
— प्रफुल्ल सामंतरा —
1. ओड़िशा में पोस्को के खिलाफ 2005 से 2016 तक लंबा संघर्ष चला था। सरकार ने 2700 एकड़ वनभूमि जबरदस्ती अधिग्रहीत कर ली थी, जहाँ सौ साल से ज्यादा समय से ग्रामीण पान की खेती करते आ रहे थे। लेकिन लोगों के प्रतिरोध और एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) में चली कानूनी लड़ाई के चलते लौह अयस्क की खदानों का पट्टा (लीज) प्राप्त करने में हो रही देरी ने पोस्को को हट जाने के लिए विवश कर दिया। लंबे समय तक चली उस लड़ाई में ढिंकिया गाँव के लोग सबसे आगे थे और इसमें इलाके की महिलाओं की भूमिका कहीं अधिक प्रभावकारी थी।
अब ओड़िशा सरकार ने वहाँ सीमेंट और थर्मल पॉवर की परियोजनाओं के लिए जेएसडब्ल्यू उत्कल स्टील लिमिटेड को आमंत्रित किया है। ये परियोजनाएँ कहीं अधिक नुकसानदेह हैं। इससे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ेगा, और न सिर्फ इस इलाके की चार ग्राम पंचायतों में बल्कि पारादीप इलाके में भी काफी प्रदूषण होगा जहाँ कई रासायनिक उद्योग पहले से हैं। एक बार फिर सरकार धमकाने, लाठीचार्ज और नेतृत्वकारी भूमिका वाले कार्यकर्ताओं को जेल भेजने जैसे पुलिसिया दमन के सहारे जबर्दस्ती जमीन अधिग्रहीत करने पर आमादा है। पान की खेती की लगभग एक हजार सिंचित भूमि रौंद डाली गयी है, किसानों की सहमति के बगैर, जिन्हें वनाधिकार अधिनियम 2006 के तहत अपनी जमीन पर मालिकाना हक हासिल है। संघर्ष जारी है।
2. कोरापुट जिले में सिमिलिगुड़ा ब्लाक के 44 गाँवों के आदिवासी 2003 से मालीपर्वत में बाक्साइट का खनन न होने देने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस पर्वत से 36 सदानीरा जलधाराएँ निकलती हैं जो कोलाब नदी को, जो इस जिले की जीवनरेखा है, पानी से सराबोर रखती हैं। यह संरक्षित वन है और इसकी देखरेख यहाँ ग्रामीण ही करते हैं। इस वन में बहुत-से औषधीय पौधे हैं और यह गाय, बकरी जैसे पालतू पशुओं के लिए चारे का स्रोत है। सदानीरा जलधाराएँ प्रकृति की भेंट हैं। ग्रामीणों के पास कृषि खासकर सब्जियों की खेती के रूप में टिकाऊ आजीविका है, सब्जियाँ स्थानीय बाजार में और जिले के बाहर भी बेची जाती हैं।
ओड़िशा सरकार ने 2007 में आदित्य बिड़ला ग्रुप को 60 लाख टन बाक्साइट के खनन का पट्टा दिया था लेकिन कंपनी लोगों के प्रतिरोध के कारण खनन का काम शुरू नहीं कर सकी। 2021 में फिर 60 लाख टन बाक्साइट के खनन का 50 साल के लिए नया पट्टा दिया गया, ग्राम सभा की सहमति के बगैर। नवंबर 2021 में पर्यावरणीय मंजूरी के लिए जन सुनवाई की गयी, लेकिन जो लोग विरोध कर रहे थे उन्हें इसमें शामिल नहीं होने दिया गया।
असहमति को कुचलने के लिए और जन सुनवाई को कंपनी के पक्ष में करने के लिए पुलिस ने स्थानीय समुदाय के नेताओं को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया और ग्रामीणों को जन सुनवाई में पहुँचने से रोक दिया। इस संबंध में हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गयी है, इस प्रार्थना के साथ कि एकतरफा जनसुनवाई को रद्द घोषित किया जाए। मालीपर्वत के आदिवासी न केवल आजीविका के अपने हक की खातिर बल्कि आनेवाली पीढ़ियों के लिए पर्यावरण को बचाने के मकसद से भी इस कुदरती स्रोत की रक्षा के लिए कटिबद्ध हैं।
3. ओड़िशा सरकार ने बाक्साइट और लौह अयस्क के खनन के लिए 7 ऐसे जंगलों की नीलामी कर दी, जो इंसानी गतिविधियों से एकदम अछूते थे। ये जंगल न सिर्फ उन कंपनियों को दिये गये जो अयस्क का इस्तेमाल करेंगी बल्कि उन कंपनियों को भी दिये गये जो अयस्क को खुले बाजार में नीलाम करके चाँदी काटेंगी। यह राजस्व बटोरने का बहुत ही खतरनाक तरीका है क्योंकि इससे खदानें खाली हो जाएंगी जिसका खमियाजा आनेवाली पीढ़ियों को भुगतना होगा, इसके अलावा इससे पर्यावरण का संकट और गहराएगा। ये सभी कार्रवाइयाँ आदिवासी क्षेत्रों में हुई हैं जो कि अधिसूचित क्षेत्र हैं, और जहाँ वन अधिकार अधिनियम-2006 और पेसा अधिनियम, 1996 के मुताबिक ग्राम सभा से राय-परामर्श करना और ग्राम सभा की सहमति प्राप्त करना अनिवार्य है। इन दो कुदरती संसाधनों में सबसे अहम है कारलापाट जंगल, जो कि कालाहांडी जिले में आता है, जो संरक्षित वन है, जहाँ खांडुआलमाली पहाड़ी स्थित है, और जहाँ क्योंझर जिले का गांधलपदा गाँव है, जिसे बचाने और संरक्षण देने की जरूरत है, न सिर्फ भविष्य के लिए बल्कि वर्तमान के लिए भी, क्योंकि यह लोगों के लिए टिकाऊ आजीविका का स्रोत है, यहाँ वन्यप्राणियों का ठिकाना है और यहाँ से सदानीरा जलधाराएँ निकलती हैं जो इलाके की नदियों को जल-संपन्न किये रहती हैं। लौह अयस्क की अन्य पाँच खदानें पुरीबहल वन, चंडीपोश वन, झुमुकापाथरपोशी वन, नेत्रबंधा पहाड़ और धालता पहाड़ में हैं। ये सभी इंसानी गतिविधियों से बिलकुल अछूते रहे जंगल हैं जिन्हें खनन की खातिर सुंदरगढ़ जिले में नीलाम किया गया है।
4. कारलापाट में सितंबर 2021 में खनन का पट्टा वेदांता कंपनी को नीलामी के जरिए दिया गया, संबंधित ग्राम सभा की मंजूरी या सहमति के बगैर। इस इलाके में वन्यजीव अभयारण्य है और हाथियों का महत्त्वपूर्ण गलियारा। यहाँ अनेक सदानीरा जलधाराएँ हैं। एक बार यहाँ खनन शुरू होते ही खांडुलमाली का पूरा वनक्षेत्र धीरे-धीरे मुनाफाखोर कंपनियों के कब्जे में चला जाएगा। बाक्साइट के बेलगाम खनन की यह प्रक्रिया कुदरती हरे-भरे जंगलों को नष्ट कर देगी, जहाँ केंदु, महुआ, आम, कटहल और अन्य कई संरक्षित श्रेणी के पेड़ काफी तादाद में हैं, इसके अलावा छोटी-बड़ी 350 सदानीरा जलधाराएँ हैं जो इंद्रावती तथा नागाबाली जैसी नदियों को हमेशा जल-संपन्न किये रहती हैं, जिसका महत्त्व खेती के लिए तो है ही, ओड़िशा और आंध्र प्रदेश में विद्युत उत्पादन के लिए भी है।
हजारों ग्रामीणों का, खासकर दो सौ से अधिक गाँवों के दलितों और आदिवासियों का इस कुदरती संसाधन पर परंपरागत अधिकार है जिसे टिकाऊ विकास के लिए तथा पर्यावरणीय न्याय के लिए, वर्तमान तथा भविष्य दोनों के मद्देनजर, खनन से होनेवाली बरबादी से बचाना होगा। पहले कंपनियों को खनन के पट्टे धड़ल्ले से दे दिए जाते थे लेकिन पिछले दस वर्षों से स्थानीय आदिवासी समुदाय इसका कड़ा प्रतिरोध कर रहे हैं। खांडुलमाली स्थायी सुरक्षा समिति के बैनर तले आदिवासियों ने कारलापाट वनक्षेत्र में खनन की इजाजत दिए जाने का जोरदार विरोध संगठित किया है। आंदोलन का मकसद है खांडुलमाली वनक्षेत्र को खनन-मुक्त घोषित कराना।
5. क्योंझर और सुंदरगढ़ जिलों के आदिवासी समुदाय दशकों से असीमित खनन के शिकार रहे हैं। इन जिलों में विस्थापित आदिवासियों का दुख-दर्द किसी भी सरकार ने नहीं सुना न महसूस किया। यही बात खनन से लाभान्वित वर्ग पर भी लागू होती है। वन जनजातीय समुदायों के प्राकृतिक पर्यावास रहे हैं, वनों के विनाश का नतीजा यह हुआ है कि बिना ठीक-ठाक पुनर्वास के, उन्हें जबर्दस्ती उजड़ना पड़ा है। वे प्रदूषित धूल और राख तथा सूखी नदियों के साथ रहने को अभिशप्त कर दिये गये।
क्योंझर जिले में अब भी कुछ हरे-भरे जंगल हैं लेकिन वे खनन कंपनियों द्वारा नष्ट कर दिये जाने का इंतजार कर रहे हैं। इनमें से एक, जोडा ब्लाक में आनेवाला गांधलपदा जंगल है। यह बहुत पुराना कुदरती जंगल है जहाँ 8 लाख से ज्यादा पेड़ हैं जिनमें से 75 फीसद साल के पेड़ हैं। इस जंगल में 34 करोड़ टन लौह अयस्क का भंडार है जिसके खनन का पट्टा ग्राम सभा की सहमति के बगैर दे दिया गया, जबकि यहाँ ग्राम सभा की सहमति प्राप्त करना अनिवार्य है क्योंकि संविधान की पाँचवीं अनुसूची में आने के कारण यह जिला एक अधिसूचित (शिड्यूल्ड) क्षेत्र है।
साल के पेड़ को पूरी तरह बड़ा होने में तीस साल लगता है। यह पेड़ कुदरती जंगल के लिए बहुत मूल्यवान है। साल के पेड़ की प्राकृतिक आयु 150 साल होती है। इसलिए मुक्त स्वच्छ वायु और जलस्रोत के लिए ये जंगल बहुत अहम हैं और इन्हें दोहनकारी खनन उद्योग से बचाना जरूरी है। जबकि इन क्षेत्रों में भी धड़ल्ले से खनन की इजाजत दी जा रही है, इस दलील पर कि इससे राज्य के राजस्व में काफी इजाफा होगा। लेकिन खनन कंपनियाँ जो मुनाफा बटोरेंगी वह कुदरती जंगलों तथा आनेवाली पीढ़ियों के हक की कीमत पर ही होगा।
पिछले पंद्रह सालों में क्योंझर जिले में विस्थापन-विरोधी दो बड़े और सफल आंदोलन हुए, स्टरलाइट और मित्तल स्टील कंपनियों के खिलाफ, 15000 एकड़ कृषिभूमि और गाँवों को बचाने के लिए। इन आंदोलनों के कारण तीन स्टील कंपनियों को वहाँ से विदा होना पड़ा। अब उसी जमीन को अधिग्रहीत करने के लिए सरकार दूसरी कंपनियों को आमंत्रित करने की योजना बना रही है। आखिरकार क्योंझर जिला कुदरती हरा-भरापन खोकर एक उजाड़ में बदल जाएगा।
सुंदरगढ़ जिले में पाँच छोटे जंगल हैं जो इंसानी गतिविधियों से एकदम अछूते रहे हैं। यहाँ लौह अयस्क की खदानों के पट्टे दिए गये हैं जिन्हें बेचा भी जा सकता है। ये जंगल आदिवासियों तथा भूमिहीन गरीबों की आजीविका के प्रमुख स्रोत हैं।
6. मलकानगिरि जिले में साबेरी नदी के तट पर एक घना जंगल है जो केटामेटा जंगल के नाम से जाना जाता है। यहाँ केंदु, महुआ, गारदा, आम जैसे लंबी आयु के मूल्यवान पेड़ हैं। वर्ष 2020 में इस जंगल का 1000 हेक्टेयर क्षेत्र चूना पत्थर के खनन के लिए डालमिया सीमेंट कंपनी को दे दिया गया, इस जंगल में स्थित 16 गाँवों की ग्राम सभा की सहमति के बगैर। जबकि उनकी सहमति लेना वनाधिकार अधिनियम 2006 और पेसा अधिनियम के तहत अनिवार्य है। यह जंगल 50 से अधिक गाँवों के गुजर-बसर का स्थायी आधार है। पर्यावरणीय मंजूरी के लिए मार्च 2022 में जो जन सुनवाई हुई उसमें उन ग्रामीणों को जाने ही नहीं दिया गया जो खनन का विरोध कर रहे थे। जिला प्रशासन ने राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के साथ मिलकर जन सुनवाई संचालित की, जिसमें कंपनी के मुट्ठी-भर समर्थकों का भी सहयोग रहा।
विरोध कर रहे ग्रामीणों को जन सुनवाई से दूर रखने के लिए पुलिस बल इस्तेमाल किया गया। कंपनी के एजेंट की तरह पेश आते हुए कुछ पुलिस अधिकारियों ने ग्रामीणों को धमकी दी, कि वे जन सुनवाई में हिस्सा न लें और परियोजना का विरोध न करें। खदानों के नजदीक ही एक सीमेंट संयंत्र होगा। फलस्वरूप काफी प्रदूषण होगा। कंपनी साबेरी नदी के पानी का अत्यधिक इस्तेमाल करेगी, और प्रदूषित भी। इससे ग्रामीण बिना पुनर्वास और बिना मुआवजे के विस्थापित होने के लिए विवश होंगे। जब विस्फोट किये जाएंगे तब प्रदूषित धूल हवा में भर जाएगी और पीड़ित गाँवों में पानी की गुणवत्ता पर भी बुरा असर पड़ेगा। विकास के नाम पर, सरकार कुदरती जंगलों और आदिवासियों तथा अन्य वनवासियों के जीवन-आधारों व जीवन प्रणाली की कीमत पर कंपनियों को अधिक से अधिक मुनाफा बटोरने में मदद कर रही है। ये आदिवासी और अन्य वनवासी स्वच्छ हवा तथा स्वच्छ पानी से भी महरूम हो जाएँगे।
‘जनता वीकली’ से साभार
अनुवाद : राजेन्द्र राजन
(जारी)
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