— नन्दकिशोर आचार्य —
मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है, मनुष्य सब चीजों का मापदण्ड है, मनुष्य ही एकमात्र सत्य है– इस तरह की बातें हर विचारधारा को माननेवाले लोगों से अक्सर सुनने को मिल जाती हैं। वैज्ञानिक मनुष्य को जीवों में सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। दार्शनिक उसमें चेतना की चरम अभिव्यक्ति खोजते हैं और सृष्टि का केंद्रीय स्थान उसी को देते हैं– यहाँ तक कि मनुष्य की चेतना को एक यांत्रिक प्रक्रिया के रूप में देखने और मनुष्य की नियति को यांत्रिक स्तर पर नियंत्रित कर सकने की आशा करनेवाले लोग भी अपने प्रयत्नों का प्रयोजन मनुष्य का कल्याण ही मानते हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि किसी भी सामाजिक व्यवस्था की कसौटी यही है कि उसके अंतर्गत मनुष्य के बहुआयामी विकास को किस सीमा तक एक उचित वातावरण और सुविधाएँ मिलती हैं। जो व्यवस्था मनुष्य के विकास की संभावनाओं को मानसिक-आध्यात्मिक अथवा सामाजिक-आर्थिक किसी भी स्तर पर रोकती है, उसे हम उचित व्यवस्था नहीं कह सकते। इसी प्रकार यह स्वीकार करने में भी कोई आपत्ति नहीं हो सकती कि मनुष्य जैविक विकास का सर्वश्रेष्ठ स्तर है, कि उसमें जीवन और चेतना की अद्यतन सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हुई है और भविष्य में इसके और गुणात्मक विकास की अपेक्षा भी उसी से की जा सकती है। इसलिए यह मान लेने में कोई एतराज नहीं हो सकता कि वह अन्य जीवों से श्रेष्ठ है।
तब फिर समस्या क्या है? इस सवाल पर यहाँ पर विचार करने की आवश्यकता ही क्या है– बल्कि फिर सवाल ही कहाँ बच रहता है? लेकिन सवाल उठता है और बड़ा महत्त्वपूर्ण सवाल उठता है। सवाल यह उठता है कि जब हम मनुष्य को सब जीवों से श्रेष्ठ मान लेते हैं या उसे ही किसी व्यवस्था की कसौटी मान लेते हैं, तब हमारे इस कथन या मान्यता का ध्वन्यार्थ क्या होता है।
क्या हमारा तात्पर्य यह होता है कि मनुष्य अन्य जीवों से अधिक समर्थ, सचेत और श्रेष्ठ है, अतः शेष जीवन और जगत् के संरक्षण और संपोषण का दायित्व उसका है अथवा यह कि वही सबसे श्रेष्ठ है इसलिए अन्य सब कुछ उसके अबाध उपयोग के लिए है जिसे वह स्वैच्छाचारी तरीके से इस्तेमाल कर सकता है?
वह श्रेष्ठ है इसलिए प्रकृति और जीव जगत का शोषण, दोहन और दमन करने का उसे अधिकार है, कि अधिक से अधिक उसका दायित्व अपनी ही जाति के अन्य सदस्यों– बल्कि अपने वर्ग या राष्ट्र के सदस्यों तक के प्रति है?और प्रकृति या मनुष्येतर जीवों के प्रति दायित्व का अर्थ ही क्या है? उनका तो प्रयोजन ही यही है कि मनुष्य उनका इस्तेमाल करे– बल्कि यह इस्तेमाल मनुष्य के अस्तित्व की आवश्यकता है क्योंकि उसके बिना वह जीवित नहीं रह सकेगा! क्या ऐसा नहीं है?
क्या आप भी ऐसा ही मानते हैं? लेकिन अक्सर लोग ऐसा ही मानते हैं और ऐसा मानते हुए अपने ही तर्क के निहितार्थ की अनदेखी कर जाते हैं। मनुष्य केवल जैविक अस्तित्व नहीं है। वह एक मूल्यसृष्टा, स्वतंत्रचेता और इसलिए उत्तरदायी प्राणी है जिसके आचरण को सिर्फ जैविक स्तर पर नहीं परखा जाता। उसका उत्तरदायित्व किसी अन्य के प्रति नहीं है– इस अर्थ में वह सर्वश्रेष्ठ है– लेकिन अपनी ही स्वतंत्र चेतना से उद्भूत और विकसित मूल्यों के अनुसार आचरण में ही उसका मानवत्व निहित है इस अर्थ में उसका उत्तरदायित्व अपनी स्वतंत्र चेतना और अपने मानवत्व के प्रति है। अपने जैविक व्यवहार में इस मूल्यगत औचित्य से उसे परे नहीं रखा जा सकता। यह ठीक है कि मूल्यों के उद्भव, विकास और पहचान की परख वैज्ञानिक चिंतन–दृष्टि से की जानी चाहिए लेकिन तब भी यह स्मरण ऱखना होगा कि विज्ञान अपनी प्रक्रिया में मूल्य–निरपेक्ष है, उसके उपयोग को भी मूल्यवत्ता देने का काम मानव चेतना ही करती है।
इसलिए यदि हम इस तर्क को मान लेते हैं कि मनुष्य में जीवन और चेतना का सर्वाधिक गुणात्मक विकास हुआ है, अतः वह सबसे श्रेष्ठ है और इसलिए उसे अपने से ही हीनतर का अपनी इच्छानुसार उपयोग करने का अधिकार है तो हमें यह भी देखना चाहिए कि इस मान्यता की चरम तार्किक परिणति क्या होगी। क्या हम यह स्वीकार नहीं कर रहे होंगे कि श्रेष्ठतर को यह अधिकार है कि वह अपने से हीनतर का अपने लिए उपयोग कर सके? प्रकृति और पशुजगत् जीवन और चेतना के विकास में मनुष्य से नीचे के स्तरों पर हैं– यही बात तो मनुष्य को उनसे श्रेष्ठतर बनाती और उनके इस्तेमाल के बारे में इकतरफा निर्णय लेने का अधिकार मनुष्य को देती है।
यदि हम यही तर्क मानव-समाज पर भी लागू कर दें तो क्या हम यह मानने को राजी हैं कि इसी तर्क के आधार पर मानव–आचरण को जाँचा जाना चाहिए, मनुष्यों में भी चेतना के विकास के भिन्न स्तर और आयाम मिलते हैं– यदि मानवीय आचरण की कसौटी उपर्युक्त मान्यता है तब तो अधिक विकसित चेतना और जीवन–शक्ति वाले मनुष्यों, समाजों या राष्ट्रों को यह सर्वमान्य अधिकार होना चाहिए कि वे अपने से कमजोर और हीनतर मनुष्यों, समाजों या राष्ट्रों का उपयोग अपने लिए कर सकें! क्या हम ऐसा मानने के लिए सहमत हैं?
कुछ लोग हैं जो इसे तर्क की टाँग खींचना कह सकते हैं। उनकी आपत्ति यही होती है कि मनुष्य का मनुष्य के प्रति व्यवहार और मनुष्य का मनुष्येतर जीवन के प्रति व्यवहार दो अलग बातें हैं और उनके लिए एक ही कसौटी नहीं बनायी जा सकती। मनुष्य और पशु में फर्क है, अतः मनुष्य और पशु के प्रति किये जा रहे आचरण में फर्क होना स्वाभाविक और संगत है। यदि हम इस तर्क को मान लेते हैं तो उससे भी क्या यही ध्वनित नहीं होता कि मनुष्य और पशु द्वारा किये जा रहे आचरण में भी फर्क होना चाहिए।
मनुष्य किसके प्रति आचरण कर रहा है, इससे पहले यह बात समझ लेना आवश्यक है कि आचरण करनेवाला मनुष्य है– जो चेतना संपन्न मूल्यस्रष्टा उत्तरदायी प्राणी है– इसलिए उसके आचरण में हर स्तर पर मानवत्व प्रतिबिंबित होना अधिक संगत और सार्थक है। ऐसा नहीं है कि वह मनुष्यों के बीच ही मनुष्य रहता है और जड़ प्रकृति के बीच जाने पर जड़ तथा पशुओं के बीच जाते ही पशु हो जाता है। ऐसी स्थिति में उसके लिए जहाँ यह जरूरी है कि मनुष्य और मनुष्येतर जीवन के साथ आचरण करते हुए वह इन दोनों के फर्क को समझे और तद्नुकूल आचरण करे, वहीं यह भी उतना ही बल्कि शायद ज्यादा आवश्यक है कि वह तथ्य को न भूले कि उसके आचरण में वह मूल्यबोध और चेतना प्रतिबिंबित होनी चाहिए जो उसे मनुष्य बनाती है।
कुछ लोग समझ सकते हैं कि मैं जीवदया जैसी किसी धार्मिक या मानवतावादी भावना अथवा पारिस्थितिक संतुलन और पर्यावरण की शुद्धता के लिए चलाये जा रहे आंदोलनों के समर्थन में इतना सब तर्कजाल फैला रहा हूँ। इन दोनों को मैं गलत तो नहीं मानता पर मेरा आग्रह उन पर एक अलग दृष्टि से विचार करने का है।
जब हम जीवदया की बात करते हैं तब अपने को एक दाता के भाव से गरिमामंडित कर लेते हैं– उसमें यह भावना नहीं रहती कि हम पर जीवों या मनुष्येतर जीवन का कोई अधिकार है बल्कि यह भावना अधिक प्रबल हो जाती है कि हम उनसे श्रेष्ठ हैं। तब यह तर्क कुछ भ्रामक हो जाता है क्योंकि इसमें जीवन मात्र के प्रति कृतज्ञता का भाव नहीं रहता।
मनुष्य जीवन की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है, अतः जीवन मात्र से जुड़ना, उसका संरक्षण और संवर्धन उसके मनुष्य होने की अनिवार्य नैतिक और भावनात्मक शर्त है। जब मनुष्येतर जीवन के साथ मनुष्य का रिश्ता अस्तित्वगत स्तर पर अनुभव किया जाता है तभी वह वास्तविक अर्थों में मानवत्व का अर्जन करनेवाला आचरण हो पाता है।
पर्यावरण और पारिस्थितिक संतुलन के लिए चलाये जा रहे आंदोलनों के पीछे भी अभी तक केंद्रीय दृष्टि मनुष्य के लिए उनकी उपयोगिता है। यह महसूस किया जा रहा है कि अभी तक जिस तरह से प्रकृति का दोहन किया जाता रहा है, यदि उसी गति और पद्धति से वह प्रक्रिया जारी रही तो मानव जाति के लिए उसके परिणाम बड़े भयंकर होंगे। इसलिए वास्तविक चिंता यहाँ भी मनुष्य की ही है।
मनुष्य की चिंता करना आवश्यक है लेकिन जीवन की चिंता करना भी उतना ही आवश्यक है क्योंकि मनुष्य जीवन की ही सर्वश्रेष्ठ और उत्तरदायी अभिव्यक्ति है। जिस तरह समाज में मनुष्य का केंद्रीय महत्त्व है उसी तरह पूरे ब्रह्माण्ड में जीवन का केंद्रीय महत्त्व है। अतः मनुष्येतर जीवन के प्रति मनुष्य का रवैया उपयोगितावादी हो ही नहीं हो सकता– उसके आचरण में जीवन मात्र के प्रति लगाव और कृतज्ञता के उसी बोध की झलक संगत और स्वाभाविक है जो मनुष्य के प्रति उसके आचरण में दिखायी देनी चाहिए।
एक उदाहरण से बात संभवतः अधिक स्पष्ट हो सकेगी। आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथों में कुछ ऐसे मंत्रों का उल्लेख मिलता है जिन्हें वानस्पतिक औषधियों को पौधों से तोड़ने के पूर्व पढ़ा जाता था। इन मंत्रों में औषधि में देवता का वास मानते हुए इस बात के प्रति क्षमा माँगी जाती तथा कृतज्ञता ज्ञापित की जाती थी कि मनुष्य अपने लिए उनका उपयोग कर रहा है। इसी प्रकार बहुत से भारतीय परिवारों– विशेषतया ग्रामीण परिवारों में भोजन से पूर्व परोसे गये भोजन को प्रणाम करने या उसके लिए निश्चित मंत्रों को पढ़ने की परंपरा देखी जा सकती है। सभी प्रकार के कार्यों के लिए जीवन के विभिन्न रूपों में देवता का वास मानते हुए उनके प्रति इसी प्रकार के कृतज्ञतापूर्ण मंत्रों की रचना की गयी थी।
मेरा यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि आज हम भी प्रत्येक कार्य से पूर्व उन या उसी तरह के मंत्रों का उच्चारण करें। वह तो एक रूढ़ि है और मंत्रों का उच्चारण करते हुए भी हमारा व्यवहार उसी प्रकार गैर-जिम्मेदार और अमानवीय हो सकता है जिस प्रकार बड़े-बड़े आदर्शों की बातें करने के बावजूद सामाजिक-आर्थिक जीवन में होता जा रहा है। असली बात यह है कि हम यह पहचानें कि वह देवता वास्तव में यह समग्र अस्तित्व ही है। उसके प्रति अस्तित्वगत लगाव, कृतज्ञता तथा उत्तरदायित्व की भावना और तद्नुकूल आचरण में ही हमारे मानवत्व की सिद्धि और सार्थकता है।