिए विनोबा भावे से मिन्नतें कर रहे थे कि वे इंदिरा गांधी पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए जेलों में बंद स्वयंसेवकों को रिहा करवाएँ।
इनके तत्कालीन सरसंघचालक तो इंदिरा गांधी को खुशामदी चिट्ठियां भी लिख रहे थे। अपनी इस रणनीति की तुलना कृष्ण और शिवाजी की नीतियों से करने में भी इस विचारधारा को शर्म नहीं आ रही थी।
और जयप्रकाश नारायण ने तो इन आरएसएस वालों को इस हद तक सर पर बिठा रखा था कि ‘आरएसएस अगर फासिस्ट है तो मैं भी फासिस्ट हूँ’ कहकर जेपी ने अपनी प्रतिष्ठा की साख भी इन फासिस्टों को दिए गए चरित्र प्रमाणपत्र के साथ नत्थी कर दी थी।
लेकिन इस विचारधारा ने विनोबा और जेपी के अमूल्य अहसानों का बदला इनके प्रति अहसानफरामोशी जताकर, सर्व सेवा संघ के रूप में वाराणसी में स्थित इनकी अमूल्य विरासत को तहस-नहस करके चुकाया है।
इन अहसानफरामोश लोगों ने न तो स्वामी विवेकानंद को बख्शा, न हिंदुत्व की सर्व धर्म समभाव की विचारधारा को बख्शा, न भारत के विचारों को बख्शा, न भारत के संविधान को, न भारत के लोकतंत्र को और न ही भारत के जनसामान्य को बख्शा।
सर्व सेवा संघ की विरासत पर किया गया इस विचारधारा का नादिरशाही हमला इनके चरित्र के ही अनुरूप है।
थोड़े से स्वसंपादित अंश के साथ,
बकौल दुष्यंत –
मुड़के देखेगी हिकारत से इन्हें तारीख़ कल
इनकी पीढ़ी के किसी धड़ पे कोई चेहरा न था
कुछ कुहासा था मगर वो इस धुएं जैसा न था
मेरे होंठों पर कभी ऐसा कोई शिकवा न था