12 सितंबर। संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी “ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट 2021/22” के हवाले से पता चला है कि भारत की औसत जीवन प्रत्याशा में गिरावट आई है। जहां 2019 में जन्म के समय देश की औसत जीवन प्रत्याशा 69.7 वर्ष थी वो 2021 में घटकर 67.2 वर्ष रह गई है। देखा जाए तो इस गिरावट ने दशकों के सुधार को बेकार कर दिया है।
सिर्फ भारत ही नहीं वैश्विक स्तर पर भी जो आंकड़े सामने आए हैं, वो दर्शाते हैं कि दुनिया के करीब 70 फीसदी देशों की जीवन प्रत्याशा में गिरावट आई है। वहीं 85 फीसदी देशों ने अपनी आय में आई गिरावट की सूचना दी है। गौरतलब है कि यह रिपोर्ट 07 सितम्बर 2022 को जारी की गई थी।
रिपोर्ट के अनुसार आमदनी और जीवन प्रत्याशा की यह तुलना हमें इस बात को याद दिलाती है कि आमदनी से बढ़कर भी कुछ और है। 2021 में आए महत्वपूर्ण आर्थिक सुधारों के बावजूद, स्वास्थ्य संकट कहीं ज्यादा गहरा गया है। इसका स्पष्ट उदाहरण है कि करीब दो-तिहाई देशों में जीवन प्रत्याशा में गिरावट दर्ज की गई है।
यह सही है कि महामारी ने मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) को बुरी तरह से प्रभावित किया है। हालांकि इसके बावजूद रिपोर्ट से पता चला है कि वैश्विक स्तर पर महामारी का प्रभाव असमान रहा है। इस इंडेक्स में जीवन प्रत्याशा के साथ-साथ महामारी के दौरान स्कूलों के बंद होने के प्रभाव, ऑनलाइन शिक्षा के दौरान बच्चों की उपस्थिति और ऑनलाइन शिक्षा के लिए उपलब्ध साधनों को भी स्कूली शिक्षा के संकेतकों के रूप में गणना के लिए प्रयोग किया गया है।
सम्मिलित रूप से इस रिपोर्ट में जो प्रभाव सामने आए हैं, उनके अनुसार लैटिन अमेरिका और कैरिबियन सबसे गंभीर रूप से प्रभावित क्षेत्रों के रूप में उभरे हैं। यदि 1990 के बाद के आंकड़ों को देखें तो इन क्षेत्रों ने महामारी से पहले की तुलना में अपनी 30 फीसदी प्रगति के बराबर हिस्से को खो दिया है। वहीं दक्षिण एशिया में यह आंकड़ा 24.6 फीसदी और उप-सहारा अफ्रीका के लिए 23.4 फीसदी है।
वहीं तुलनात्मक रूप से देखें तो यूरोप और मध्य एशिया ने अपनी महामारी से पहले की प्रगति का करीब 10.9 फीसदी हिस्सा खो दिया है वहीं पूर्वी प्रशांत क्षेत्र में यह आंकड़ा 5.8 फीसदी और अरब राज्यों के लिए 14.4 फीसदी रहा।
गहरी है असमानता की खाई
असमानता की यह खाई आय के आधार पर देखने पर कहीं ज्यादा गहरी लगती है। जिन देशों में एचडीआई सूचकांक बहुत ज्यादा था उन्होंने अपनी महामारी से पहले की तुलना में अपनी प्रगति का केवल 8.5 फीसदी हिस्सा खोया है, जबकि एचडीआई वाले देशों में यह आंकड़ा 21.7 फीसदी और मध्यम एचडीआई वाले देशों में 25.5 फीसदी दर्ज किया गया है।
वहीं यदि वैश्विक स्तर पर कोविड-19 समायोजित एचडीआई मूल्य देखें तो उसमें 1990 से 2019 के बीच हुई प्रगति के करीब 20 फीसदी से ज्यादा हिस्से का नुकसान दर्ज किया गया है। रिपोर्ट में महामारी की तैयारी और प्रतिक्रिया के लिए गठित स्वतंत्र पैनल के निष्कर्षों का हवाला देते हुए बताया गया है कि पिछले दो वर्षों में स्वास्थ्य सेवाएं बुरी तरह चरमरा गई थी। बीमारी के रोकथाम की बहुत धीमी रफ्तार, समन्वित वैश्विक नेतृत्व की कमी के साथ-साथ आपातकालीन वित्त पोषण जैसे उपायों को अमल में लाने में बहुत ज्यादा समय लगा। साथ ही कई देशों की सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों में भारी कमी पाई गई।
जहां एक तरफ इस संकट ने वैश्विक नेटवर्क में मौजूद दरारों को उजागर किया है वहीं साथ ही इस संकट ने तकनीकों में हुए विकास, सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक मानदंडों में बदलाव को लेकर हुए सकारात्मक बदलावों और उनके अवसरों को भी पैदा किया है।
इसका एक उदाहरण सार्स-कॉव-2 वैक्सीन को तैयार होने में लगने वाला समय है। इस वायरस के सामने आने के 11 महीनों के भीतर ही वैक्सीन का विकास, परीक्षण और प्रसार शुरू हो गया था। इतिहास में यह पहली बार है जब हमने टीकों की मदद से महामारी से लड़ने की कोशिश की है। इस “वैज्ञानिक कार्य में तात्कालिकता की अद्वितीय भावना” ने मांग और आपूर्ति में एक व्यवस्थित बदलाव को रेखांकित किया है।
इस तरह के झटके नीतियों में परिवर्तन के लिए एक चिंगारी का काम करते हैं जिसे सबसे पहले 14वीं शताब्दी की शुरुआत में दर्ज किया गया था। हमारी बढ़ती अनिश्चितता और सामाजिक अशांति के डर के बीच बाधाओं को दूर करते हुए इसने नई नीतियों को लागू करने के लिए जगह बनाई। साथ ही इसकी वजह से लोगों की बेहतरी और उसमें सुधार के लिए जन-केंद्रित नीतियों का महत्त्व भी सामने आया है।
– तरन देओल
(डाउन टु अर्थ से साभार)