— बादल सरोज —
इधर दिल्ली में लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री डॉ. आम्बेडकर का नाम ले रहे थे, महिलाओं को अवसर देने की बात कर रहे थे, आनेवाले 25 वर्ष को भारत के लिए ‘अमृतकाल’ बता रहे थे, उधर उन्हीं की मंडली का एक और झुण्ड देश को दो-ढाई हजार साल पीछे ले जाने का इंतजाम कर रहा था। मोदी के भाषण के दो दिन पहले हिन्दू-राष्ट्र के संविधान का गुटका, बीज-मसौदा घोषित किया जा रहा था।
इस गुटके में हिन्दू-राष्ट्र कैसा होगा इसका मोटा-मोटी खाका देश को बता दिया गया है। अभी सिर्फ 32 पन्ने जारी हुए हैं।लिखनेवालों ने बता दिया है कि यह कुल मिलाकर 750 पन्नों का होगा।
अगले साल के ‘माघ मेले’ में लगनेवाली ‘धर्म-संसद’ इस हिन्दू राष्ट्र की ‘संविधान सभा’ होगी और इसमें कोई 300 पृष्ठों का आरम्भिक मसौदा रखा जाएगा। इसी साल फरवरी में प्रयागराज में हुई ‘धर्म-संसद’ ने 30 धर्मगुरुओं और “पढ़े-पढ़ाये” लोगों की एक समिति बनाकर उसे हिन्दू-राष्ट्र का संविधान तैयार करने का काम सौंपा था। यह इस कथित समिति के संविधान की पहली खेप है। इसका आमुख ही इसके बाकी पहलुओं की झलक दे देता है।
राजधानी को दिल्ली से बनारस, मतलब काशी ले जाने के अलावा शिक्षा, सुरक्षा, कानून-व्यवस्था, मताधिकार और चुनाव प्रणाली आदि के बारे में इस ‘गुटके’ में जो लिखा गया है उसका सार यह है कि चुनाव प्रणाली पूरी तरह बदल दी जाएगी, नयी प्रणाली में मुसलमानों और ईसाइयों को वोट डालने यानी चुनने और चुने जाने का अधिकार नहीं होगा। सभी के लिए सैनिक प्रशिक्षण अनिवार्य होगा, ‘गुरुकुल पद्धति’ शिक्षा प्रणाली का नया रूप होगी, इसमें पढ़ाये जानेवाले विषयों में आयुर्वेद, गणित, नक्षत्र और भूगर्भ-शास्त्र के साथ ज्योतिष होगा।
रहने को तो हिन्दू-राष्ट्र में सभी जातियों के लोग रह सकेंगे, लेकिन रहने के तौर-तरीके आज की तरह नहीं होंगे। मौजूदा जमाने के नियम-कायदे हटाकर सब कुछ ‘वर्णाश्रम प्रणाली’ के आधार पर होगा। मौजूदा न्याय-प्रणाली (मसौदे में इसे अंग्रेजों की दी हुई बताया गया है) खत्म कर दी जाएगी और सारा न्याय विधान ‘त्रेता’ और ‘द्वापर’ युग के जमाने वाला होगा।
पहली बात तो कहे का मतलब समझने की है। मुस्लिम और ईसाई समुदायों को वोट डालने के अधिकार से वंचित किये जाने का खुला ऐलान खुद भारत की अवधारणा का निषेध है। एक ऐसी अनैतिहासिक कोशिश है, जो गुजरे पांच हजार वर्ष के इतिहास में कभी नहीं हुई। भले फिलहाल, भुलावे के लिए, इस हिन्दू-राष्ट्र में सिख, बौद्ध और जैन धर्मावलम्बियों को मुसलमानों और ईसाइयों की श्रेणी में नहीं रखा गया है, लेकिन जिस वर्णाश्रम के खिलाफ प्रतिरोध के रूप में ये धर्म अस्तित्व में आये उसी पर आधारित समाज प्रणाली और ‘त्रेता’, ‘द्वापर’ युगीन न्यायप्रणाली जैसी बाकी शर्तों से इन धर्मों और उनको माननेवालों की गत क्या होनेवाली है इसे समझना मुश्किल नहीं है।
मगर यहां बात सिर्फ इन गैर-वैदिक धर्मों तक महदूद नहीं है, संविधान के इस प्रारूप का असल निशाना खुद हिन्दू धर्म के अंतर्गत आनेवाला विराट समुदाय है। इस मसौदे का- “रहने को तो हिन्दू-राष्ट्र में सभी जातियों के लोग रह सकेंगे, लेकिन रहने के तौर-तरीके मौजूदा जमाने के नियम-कायदे नहीं होंगे, सब कुछ वर्णाश्रम प्रणाली के आधार पर होगा” – प्रावधान उनकी हैसियत भी निर्धारित कर देता है।
इसी का विस्तार है वह न्याय-प्रणाली जिसे ‘त्रेता’ और ‘द्वापर’ युग की न्याय व्यवस्था के आधार पर बनाया जाना है। विस्तार में जाए बिना यदि सिर्फ प्रतीकों को ही ले लें तो ‘त्रेता’ युग वामन और परशुराम का युग है। ये दोनों ही अवतार अपने आध्यात्मिक या दार्शनिक योगदान के लिए नहीं जाने जाते। जहां वामन की ख्याति जनप्रिय महाबली को पाताल लोक में पहुंचा देने के अनोखे “न्याय” के लिए है, वहीं परशुराम पहले अपनी माँ के वध और उसके बाद “पूरी पृथ्वी को 21 बार क्षत्रिय विहीन” करने के अपने “न्याय” के लिए विख्यात हैं।
‘द्वापर’ युगीन न्यायप्रणाली की दो मशहूर मिसालें दुर्योधन के दरबार में द्रौपदी के साथ और एकलव्य के साथ किये गए “न्याय” की हैं। हिन्दू-राष्ट्र का संविधान 21वीं शताब्दी में इसी “शास्त्र सम्मत” न्याय व्यवस्था को लागू करने का प्रावधान करता है। सनद रहे कि इस न्याय प्रणाली के शास्त्रों में ‘इंडियन पीनल कोड’ (आईपीसी) के लिए मनुस्मृति और ‘क्रिमिनल प्रोसीजर कोड’ (सीआरपीसी) के रूप में गौतम-स्मृति और नारद-संहिता इत्यादि पहले से ही हैं।
इसे कुछ अनाम ‘फ्रिंज़-एलिमेंट्स’ का किया-धरा मानना खुद को धोखा देना होगा। यह एक गंभीर कवायद का हिस्सा है। भाजपा हमेशा से ही संविधान पर पुनर्विचार की बात करती रही है।
वे नया कुछ नहीं कह रहे हैं, उसी को सूत्रबद्ध कर रहे हैं जिसे ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ (आरएसएस) हमेशा कहता और मानता रहा है। मुसलमानों और ईसाइयों के बारे में गोलवलकर 1939 में ही यह सब कह चुके हैं। “हम और हमारी राष्ट्रीयता” नाम की अपनी किताब में उन्होंने लिखा था कि ‘‘हिन्दुस्तान में विदेशी जाति को या तो हिंदू संस्कृति और भाषा को अपनाना, हिंदू धर्म का सम्मान करना और आदरपूर्ण स्थान देना सीखना होगा, हिंदू जाति और संस्कृति यानी हिंदू राष्ट्र का और हिंदू जाति की महिमा के अलावा और किसी विचार को नहीं मानना होगा और अपने अलग अस्तित्व को भुलाकर हिंदू जाति में विलय हो जाना होगा या उन्हें वे लोग हिंदू राष्ट्र के अधीन होकर, किसी भी अधिकार का दावा किए बिना, बिना विशेषाधिकार के, नागरिक के अधिकारों से वंचित होकर देश में रहना होगा।’’
हिन्दू राष्ट्र का यह संविधान अपने नक्शे में पड़ोसी देशों को भी अपने भीतर समाहित करता है। आरएसएस की धारणा के अनुरूप यह भगवा ध्वज को अपना ध्वज घोषित करता है – इसी के साथ राष्ट्र नायकों और नायिकाओं की सूची भी जारी करता है जिनमें दुर्गा के अलावा महिला के नाम पर सिर्फ लक्ष्मीबाई हैं, बाकियों में राम, कृष्ण, आदि-शंकराचार्य, चाणक्य, सावरकर, पृथ्वीराज चौहान और स्वामी विवेकानद हैं। नाम के वास्ते बुद्ध और गुरु गोबिंद सिंह भी हैं। ये सब क्यों हैं? बाकी अनेक क्यों नहीं हैं? संभव है आगे जारी किये जानेवाले पृष्ठों में इस संबंध में कोई “ज्ञान” दिया जाए।
कुल मिलाकर यह कि अब धीरे-धीरे कुछ ज्यादा ही तेजी से वे भारत देश, उसके समाज और अब तक की अर्जित सभ्यता को मटियामेट कर देना चाहते हैं। मगर एक छोटा सा पेच है; वे मनुष्य की आवाज और जागते, बोलते, सोचते, विचारते समाज को अनदेखा नहीं कर सकते। भले इतिहास में यदाकदा दिख जाते हों, भेड़ियों के खुद के कोई इतिहास नहीं होते। यह भी कि भेड़िये मशाल नहीं जला सकते – इसलिए यह समय मशालें सुलगाने का भी समय है।
(सप्रेस)