— डॉ अमृता पाठक —
विश्व स्तर पर इस महीने हुई सौंदर्य प्रतियोगिता में भारत की महिला हरनाज संधू मिस यूनिवर्स बनीं और मीडिया ने इसे भारत के लिए गौरव की बात बताकर लोगों के सामने पेश किया। इसका एक अलग पहलू भी है जिसकी उपेक्षा इस समाज द्वारा की जा रही है। अलग-अलग क्षेत्र के अलग-अलग रंग-रूप वाले दुनिया भर के इस समाज में यह प्रतियोगिता कई सवाल छोड़ती है। इन प्रतियोगिताओं में अलग-अलग मापदंडों पर प्रतिभागियों को मापा जाता है। इन मापदंडों में बड़ी-बड़ी आँखें, लम्बा छरहरा बदन, लम्बी नाक और दूध सा सफेद चेहरा इन सब को रखा गया है। गोरा रंग न भी हो तो चेहरे में पानी और चेहरा चमकदार होना चाहिए। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में विभिन्न रंग, कद व नाक-नक्श के लोग निवास करते हैं। लेकिन एक खास तरह के लोगों के लिए ऐसी प्रतियोगिता को आयोजित करवाना आयोजनकर्ता द्वारा महिलाओं को वस्तु समझने, बाजार से मुनाफा कमाने, और पितृसत्तात्मक सोच के पूर्वाग्रह से ग्रसित होने का प्रमाण है। यह असमानता और नस्लभेद में डूबी सौंदर्य प्रतियोगिता सभ्य समाज को कलंकित करती है।
यह पहली बार नहीं है कि भारत से कोई मिस यूनिवर्स बनी है। इससे पहले ऐश्वर्या राय, सुष्मिता सेन, प्रियंका चोपड़ा, लारा दत्ता, मानुषी छिल्लर जैसी कई महिलाएं मिस यूनिवर्स और मिस वर्ल्ड जैसी प्रतियोगिता में खिताब हासिल कर चुकी हैं। इस प्रतियोगिता में हिस्सा कोई भी ले सकती है लेकिन यहाँ सफलता पाने का एक खास पैमाना है। ऐसी प्रतियोगिताओं में हम चेहरे को लेकर कितने गंभीर हैं इस बात का सबूत तेजी से बढ़ता ब्यूटी इंडस्ट्री का बाजार हमें देता है। 2019 में पूरी दुनिया के मार्केट 380 अरब डॉलर के मुकाबले हमारे देश की कॉस्मेटिक और ब्यूटी इंडस्ट्री का मार्केट 2017 तक 11 अरब डॉलर के आसपास था और वह इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि 2025 में 20 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा। साल 2027 तक पूरी दुनिया का कॉस्मेटिक मार्केट 464 अरब डॉलर तक पहुंचने के आसार हैं। सुंदरता के मापदंड क्या मल्टीनेशनल और कॉस्मेटिक कंपनियां तय करेंगी? अधिकांश आम महिलाएं इस सांस्कृतिक हमले को किस नजरिए से देखती हैं? इस असमानता से भरे प्रतियोगिता के खिलाफ हुए नारीवादी आन्दोलन आज क्या सोचते हैं? ऐसे कई सारे सवाल हैं।
सौंदर्य प्रतियोगिता का इतिहास
सौंदर्य प्रतियोगिता सन 1921 में शुरू हुई थी जिसका उद्देश्य था अखबार का सरकुलेशन बढ़ाना तथा होटल में लोगों का मनोरंजन कर गर्मी के सीजन में व्यापार बढ़ाना। अमरीका के अखबारों ने युवा महिलाओं की फोटो देख प्रतियोगिता द्वारा कुछ महिलाओं का चयन किया। वहां पर महिलाओं की गोरी त्वचा और बाहरी हिस्से का रखरखाव ही सुंदरता का पैमाना था। जब धीरे-धीरे इस पर आलोचना होने लगी तो इस आलोचना को रोकने के लिए प्रतियोगिता में कुछ बदलाव किये गये। जैसे कि 1938 में लिखावट की जगह और चीजों को शामिल किया गया। उसी वर्ष सौंदर्य प्रतियोगिता में शर्त रखी गयी थी कि इसमें हिस्सा लेने वाली महिला अविवाहित होनी चाहिए। बाद में उसमें नियम क्रमांक 7 को 1940 में प्रतिबंधित किया गया क्योंकि उसमें कहा गया था कि मिस अमरीका अच्छी सेहत वाली और गोरी होनी चाहिए। उस साल की विजेता साल भर आयोजक कंपनी के उत्पादन का प्रमोशन करती रही और बाद में अमरीकी सैनिकों का मनोरंजन। इसके इतिहास में टर्निंग प्वाइंट 1968 में आया जब नारीवादी कार्यकर्ताओं ने प्रतियोगिता के खिलाफ ऐतिहासिक विरोध प्रदर्शन किया। इस आंदोलन की अगुवाई महिला नेता ‘कैरोल हनीश्च’ ने किया और नारा दिया “The personal is political”.
उन्होंने इस प्रतियोगिता का विरोध करते हुए कहा कि इस विरोध के जरिए गायब हुए महिला मुक्ति आंदोलन को लोगों की चर्चा में लाया जा सकेगा। उस साल सुंदरता प्रतियोगिता अटलांटा शहर में संपन्न होने वाली थी। इस आंदोलन में शामिल होने के लिए सभी राजनीतिक विचारों की महिलाओं को शामिल होने का आह्वान किया गया। उस आंदोलन की विशेषता और आकर्षण था ‘फ्रीडम ट्रैश कैन’ (आजादी का कचरा डिब्बा)। इसके पीछे कल्पना यह थी कि महिलाओं के शोषण के प्रतीक को तथा उत्पादनों को इस कचरे के डिब्बे में फेंकना था और उसकी निंदा करनी थी।
आंदोलनकारियों की योजना प्रतियोगिता प्रायोजक कंपनियों के उत्पादनों का बहिष्कार करने की भी थी।आंदोलनकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन करने के 10 कारण सार्वजनिक किये थे जिसमें नस्लभेद (रेसिज्म) भी था क्योंकि तब तक किसी भी काले रंग की अमेरिकी इंडियन महिला को इस प्रतियोगिता का खिताब नहीं दिया गया था।
1976 में, डेबोरा लिपफोर्ड मिस अमेरिका पेजेंट में पहली अफ्रीकी-अमेरिकी शीर्ष 10 सेमी-फाइनलिस्ट बनीं। साल 1983 में, वैनेसा विलियम्स ने मिस अमेरिका 1984 बनने के लिए पेजेंट जीता जो पहली ब्लैक मिस अमेरिका हुई। बाद में उसने नग्न तस्वीरों के कांड के कारण अपना ताज त्याग दिया और उपविजेता सुज़ेट चार्ल्स मिस अमेरिका बनने वाली दूसरी अफ्रीकी-अमेरिकी बन गयीं। वर्ष 2000 में एंजेला पेरेज़ बरैकियो पहली एशियाई-अमेरिकी मिस अमेरिका बन गयीं। कुछ आलोचकों ने तर्क दिया है कि 20वीं शताब्दी के अंत में मिस अमेरिका पेजेंट के रूप में अधिक विविधतापूर्ण होने के बावजूद, यह सफेद महिलाओं की अपनी पारंपरिक सौंदर्य छवि को आदर्श बनाना जारी रखा।
पितृसत्ता की जड़ें
पितृसत्ता की जड़ें समाज में जितनी गहरी हैं उससे लड़ाई का इतिहास भी उतना ही पुराना है। पितृसत्ता समाज में पुरुषों का वर्चस्व स्थापित करती है जो महिलाओं पर हुकूमत करते हैं। उनकी जिन्दगी के क्रियाकलाप को नियंत्रित करते हैं। जिसके खिलाफ अभिनेत्री मेरिल स्ट्रीप ने कहा था कि
“नहीं चुराने दूंगी मैं किसी को मेरे माथे की ये झुर्रियां, जो उभरी हैं ज़िंदगी की खूबसूरती को हैरानी और खुशी से देखने से। मेरे होंठों के आसपास की सिलवटें, जो मेरी बेहिचक हंसी और चुंबनों की देन हैं। मेरी आंखों के नीचे की ये थैलियां जो मुझे याद दिलाती हैं कि मैं जिंदगी में कितना रोयी हूं। ये सब मेरी अपनी हैं और बहुत खूबसूरत हैं। दुनिया के डर से या अपनी हमेशा जवान लगने की लालसा से मैं कभी नहीं रंगूंगी अपने इन सफेद बालों को क्योंकि ये धूप में नहीं पके। ये पके हैं ज़िंदगी के अच्छे-बुरे तजुर्बात से और उन तजुर्बात को मैं ज़िंदा रखना चाहती हूं।”
पितृसत्ता में शरीर को हमेशा से अत्यधिक महत्त्व दिया गया है और चूंकि केवल शरीर को अहमियत दी जाती है, इसलिए इसकी निंदा भी अधिक होती है। वह कहती हैं कि पितृसत्ता में न सिर्फ महिलाओं को बल्कि पुरुषों की शारीरिक बनावट को भी बराबर महत्त्व दिया जाता है। इसलिए दोनों ही वर्गों का शारीरिक बनावट के प्रतिमानों पर सटीक ना बैठने से उनका शरीर निंदा एवं हंसी का पात्र बन जाता है। किसी भी महिला के शरीर के लिए सिर्फ कोमल, सुंदर जैसे पर्यायवाची का इस्तेमाल किया जाना और पुरुष को काबिल, ताकतवर, सोचने और फैसले करने की क्षमता रखनेवाला बताया जाना पितृसत्तात्मक सोच है। पितृसत्ता नारी के शरीर को प्रकृति का हिस्सा मानती है और उसका तन ही उसकी विशेषता बन जाती है तो दूसरी ओर पुरुष की विशेषता उसकी संस्कृति, विचार और मन है।
असमानता से भरा सुंदरता का बाजार और उपभोक्तावाद
यह प्रतियोगिता असमानता का प्रतीक है। इसमें हिस्सा हर कोई ले सकता है लेकिन इनके मापदंडों पर खरा उतरने वाला ही अंत तक टिका रह सकता है। विडंबना यह भी है कि समाज में एक तरफ महिलाएं अपनी बराबरी की लड़ाई लड़ रही हैं तो दूसरी तरफ ऐसी प्रतियोगिताओं का जश्न भी मना रही हैं जो उनकी लड़ाई का अर्थ भी बदल दे रही हैं। यह सुंदरता का बाजार है जहां हम सभी खरीददार हैं। हरनाज संधु के मिस यूनिवर्स प्रतियोगिता जीतने के बाद न जाने कितनी लड़कियां उसके जैसी बनने की कोशिश में लगी होंगी। किसी को उसके जैसी हाइट चाहिए होगी तो किसी को उसके जैसी स्माइल लेकिन सावधान रहिएगा यह हमारा बाजार बड़े स्तर पर अलग-अलग पैकिंग में रंगभेद और असमानता बेचता है। महिलाओं की जिंदगी को बचपन से ही यह बाजार घेर लेता है। यहां सिर्फ बाजार दोषी नहीं है। यह हमारी परवरिश का हिस्सा भी है। हमारे शरीर के साथ अगर कुछ हो जाए तो पहला सवाल यह कि हमारा परिवार और समाज क्या करता है? इसकी शादी कैसे होगी? लोग अपनी शादी के लिए ऐश्वर्या राय सरीखी दुल्हन चाहते हैं क्यों? क्योंकि दुनिया ने उसे विश्व सुंदरी माना है। वह दूसरी लड़कियों के लिए एक उपमा बन चुकी है। ध्यान दीजिए अखबारों के मैट्रिमोनियल ऐड्स पर, पहला शब्द ‘गोरी’ ही होता है। हमारे समाज में लड़की के बायॉडेटा में कॉम्प्लेक्शन का एक अलग कॉलम बना होता है। ऐसे ऐड और बायॉडेटा के इन कॉलम से गोरे शब्द को हटने में वक्त लगेगा।
महिलाओं का वस्तुकरण और पूंजीवादी एजेंडा
पुराने जमाने में धर्म के आधार पर महिलाओं का शोषण किया जाता था। अब पूंजीवादी व्यवस्था में जहां सब चीजों को उपभोक्तावाद के नजरिये से देखा जा रहा है उसमें जैसे वस्तु का उत्पादन शामिल है वैसे ही इंसान की तरफ देखने का नजरिया भी बन गया। पूरे संसार को मुनाफा और उत्पादन इसी मापदंड पर देखा जाने लगा है और उसका इस्तेमाल और शोषण हो रहा है। इसी प्रक्रिया में महिलाओं का भी वस्तुकरण किया जा रहा है। यह एक गुलामी की अवस्था है। बड़ी-बड़ी कंपनियां अपने इश्तिहार में महिलाओं को कम से कम कपड़े में पुरुषों के लिए इस्तेमाल होनेवाले उत्पादन बेचते हुए दिखाती हैं। बाजारवाद में महिलाओं को मुनाफा कमाने का जरिया बनाया गया है वहीं पूंजीवादी सत्ता महिलाओं के प्रति समाज के नजरिये को नियंत्रित करती है। और एक गुलामी की सोच प्रस्थापित करती है।
महिलाओं के शरीर व उनकी आजादी पर बहुत सारे डिबेट हो चुके हैं लेकिन इस तरह की प्रतियोगिता ऐसी डिबेट पर पानी फेरती नजर आती है। ऐसी प्रतियोगिता पितृसत्ता द्वारा स्थापित नारीत्व की परिभाषा को और सशक्त बनाती है। साथ ही इसे राष्ट्रवादी विचार से भी जोड़ा गया है जो राष्ट्रवाद की मर्दाना सोच सामने रखती है। रंगभेद और असमानता का जश्न मनाना प्रगतिशील सभ्य समाज में बाधक है। बतौर नागरिक हमें उदार,समान व प्रगतिशील होना चाहिए ताकि समतामूलक समाज का निर्माण किया जा सके।