राजकिशोर राजन की पॉंच कविताऍं

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पेंटिंग : कमल कोरिया

1. कविता कहानी देश दुनिया से दूर

तुम दुनिया जहान के अनगिन विषयों
भूख-गरीबी दुख-तकलीफ
सभी पर लिखते हो और मुक्त हो जाते हो
तुमने कभी सोचा भी है

तुम्हारी तरह जो मुक्त नहीं हो पाता
उसका जीवन कितना विषादग्रस्त होता है !
तुम हुनरमंद लोगों के पास तरकीबें हजार

कि चिंताग्रस्त भी रहो और पियो आराम से सुबह की चाय
कि दुखी भी रहो और दोपहर को तुम्हें नींद आ जाए
दिन भर करते रहो समझौते हजार और रात को
कविता लिखो इंकलाब का
दुनिया के हर पखेरू को मुक्त करने का करते रहो नारा बुलंद
और अपना जीवन ही पड़ा रहे गिरवी किसी रसूखदार के हाथ
आज तक समझ नहीं पाई तुम कैसे साध लेते हो
उत्तर –दक्षिण ,पूरब –पश्चिम को एक साथ
तुम छोटे से जीवन में इतना सब कुछ कैसे कर पाते हो
जीवन नहीं छल जिया करते हो

मैं हतवाक्य था यही प्रण करते
अब से कोई कवितासंग्रह ऐसी स्त्री को नहीं दूंगा
जो मात्र गृहिणी हो, कविता, कहानी, देश-दुनिया से दूर
क्या आपको ऐसी स्त्री कभी नहीं मिली!

2. लिखने और न लिखने के बीच

जब भी किसी कविता को लिखने बैठता
एक अजाना अचीन्हा हारा हुआ आदमी होता हूँ
जिसने बरसों से महज काला किया कागज
पर कभी पुलकित होने का क्षण नहीं जिया
हर बार लगा इस बार भी हथेली में आते आते छूट गया सबकुछ
जो चाहता था, जिस तरह चाहता था, उसका छटांक भर भी धर न सका
कभी ऐसा संयोग नहीं हुआ कि मन मुग्ध होता कि चलो
कुछ तो लिख ही लिया जिसे जब-जब पढूॅंगा आषाढ़ की पहली बारिश में
तन सिहरेगा भीग जाएगा मन
जो अकारथ था सारभूत हो जाएगा

मुझसे बड़भागी तो वह औरत है जो अलस, बेनूर दोपहर को
मड़ई पर पसरे लौकी को देखती और जुड़ा जाती है
लाख अभाव हो उसके जीवन में पर सैकड़ों बार
लहालोट होती है
कभी खेत में फरे भिंडी के खेत को देख
कभी गाछ पर फरे लाल-करिया फरेन जामुन को देख
कभी छोटका बेटा द्वारा दिल्ली से भेजे गए साबुन-सोटा महकौवा तेल को देख

यही जीवन वरण करना था मुझे
कि जीवन भर पढ़ते-लिखते रहो
फागुन सावन कातिक आषाढ़ को भूल
तज सभी रास-रंग संसार भर का
और जब दो-चार लाइनें लिखने जाओ तो अरराकर गिरो जैसे
गिरता है बूढ़ा गाछ
और न लिखो तो लगता यह जीवन ही अकारथ गया।

3. अगर मिलना हो तुम्हें

रात के भीतर नारी गंध
पुरुष गंध दिन में
तुम मिल सको तो मिलना सूर्योदय को
या फिर सूर्यास्त में।

पेंटिंग : प्रो विजय सिंह

 4. मौसम की पहली बारिश

तुम पसीने से नहाए नहीं महीनों
तुम धूप में जले नहीं महीनों
गरम हवा के झोंकों से झुलसे नहीं महीनों
तुमने इंतजार नहीं किया मौसम की पहली बारिश का

जैसे पेड़ नदियां वनस्पति पृथ्वी सभी पुनर्नवा होते हैं
मौसम की पहली बारिश में
तुम चूक गए इस जीवन में पुनर्नवा होने से

मुझे उस बूढ़े की बात पर हंसी आई
पता नहीं किस ग्रह का प्राणी है जो गिर पड़ा है
हमारी दुनिया में
या हो सकता है पुराने खयालात का कोई कवि होगा
देश-दुनिया से दूर
इन दिनों मौसम बारिश और पुनर्नवा होने की बात
भला कोई आदमी करता है !

 5. समय से पहले बूढ़ी हो रही औरतों की बातचीत

अपने दफ्तरों के लिए निकली वे तीन कामकाजी महिलाएं थीं
जिनकी बातें आज शुरू हुई थीं दाल से
क्योंकि उनमें से एक को इन दिनों सबसे अधिक तकलीफ उसी से थी
उसके श्वसुर को पता नहीं क्या सूझी है इन दिनों
कि सिर्फ दाल ही पीते रहते हैं कई-कई बार
और थाली में छोड़ देते भात छूँछा
अक्सर पूरा घर रह जाता बिना दाल

दूसरी जो तीनों में अधिक सुघड़ थी
उसके कपड़े भी थे सबसे अधिक सलीकेदार
वह निराश थी कि उसकी नींद इन दिनों कभी पूरी नहीं होती
उसकी जिंदगी बन गई है साइकिल का पहिया

तीसरी जो दोनों से बोल रही थी एक सॉंस में तेज तेज
जैसे कि यह दुनिया भरी हुई है गूंगे-बहरे लोगों से
वह बेहद उदास थी
कि असमय वह बूढ़ी होती जा रही है
उन सहेलियों को तो छोड़ो इधर पति भी कहने लगे हैं
समय से पहले अर्चना तुम बूढ़ी हो रही हो !

पहली बार तीनों एकमत थीं
जब पहली ने कहा तीसरी से दूसरी के बारे में
कि इसे ही देखो पहले इसकी आँखें कैसी कज्जल
हुआ करती थीं
अब किसी पेड़ के कोटर-सी लगती हैं

दूसरी ने कहा एकदम सही अब देखो न पहले कैसे किसी ताजे फूल की तरह
खिले-खिले कुछ बोलते लगते थे तुम्हारे होंठ
अब लगता है स्याहीसोख्ता से किसी ने सोख लिया हो
उसका स्वत्व
तीसरी जो उम्र में अधिक थी दोनों से
उसने श्रेयस्कर समझा मौन रहना ही
जैसे कि जीवन को जीना हो तो
बड़ी से बड़ी बात पर एक जम्हाई ले लो गहरी
और फिर उसे कर दो आई-गई बात

उन तीनों की राय थी कि सुबह-सुबह वे ही बनाती हैं चाय
पर जब तक पीऍं इत्मीनान से बैठकर
उनकी जिंदगी की तरह ठंडी हो जाती है चाय
न जाने क्यों इस बार वे तीनों एकसाथ खिलखिला उठती हैं लड़कियों की तरह!


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