आज हमारा सामना असाधारण चुनौतियों से है और ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए हमारे पास कोई ऐसा असाधारण साधन होना चाहिए। एक विशेष साधन जो संसदीय विपक्ष और जनांदोलनों के बीच पुल बनकर भारतीय राजनीति के इतिहास की इस संकट की घड़ी में जनता-जनार्दन को राजनीतिक प्रतिरोध के लिए जगा, जुटा और निर्देशित कर सके। ऐसा सेतुबंध हमारे भविष्य का निर्माण कर सकता है।
देश को एक पुल की जरूरत है, एक ऐसे राजनीतिक पुल की, जो विपक्षी राजनीतिक दलों को जमीनी आंदोलनों से जोड़े। पिछले हफ्ते एक झलक मिली कि ऐसा पुल अपने रूपाकार में कैसा हो सकता है। भारत के लोकतंत्र को फिर से जगाने-जिलाने और अपने गणराज्य को दोबारा हासिल करने की संभावना इसी राजनीतिक नवाचार पर निर्भर है। यहीं से निकलेगा देश का सच्चा प्रतिपक्ष।
हाल में राजनीतिक दलों से अपने को दूर रखते आए जन आंदोलनकारी समूहों ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ नामक एक बड़े राजनीतिक अभियान से जुड़ने का फैसला किया है। भारत जोड़ो यात्रा का आह्वान कांग्रेस पार्टी का है। देश के अस्तित्व के आगे उठ खड़ी हुई चुनौतियों ने इन आंदोलनकारी समूहों को मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों से जुड़ने के लिए बाध्य किया है ताकि ये समूह राजनीतिक संकट में हस्तक्षेप कर सकें। लेकिन ऐसा राजनीतिक हस्तक्षेप किसी पार्टी विशेष के प्रति इन आंदोलनकारी समूहों की पक्षधरता का संकेत नहीं है, क्योंकि भारत जोड़ो यात्रा से जुड़नेवाले आंदोलनकारी समूह किसी एक पार्टी को बढ़ावा देने के मकसद से नहीं जुड़े हैं। और न ही विपक्षी दलों के बीच चलनेवाली आपसी खींचतान से उन्हें कोई लेना देना है।
जाहिर है, आंदोलनकारी समूहों के राजनीतिक दलों से जुड़ाव के इस नए प्रयोग को लेकर बनी समाचारों की सुर्खियों में इसका अनूठापन दर्ज न हो पाया। मीडिया में खबर इस बात को लेकर बनी कि राहुल गांधी नागरिक संगठनों से मेल-जोल कर रहे हैं। राहुल गांधी के बारे में यह फर्जी खबर भी चली कि उन्होंने 2024 के चुनावों को लेकर अभी से हार मान ली है, उस वक्त तक चलती रही जब तक न्यूज चैनल ने खुद ही न कह दिया कि यह खबर निराधार है। इस बात की भी अटकल लगाई गई कि कुछ ‘आंदोलनजीवी’ कांग्रेस पार्टी से जुड़ने जा रहे हैं। किसी के पास ये जानने का वक्त या धैर्य नहीं था कि भारत जोड़ो यात्रा अभियान को समर्थन देनेवाले समूह कौन हैं और अभियान को किस तरह का समर्थन इन समूहों ने समझ के साथ दिया है।
जुड़ाव के पुल बनाने के हाल के कदम
पिछले साल इस किस्म के पुल बनाने के कई प्रयास हुए। [एक खुलासा : यहां जिन बैठकों और पहल का जिक्र किया जा रहा है, मैं उनमें ज्यादातर में भागीदार रहा]। कई गणमान्य नागरिक, बुद्धिजीवी तथा एक्टिविस्ट पिछले साल सितंबर में दिल्ली में ‘इंडिया डिजर्व्स बेटर’ शीर्षक से इसी संभावना की तलाश में जुटे थे। इसके बाद बेंगलुरु, कोच्चि, जयपुर, इलाहाबाद तथा गुवाहाटी में भी ऐसी बैठकें हुईं। ऐसी बैठकों में शिरकत करनेवाले कुछ भागीदारों ने `हम हिन्दुस्तानी’ नाम से इस पहलकदमी को और आगे बढ़ाया। इन सबके पीछे मूल विचार ये था कि जो अपने गणराज्य को दोबारा हासिल करना चाहते हैं और लोकतांत्रिक प्रतिरोध की आवाजों को बुलंद करना चाहते हैं उनके बीच एक व्यापक एकता कायम हो सके।
लोकतंत्र के आगे उठ रहे खतरों के निरंतर बढ़ते जाने के साथ ऐसी पहलकदमियों में तेजी आयी। इस महीने में विचार-विमर्श के लिए तीन अहम बैठकें हुईं। बनारस में 13-14 अगस्त को गांधीवादी संस्थाओं तथा जेपी आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं की एक बैठक ‘राष्ट्र निर्माण समागम’ नाम से हुई। इसमें अमरनाथ भाई, रामचंद्र राही, प्रशांत भूषण तथा आनंद कुमार शामिल थे। बैठक में संकल्प लिया गया कि राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने और लोकतंत्र को बचाने के लिए अखिल भारतीय स्तर पर एक बहुमुखी आंदोलन चलाया जाएगा।
इसी बीच कांग्रेस ने कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत जोड़ो यात्रा करने की अपनी योजना का ऐलान किया और सभी नागरिकों, संगठनों, आन्दोलनों तथा राजनीतिक दलों से इस यात्रा से जुड़ने की अपील की। दिग्विजय सिंह कांग्रेस अध्यक्ष का एक पत्र लेकर प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी तथा वरिष्ठ समाजवादी नेता जी.जी. परीख के पास पहुंचे, उनसे भारत जोड़ो यात्रा के लिए समर्थन मांगा। इसके बाद 19 अगस्त को दिल्ली में एक बैठक हुई जिसमें दो दर्जन से ज्यादा नागरिक संगठन शामिल हुए। इनमें नेशनल एलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट (एनएपीएम) का भी नाम शामिल है। बैठक में ‘नफरत छोड़ो, भारत जोड़ो अभियान’ चलाने का फैसला हुआ और कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को समर्थन देने का भी। इस फैसले पर हस्ताक्षर करनेवालों में मेधा पाटकर, तुषार गांधी, जस्टिस (रिटायर्ड) कोलसे पाटिल, अली अनवर तथा डॉ. सुनीलम का नाम शामिल है।
जन-आंदोलनों और कांग्रेस नेतृत्व के बीच 22 अगस्त को कांस्टिट्यूशन क्लब में हुई बैठक को इसी संदर्भ में देखना उचित है। अरुणा राय, बेजवाड़ा विल्सन, देवानूरु महादेव, गणेश देवी, पीवी राजगोपाल, सैयदा हमीद, शरद बेहार और इन पंक्तियों के लेखक के निमंत्रण पर जन-आंदोलनों के तकरीबन 150 प्रतिनिधि एक समागम में शामिल हुए। समागम का मुख्य एजेंडा इस बात पर विचार करना था कि भारत जोड़ो यात्रा से जन-आंदोलनी समूह जुड़ें या नहीं, और अगर जुड़ने का फैसला होता है तो यह जुड़ाव किन शर्तों पर हो। लंबी चर्चा, दिग्विजय सिंह की प्रस्तुति को देखने और राहुल गांधी के साथ हुई बेबाक बातचीत के बाद समूह ने सर्व-सम्मति से भारत जोड़ो यात्रा का स्वागत करने और इसे समर्थन देने का फैसला किया।
राजनीतिक दल और जन-आंदोलन के आपसी रिश्ते के इतिहास में यह एक महत्त्वपूर्ण लम्हा था। गौर करें कि समागम में भाग लेनेवाले प्रतिनिधियों ने पूरी यात्रा में बिनाशर्त शामिल होने का फैसला नहीं किया बल्कि सहमति इस बात पर बनी कि प्रत्येक आंदोलन समूह भारत जोड़ो यात्रा की पहलकदमी से जुड़ाव का अपना तरीका खोजेगा। नफरत की राजनीति का सिद्धांतनिष्ठ प्रतिरोध करने की राजनीतिक दलों की तैयारियों को लेकर समागम के भागीदारों के मन में जो आशंकाएं थीं उसकी भी खुलकर अभिव्यक्ति हुई। इन जन संगठनों और जनांदोलनों ने अपने आप को कांग्रेस पार्टी से नहीं जोड़ा है। बेशक, कल कोई और पार्टी ऐसा ही कोई अभियान चलाती है तो ये आंदोलन समूह उसे भी समर्थन दे सकते हैं–बशर्ते ऐसा अभियान लोकतंत्र की संस्थाओं तथा संवैधानिक मान-मर्यादाओं पर हो रहे हमले के खिलाफ पुरजोर लोकतांत्रिक प्रतिरोध का वादा करता हो।
‘किसी पार्टी से जुड़ाव नहीं’ से लेकर ‘निष्पक्ष जुड़ाव तक’
‘निष्पक्ष जुड़ाव’ की यही बात मौजूदा दौर को उस दौर से अलग करती है जिसे ‘गैरदलीय राजनीतिक प्रक्रिया’ का नाम दिया जाता है। सन् 1980 के दशक में भारतीय लोकतंत्र के सिद्धांतकारों ने देखा कि राजनीति के जंगल में एक नया जीव चहलकदमी कर रहा है। राजनीतिक धमक वाला यह जीव कोई राजनीतिक दल नहीं था, उसे चुनाव नहीं लड़ना था और न ही चुनावों में कोई दखल देना था। लेकिन फिर इसे दान-भाव या मानव-मात्र की सेवा के भाव से चलनेवाले स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ) का नाम भी नहीं दिया जा सकता था और न ही इसे कोई दबाव-समूह ही कहा जा सकता था। सन् 1980 के दशक में उठ खड़े होनेवाले ये समूह अपने स्वभाव में राजनीतिक थे, उनका एक राजनीतिक पक्ष था। ये समूह राजनीतिक सत्ता के प्रतिरोध में खड़े थे और ये समूह राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित थे। सेंटर फॉर दि स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटिज (सीएसडीएस) से जुड़े रजनी कोठारी, डी.एल. शेठ तथा हर्ष सेठी सरीखे तमाम विद्वानों ने तृणमूल स्तर के इन जन-आंदोलनी समूहों को ‘गैर-दलीय राजनीतिक प्रक्रिया’ का नाम दिया। इन विद्वानों ने भारतीय लोकतंत्र में उभरे इन समूहों से बड़ी-बड़ी आशाएं बांधी। इन समूहों का उभरना पश्चिमी लोकतंत्र से भारतीय लोकतंत्र को अलग करती एक अनूठी परिघटना थी।
आज लोकतांत्रिक प्रतिरोध की इस घड़ी में जरूरत आन पड़ी है कि जिसे ‘गैरदलीय राजनीतिक प्रक्रिया’ का नाम दिया गया था, उसकी भूमिका में आंशिक परिवर्तन हो। दलगत राजनीति और गैर-दलीय राजनीति के बीच सचेत और उपयोगी तौर पर अलगाव रखने की जगह अब जरूरत है कि हम इन दो तरह की राजनीति के बीच आपसी जुड़ाव के सूत्र ढूंढ़ें। विपक्ष के राजनीतिक दलों को जन-आंदोलन की जरूरत आज पहले के वक्तों की तुलना में कहीं ज्यादा है क्योंकि राजनीतिक दल कार्यकर्ता, संगठन और विचारधारा से विहीन एक राजनीतिक मशीन में बदल गए हैं। बीते आठ सालों में ‘संसद’ नहीं बल्कि ‘सड़क’ लोकतांत्रिक प्रतिरोध का मुख्य ठीहा बनकर उभरी है।
साथ ही, यह कहना भी ठीक होगा कि जमीनी जन-आंदोलनों के लिए आज राजनीतिक दलों की जरूरत पहले की तुलना में बहुत ज्यादा है। चूंकि प्रतिरोध और विरोध की आवाजों के प्रति राजसत्ता की असहिष्णुता बढ़ती जा रही है। सो, एकमात्र चुनाव का मैदान ही शेष बचा है जहां खड़े होकर राजनीतिक बदलाव की उम्मीद बांधी जा सकती है। प्रतिरोध की राजनीति चुनावी नतीजों और चुनाव जीतनेवाले दलों की ओर आँख मूंदकर नहीं चल सकती। जन-आंदोलनों से गहराई आती है और राजनीतिक दलों से विस्तार। आंदोलन से मुद्दे उभरते हैं, राजनीतिक दल इन मुद्दों की मध्यस्थता करते हुए उन्हें एक एजेंडे का रूप देते हैं। आंदोलनों से अनगढ़ ऊर्जा मिलती है, राजनीतिक दल इस ऊर्जा को दिशा देकर असरदार नतीजों में बदलते हैं।
इसीलिए आज हमें एक विशेष किस्म के साधन की जरूरत है —ऐसा साधन जो न तो अपने रूप और आकार में राजनीतिक दल हो और न ही जन-आंदोलन का कोई संगठन। यह साधन ऐसा हो कि नीतियों और राजनीतिक परिप्रेक्ष्यों का तो निर्माण कर सके लेकिन वैसे नहीं जैसे कि कोई थिंक टैंक करता है। यह साधन ऐसा हो कि आंदोलन चला सके लेकिन मात्र आंदोलनकारी संगठन बनकर न रह जाए। इस साधन का राजनीति में हस्तक्षेप करना भी जरूरी है (जिसमें 2024 का बड़ा चुनाव भी शामिल है) लेकिन इसके लिए इस साधन का राजनीतिक दल के रूप में बदलना जरूरी नहीं। आज हमारा सामना असाधारण चुनौतियों से है और ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए हमारे पास कोई ऐसा असाधारण साधन होना चाहिए। एक विशेष साधन जो संसदीय विपक्ष और जनांदोलनों के बीच पुल बनकर भारतीय राजनीति के इतिहास की इस संकट की घड़ी में जनता-जनार्दन को राजनीतिक प्रतिरोध के लिए जगा, जुटा और निर्देशित कर सके। ऐसा सेतुबंध हमारे भविष्य का निर्माण कर सकता है।
(द प्रिंट से साभार)